साहित्य संस्कृति का वकालती मूल्यांकन

शुरू से ही साहित्य, कला तथा संस्कृति का सरकार के दरबार में मान-सम्मान होता आया है। राजा, महाराजा तथा उनकी सरकारें विभिन्न रूपों में अपने समय के कलाकारों का सम्मान करती आई हैं। एक लोक बोली के अनुसार ‘हीरे, जवाहर, मोती, गीटे जिहे ने भावें पैंदा है मुल्ल आखिर उन्हां दी रौशनी दा।’ मानव जाति माणक मोतियों से कहीं अधिक उत्तम है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत सरकार ने सर्वश्रेष्ठ गिने जाते रचनाकारों को सम्मानित करने के लिए संगीत, नाटक, साहित्य तथा ललित कला अकादमियां स्थापित कीं। राज्य सरकारों ने भी इन कलाओं के सम्मान व प्रचार-प्रसार के ढंग तलाशे। पंजाब सरकार का भाषा विभाग उनमें से एक है, जो साहित्य कला संस्कृति में विशेष योगदान डालने वालों को अपने-अपने समय में शिरोमणि व कला रत्न घोषित करके प्रत्येक वर्ष एक करोड़ की राशि प्रदान करता है। 
सरकारी कार्य में थोड़ी बहुत त्रुटि भी हो जाती है। इस बार किसी कारण विभाग ने यह फैसला लेते हुए 6 वर्ष लगा दिए, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि उन्होंने पांच वर्षों के सम्मान दृष्टिविगत कर दिए। फैसला तो लिया परन्तु 6 वर्ष का एक साथ। हुआ सो हुआ, एक लेखक वकील ने लुधियाना की कचहरी में इस फैसले को चुनौती देते हुए इन 6 वर्षों के सम्मानों पर रोक लगवा दी जिसके परिणामस्वरूप 6 वर्ष के सम्मान दो वर्ष के लिए और लटक गए। हो सकता है कि उस वकील को रोष हो कि उन 6 वर्षों में उसकी ओर ध्यान क्यों नहीं दिया गया या उसे पुरस्कारों के चयन संबंधी अपनाई जाती प्रक्रिया पर भी आपत्ति हो सकती है। परन्तु प्रतीत नहीं होता कि उस वकील की वकालत उसे वांछित आय न देती हो और वह इस तरह के केस करके काम चलाता हो। इतना अवश्य है कि सभी विजेताओं की राशि दो वर्ष सरकारी खज़ाने में रुकी रही। यह राशि कोई पौने 6 करोड़ रुपये के लगभग है, जिस पर दो वर्ष का ब्याज इतना बनता है कि उससे आधा दर्जन कलाकार पुरस्कृत किए जा सकते हैं। वैसे भी यह राशि उन पात्रों के काम नहीं आ सकी, जिन्हें मिलनी थी। इस मामले का सभी संबंधित पक्षों को कोई न कोई समाधान अवश्य निकालना चाहिए। 
भारत चीन संबंध 1962 तथा अब 
चीन द्वारा जारी किये ताज़ा नक्शे में एक बार फिर अरुणाचल को चीन का हिस्सा दिखाया गया है। याद रहे कि 1962 में चीन ने भारत पर हमला करके अपनी सेना को भारत के भीतर तक भेज दिया था और अक्साई चिन पर ऐसा कब्ज़ा किया था कि आज तक नहीं छोड़ा। नक्शे की बात चाहे पुरानी भी हो तो भी इसे विदेश मंत्री की भांति ‘बेतुका’ कहना काफी नहीं, सावधान रहना ज़रूरी है। उनकी टिप्पणी तो 1962 के कवि तारा चंद आज़ाद जैसी है, जो चीनियों के कद का उपहास करके खुश हो रहा था। वह था:
 ‘तूं अपने कद नूं माप ते सही तारा चंद आज़ाद के कद के नाल।’ वह नहीं जानता था कि वर्तमान लड़ाइयां कद की नहीं हथियारों की मांग करती हैं। चीन के नक्शे को सिर्फ बेतुका कहना काफी नहीं, चौकस रहने की आवश्यकता है।  
अढ़ाई सौ रुपये का सोफा सैट
मैं लिख चुका हूं कि पिछले दिनों में मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं रहा। मेरी जीवन साथी को भी मेरी देखभाल के लिए घर में ही रहना पड़ा। अंत में उसने अपने लिए यह व्यस्तता तलाशी कि अपने पुराने कागज़ खंगालने शुरू कर दिए। उनमें से एक 7 जुलाई, 1964 का बिल मिला। हमारे विवाह से दो वर्ष पहले का जब संधू नहीं हुई थीं, सुरजीत पन्नू के रूप में जानी जाती थी। यह बिल उस सोफा सैट का है जो उसने जुलाई 1964 में हौज़ खास दिल्ली की मेन मार्किट में कुक्कू फर्नीचर नामक दुकान से बनवाया था। सोफा सैट की कीमत 250 रुपये लगाई गई थी और उसके लिए उपयोग किए कपड़े की 11 रुपये 22 नये पैसे।
मेरी सुरजीत के साथ शादी के बाद वह सोफा सैट नई दिल्ली से हमारे साथ 29 सैक्टर, चंडीगढ़, में पड़ती ट्रिब्यून कालोनी पहुंचा, फिर मेरी वर्तमान रिहायश (1538, सैक्टर 36 डी, चंडीगढ़) में और गत वर्ष से हिमाचल प्रदेश के धर्मपुर क्षेत्र की उस कुटिया में जहां हम गर्मी के मौसम में जाते हैं।
यह बात बताने का भाव सोफा सैट का सफरनामा लिखना नहीं बल्कि पिछले 60 वर्ष में हुई वस्तुओं की महंगाई को दर्शाना है। यह भी कि तब नये पैसे की कितनी कद्र थी। 250 या 11 रुपये का महत्व एक तरफ रहा, 22 नये पैसे भी अर्थ रखते थे।
यदि 40 वर्ष पहले की बात सुनना चाहते हो तो मैं एक रुपये के नोट की बात भी करना चाहता हूं, जो तब नया-नया अस्तित्व में आया था। मेरे गांव के एक लड़के के हाथ में एक रुपये का नोट आ गया तो उसने यह नोट मलमल की कुर्ती की ऊपर वाली जेब में डालकर ऐसे सीना चौड़ा करके चलना जैसे उसकी जेब में बड़ा खज़ाना हो। सोचें और विचारें।
अंतिका
-एक लोक बोली-
बोता बन्न दे पिप्पल दी छावें 
मुन्नियां रंगीन गड्डीयां।
मत्था टेकलां अम्मा दीये जाइये
बोता भैणे फेर बन्नांगा।