लोकसभा चुनावों के लिए योजनाबंदी कर रहे हैं प्रधानमंत्री

मध्य प्रदेश में की गई अपनी रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 14वीं शताब्दी के संत कवि रविदास को श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि उन्होंने मुगल साम्राज्य के दमनकारी शासन के खिलाफ संघर्ष करने का साहस दिखाया था। प्रधानमंत्री के इस कथन से भक्ति आंदोलन के साथी और मध्यकालीन भारत के इतिहासकार चकित रह गए होंगे। संत रविदास या किसी भी अन्य भक्त कवि को मुगल विरोधी के रूप में चित्रित करने वाला कोई विमर्श अभी तक स्थापित नहीं हुआ है। ऐसे विमर्श के उलट स्थिति यह है कि इतिहासकारों के मुताबिक उत्तर भारत में भक्ति परम्परा के संस्थागत रूप से पैर जमने में मुगल साम्राज्य की उल्लेखनीय भूमिका थी। 1526 में अकबर ने वृंदावन के गोविंददास मंदिर के मुख्य पुजारी एक ज़मीन अनुदान में दी थी। 1580 तक मुगलों की तरफ से ब्रज क्षेत्र में सात मंदिरों को जागीरें दान में दी जा चुकी थीं। इसके पीछे मुगल दरबार में मौजूद राजस्थान के कछवाहा राजपूर नरेशों की प्रभावशाली उपस्थिति का भी हाथ था। अगर मुगल-कछवाहा गठजोड़ ने यह भूमिका न निभाई होती तो वृंदावन कृष्ण भक्ति परम्परा के केन्द्र के रूप में विकसित न होता। भक्ति परम्परा का मुगलों पर इस ़कदर प्रभाव था कि अकबर ने अपनी ‘सुलह-कुल’ की नीति कबीर द्वारा प्रतिपादित दर्शन पर स्थापित की थी। ये दोनों उदाहरण बताते हैं कि मुगल काल पर भक्ति की निर्गुण (कबीर) परम्परा का कितना असर था, और सगुण (कृष्ण भक्ति) परम्परा में भी उसकी कितनी सकारात्मक भूमिका थी। निर्गुणिया भक्ति और स़ूफी दर्शन के बीच आदान-प्रदान तो इस संबंध में एक स्थापित विमर्श है। इन तथ्यों के बावजूद प्रधानमंत्री अपने लाल किले के भाषण में एक हज़ार साल की गुलामी का ज़िक्र करते नज़र आए। अगर वे ब्रिटिश शासन का हवाला देते तो समझ में आने वाली बात होती। इसमें कोई शक नहीं कि मुस्लिम शासन काल में हिंदू समाज अक्सर एक तरह के सांस्कृतिक उत्पीड़न की अनुभूति से गुज़रता था, लेकिन ऐसे उत्पीड़न और गुलामी की भावना में काफी अंतर किया जाना चाहिए।
अपने 15 अगस्त के डेढ़ घंटे लम्बे भाषण में प्रधानमंत्री ने उन्हें देख और सुन रहे देशवासियों को भारत के अतीत और भविष्य की एक नयी कहानी सुनाई। इसके बाद देश में विभिन्न जगहों पर दिये जाने वाले भाषणों में भी वे इसी से मिलती-जुलती बातें कहते हुए नज़र आए। ऐसा लगता है कि लोकसभा चुनाव के लिए राष्ट्रीय पैमाने पर की जाने वाली भाजपा की माहौलबंदी के केन्द्र में भी इसी तरह की बातें की जाएंगी। अंग्रेज़ी में इसी को ‘नैरटिव’ सेट करने की संज्ञा दी जाती है। प्रधानमंत्री का कहना था कि देश हज़ार साल लम्बी गुलामी के दौर से गुज़र कर आज इस मुकाम पर पहुंचा है कि आने वाले एक हज़ार साल के लिए राष्ट्रीय महानता की बुनियाद रख सके। यह दावा करते हुए प्रधानमंत्री ने अपनी ़खास शैली में स्वयं अपनी हस्ती को इतिहास की इस कहानी के केन्द्र में स्थापित किया। उन्होंने एक ऐसी छवि बनाने की कोशिश की कि जैसे इस मुकाम पर देश का नेतृत्व करने के लिए परमात्मा ने उन्हीं को भेजा हो। यह किस्मत ने तय किया है कि वे जिस योजना का शिलान्यास करें, उसका उद्घाटन भी उन्हीं के हाथ से हो। मेरा विचार है कि राजनीतिक व्यक्तिवाद का इससे आकर्षक उदाहरण लोकलुभावन ढंग से किसी और नेता ने आज तक पेश नहीं किया है।  
प्रधानमंत्री द्वारा की जा रही इस माहौलबंदी से एक सवाल पैदा होता है। क्या अगला लोकसभा चुनाव हज़ार साल की कथित गुलामी और हज़ार साल के कल्पित भविष्य के नाम पर लड़ा जाएगा या उसका फैसला नरेंद्र मोदी द्वारा शासित दस वर्षों की ़खूबियों और ़खामियों के आधार पर होगा? प्रधानमंत्री अच्छी तरह जानते हैं कि पिछली बार उन्हें केवल 37 प्रतिशत वोट मिले थे। उनकी पार्टी को मिली 303 सीटों में से अगर केवल 31 कम हो जाएं तो भाजपा बहुमत वाली पार्टी नहीं रह जाएगी। उसे गठजोड़ सरकार बनानी पड़ेगी। बहुतों के मन में सवाल है कि प्रधानमंत्री की दमदार शक्सियत गठजोड़ राजनीति के लिए उपयुक्त होगी या नहीं। वैसे मानता हूं कि हर नेता भीतर से बहुत लचीला होता है। अगर गठजोड़ सरकार बनाने के म़ौका आया तो नरेंद्र मोदी के भीतर छिपा बैठा अटल बिहारी वाजपेयी प्रगट होने में देर नहीं लगेगी। यह नौबत न आने पाए, इसीलिये वे अतीत और भविष्य के बीच अपने दस वर्ष लम्बे वर्तमान को कहीं गुम कर देना चाहते हैं। यानी, जनता अतीत की गुलामी से बचने के लिए अगर किसी भविष्य का निर्माण करना चाहती है, तो नरेंद्र मोदी उसके लिए सबसे बेहतर प्रधानमंत्री हैं। उन्हें यह भी अंदाज़ा है कि विपक्ष ‘अतीत की गुलामी’ (जिसमें अंग्रेज़ों के 190 साल और उससे पहले मुसलमान शासन के सात सौ वर्ष भी आ जाते हैं) वाले ़िफकरे के प्रति असहज रहेगा, और उसकी प्रतिक्रियाएं भाजपा को मुसलमान विरोधी हिंदू गोलबंदी करने में मदद करेंगी। 
तो क्या मोदी के पास अतीत और भविष्य के बीच फंसे हुए अपने दस वर्षीय शासनकाल की मज़बूत और चमकदार रिपोर्ट नहीं है? मेरे ़ख्याल से लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर बोलते हुए अमित शाह और नरेंद्र मोदी ने यह रिपोर्ट सिलसिलेवार पेश की थी। दरअसल, समस्या रिपोर्ट पेश करने की नहीं है, बल्कि यह है कि उसके बारे में वोटरों को य़कीन कैसे दिलाया जाए। उलझन यह भी है कि भारत का मतदातामंडल एकसार नहीं है। उसकी कई परतें हैं और इन परतों से मिल कर एक पिरामिड बनता है। इस पिरामिड के आधार और बीच के हिस्से में ज्यादा गरीब, गरीब, कम गरीब और गरीबी से ठीक ऊपर वाले मतदाता भरे हुए हैं। ़खुशहाल मतदाता तो केवल उस हिस्से में हैं जो शिखर से थोड़ा ही नीचे है। मोदी हों या कोई और हो, उसे ़गरीब मतदाता ही जीता सकते हैं। इसलिए मोदी ने अपना ़फोकस उन्हीं पर रखा हुआ है। मसलन, अपने 15 अगस्त के भाषण में उन्होंने दो बड़ी ़गरीब-लुभावन योजनाओं की घोषणा की। ये हैं विश्वकर्मा योजना और लखपती दीदी योजना। 
अभी कुछ दिन पहले ही जस्टिस रोहिणी के नेतृत्व में लम्बे समय से काम कर रहे आयोग ने अपनी रिपोर्ट केन्द्र सरकार को सौंपी है। राजनीतिक नज़रिये से कहें तो इस कमिशन का काम आरक्षण का ़फोकस उन जातियों और बिरादरियों पर फेंकना था जिन्हें अभी तक इसका लाभ नहीं मिला है। ये हैं कारीगर पिछड़ी जातियां (बढ़ई, लुहार वगैरह) जिन्हें मिल सकने वाले लाभ मंडल कमिशन के एक ़खास रुझान के कारण किसान पिछड़ी जातियों की तरफ चले गए हैं। समझा जा सकता है कि मोदीजी को रोहिणी आयोग की रपट में इन वंचित जातियों की प्रभावी संख्या दिखी होगी जो 25 से 30 प्रतिशत के आसपास है। वे यह भी जानते हैं कि उत्तर प्रदेश में हुई उनकी चार ज़बरदस्त जीतों में इन अतिपिछड़ों ने भाजपा का ही साथ दिया था। 15 अगस्त पर घोषित विश्वकर्मा योजना मोदीजी ने अपने इन्हीं वोटरों के लिए तैयार की है। इसके ज़रिये वे उम्मीद कर सकते हैं कि यह तब़का लगभग स्थायी रूप से उनके साथ जुड़ जाएगा। इसी तरह से ग्रामों की ़गरीब स्त्रियों के लिए मोदीजी लखपती दीदी योजना लेकर आए हैं। इन योजनाओं के केन्द्र में नौकरी देने का आश्वासन न हो कर स्वरोज़गार का वायदा है। वैसे भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ दूरगामी तौर पर नौकरीपेशा होने के बजाय स्वरोज़गार हासिल करने पर माहौल बनाने की मुहिम में लगा हुआ है। उसे पता है कि मौजूदा अर्थव्यवस्था में नये रोज़गार मिलना तो दूर, पुराने रोज़गार छिनने वाले हैं। 
ज़ाहिर है कि सत्तारूढ़ दल की माहौलबंदी अतीत और भविष्य की हवाबाज़ी तक ही सीमित नहीं है। उसके पास कुछ ठोस योजनाएं हैं जो वह अगले छह महीने में लागू करके दिखायेगा। पहले से जनधन योजना और अन्य योजनाएं चल ही रही हैं। मोदीजी ने 2014 से ही एक विशाल और बहुमुखी सब्सिडी तंत्र बना रखा है। सत्ता में वापिसी की योजना अब पूरी तरह से स़ाफ है। पिरामिड के ऊपरी हिस्से के लिए हज़ार साल की महानता के भविष्य का आश्वासन है तो बीच वाले और निचले हिस्से के लिए विश्वकर्मा और लखपती दीदियां हैं।

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।