क्या ठहर गई है आज़ाद और आधुनिक समाज की सोच ?

77वें आज़ादी दिवस की खुशी के मौके पर देश की आज़ादी ज़ोर-शोर के साथ मनाने का ़ख्याल करना, जश्न मनाना, स्कूलों से लेकर कालेजों तक, क्लबों, संस्थाओं, सरकारी कार्यालयों से लेकर घरों पर झंडे लहराना आदि के साथ आज़ादी के जश्न मनाकर हम सोचते हैं कि हमने अपने देश के लिए एक समर्पित नागरिक होने का फज़र् अदा कर दिया है। आज हम 21वीं शताब्दी में हैं। मनुष्य के प्रतिदिन के नये अविश्कारों, विज्ञान की होती तरक्की देख कर मन को बहुत तसल्ली मिलती है कि हम अन्य देशों के मुकाबले आगे बढ़ रहे हैं।
हमारा समाज एक बहुत आधुनिक समाज बन रहा है। आस-पास के हालात, जहां हर दिन लोगों द्वारा नए अंदाज़, नए फैशन अपनाए जाते हैं, देखकर लगता है कि हम सच में एक आधुनिक समाज कहलवाए जाने लगे हैं। पर हकीकत कुछ और ही है, जिसको हमारा समाज और उसके लोग अधिकतर मानना नहीं चाहते। हकीकत है कि हमने आधुनिक होने का अर्थ ही बदल दिया है।
हर दिन नया सूर्य निकलता देखकर मन में विचार आता है कि हमारी सोच आज सिर्फ कथित आधुनिकता का दिखावा करने तक ही सीमित होकर रह गई है। जिस भावना, जिस सोच, जिस हिम्मत के साथ हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने देश को आज़ाद करवाया था, उनकी जो सोच लोगों के बारे, आने वाली पीढ़ियों के बारे में थी, और लगता है जैसे वह दिन-ब-दिन अवसान की तरफ जा रही है।
हम फोटो खिंचवाने के लिए, कैंप लगाने के लिए अपने सोशल मीडिया पर लाईव हो जाने के लिए, एक-दो घंटे ज़रूरतमंदों को सामान ज़रूर बांटेंगे पर बाकी दिन हमारा किसी से कोई लेना देना नहीं। रास्ते में जाते समय हम किसी बेसहारा की तरफ देखते भी नहीं, किसी ज़रूरतमंद के लिए हमारा दिल नहीं पिघलता। बस, वह सेवा कुछ घंटों की होती है।
मन में दूसरों से अच्छा दिखने की, कपड़े अच्छे होने की, बढ़िया रूतबा रखने की सोच भारी रहती है। बात यह कि हर चीज़ में मुकाबला करने की भावना इस हद तक बढ़ गई है कि अपने बच्चों को भी हमने अपने इस दिखावे की लड़ाई में शामिल कर लिया है। बच्चों के पहरावे से लेकर उनकी फोटो तक दूसरे के बच्चों से अच्छी होनी चाहिएं, इस सोच ने आज अधिकतर मनों में घर कर लिया है। सच्चाई के प्रति उदासीनता और आत्म-विश्लेषण की कमी ऐसी बीमारियां हैं जो हमारे समाज को तबाह कर रही हैं और सबसे बड़ी बात यह कि हमें किसी को इस तबाही के मंज़र की तरफ लगातार बढ़ने का अहसास तक भी नहीं है।
क्यों हम दूसरों को नीचा दिखाकर खुश होते हैं? सहनशीलता चाहे बड़े हों, चाहे छोटे, सभी में घटती जा रही है क्योंकि आजकल बहसबाज़ी, धक्का-मुक्की तो आम बात हो गई है चाहे सड़क पर, चाहे पार्टियों में हमारे बच्चे यह सब कुछ बड़ों से ही सीखते हैं। आजकल हर तरफ घोटालों, नशें, धोखे, मारपीट आदि की खबरें सुनने और पढ़ने को मिलती हैं। किसी को मारना तो बहुत आम बात लगने लगी है। सोचने वाली बात यह है कि इस अवसान के लिए आखिर किसको ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है? किस प्रकार से बदलाव आ सकता है?
हम एक ऐसे मोड़ पर आकर खड़े हो गये हैं जहां बेहतर बदलाव बहुत ही ज़रूरी हो गया है। यदि हमने अपनी आने वाली पीढ़ियों का भविष्य बचाना है, अपनी और उनकी बेहतर ज़िंदगी के लिए सकारात्मक माहौल तैयार करना है, तो सभी को मिलकर उन खूबियों को हकीकत के रूप में अपनाना पड़ेगा जो हमने अपनी ज़िंदगी में सीखी हैं।
हमें अपनी सोच को बड़ा और विस्तृत करना पड़ेगा, विशाल हृदयता को बढ़ावा देना पड़ेगा, भेड़चाल की तरह नहीं, बल्कि अपनी व्यवस्था, अपने रहन-सहन, अपनी संस्कृति के अनुसार बच्चों को शिक्षा देनी पड़ेगी। इस समाज को दिखावे, अपराधों से मुक्त समाज बनाना पड़ेगा। घरों से लेकर शिक्षण संस्थानों तक हमें इस तरह से सकारात्मक सोच, सकारात्मक माहौल पैदा करना सिखाना पड़ेगा जहां बड़ों को उनका मान-सम्मान और छोटों को भरपूर प्यार मिले। ऐसा तभी सम्भव है, यदि लोगों की संकीर्णतापूर्ण और स्वार्थी सोच का अंत कर दिया जाए जो हमारे समाज में रहने वाले लोगों को धीरे-धीरे घुन की तरह खोखला कर रही है और यह न हो कि हमारी ना-समझी के कारण हमारा यह समाज रहने के लायक भी न रहे। 

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