भरोसा

जबसे बाबूजी का देहांत हो गया था। तो गोपी अपने आपको बहुत अकेला महसूस करने लगा था। बाबूजी यधपि बूढ़े हो चले थे, लेकिन उनके होने से गोपी को बहुत संबल मिलता था। काऊंटर पर वो दो-चार घंटे बैठ ही जाते थे। तो गोपी बाहर-भीतर के काम देख आता था। अब तो बाबूजी भी नहीं रहे। उसे रक्षा बंधन की खरीददारी करने  के लिये लगभग सप्ताह भर के लिये बाहर जाना था, लेकिन किस पर वो पूरी दुकान छोड़कर जाये, गोपी इसी कशमकश में पड़ा हुआ था।  कभी-कभी उसका मन करता था, कि वो अपने बेटे ऋषभ से दुकान पर बैठने को कहे। लेकिन, फिर ऋषभ की पढ़ाई के बारे में सोचते तो उसका दिल बैठ जाता। ऋषभ ने अभी-अभी 10वीं की परीक्षा पास की थी। उसको दुकान पर भला कैसे बैठने को कहे? उसको अपने पढ़ाई और कैरियर की बहुत चिंता थी। खूब मन लगाकर पढ़ रहा था ऋषभ। ऊपर से परीक्षाओं का दबाव था। अभी चौदह का ही है, बेचारा ऋषभ। अभी से ऋषभ पर वो  घर-गृहस्थी का बोझ नहीं डालना चाहता था।
शालिनी अभी ग्रेजुएशन कर रही है। उसको भी वो भला क्या कह सकता था? 
श्वेता बाज़ार से लौटी तो देखा, गोपी अभी दुकान नहीं गये हैं।  श्वेता फल और सब्जियों को फ्रिज में रखते हुए बोली- ‘अरे, तुम्हें तो आज दिल्ली के लिये टिकट निकलवाने स्टेशन जाना था, ना। तुम अभी तक घर पर ही बैठे हो। जाओ जाकर टिकट निकलवा लो।’
‘लेकिन, दुकान बंद करके मैं दिल्ली कैसे चला जाऊं। रक्षाबंधन की दुकानदारी है। मार्किट में दस दिन पहले से ही भीड़ पकड़ने लगती है। अब तो बाबूजी भी नहीं हैं। वो होते तो मैं बेफिक्र होकर कहीं भी आ जा सकता था।’
पिता के अवसान पर गोपी की आंखें भर आईं थीं। 
‘मैं हूँ ना। साथ में दुकान के स्टाफ भी हैं। मुझे तो केवल काऊंटर पर बाबूजी की तरह बैठकर बिल बनाना है और पैसे काटना है। तुम बिल्कुल निश्चित होकर बाहर जाओ और अच्छे से खरीददारी करो। वैसे भी अभी बारिश का मौसम है। मार्किट डाऊन रहता है। मैं, आसानी से दुकान संभाल लूंगी। अब बाबूजी नहीं हैं तो क्या हुआ। उनका आशीर्वाद तो हमारे साथ ही है।’
गोपी, श्वेता की बुद्धिमानी और चतुराई की मन-ही-मन दाद दे रहा था। गोपी, सोच रहा था कि भला ये बात श्वेता से पहले उसे क्यों ना सूझी? लेकिन वो डर भी रहा था कि एक तो औरत जात और उस पर इतनी बड़ी दुकान की जिम्मेदारी भला वो कैसे छोड़ सकता है? कहीं कोई ऊंच नीच सो गई तो एक तो महिला है। दुकान में तरह-तरह के मूडी लोग आते हैं। कहीं कोई झर-झमेला हुआ तो कैसे संभालेगी वो भला अकेले? वो मन ही मन टिकट निकलवाने गया। टिकट  निकलवाकर वो घर लौट आया था। करीब चार दिनों के बाद उसे दिल्ली निकलना था। लेकिन उसका किसी भी काम में मन नहीं लग रहा था। खाते-पीते उसे दुकान की ही चिंता लगी रहती थी। उसके दिल में कई बार ये ख्याल भी आया कि वो टिकट कैंसिल करवा दे। आखिर, वो श्वेता को अकेले छोड़कर दिल्ली कैसे जा सकता है लेकिन ये चार दिन ऐसे ही पेशोपेश में बीत गये थे। 
और, वो तय समय भी आ गया। जिस दिन गोपी को दुकान की खरीददारी के लिये बाहर जाना था। भारी मन से वो दिल्ली दुकान की खरीददारी करने के लिए निकला। सप्ताह भर का समय खरीददारी करते-करते यूँ ही निकल गया। माल खरीदकर वो, दोपहर के बाद किसी समय दुकान पर पहुँचा। तो देखा दुकान में बहुत भीड़ है लेकिन  श्वेता और शालिनी दोनों ने दुकान बहुत अच्छे से संभाल रखा था। बाद में जब भीड़ कुछ कम हुई तो श्वेता ने पूछा-‘हो गई खरीददारी तुम्हारी?’ 
‘हाँ....’ गोपी मुस्कुराते हुए, कुछ झेंपता सा बोला। 
शालिनी पापा को देखते ही चहकते हुए बोली-‘पापा आप आ गये। अच्छा हुआ आप जल्दी आ गये। मुझे अपने कॉलेज के प्रोजेक्ट का काम भी करना है लेकिन आपकी गैर मौजूदगी में मैनें और मम्मी ने अच्छे से दुकान को संभाले रखा था। हमने लगभग सभी ग्राहकों को आपकी गैर-मौजूदगी में सामान अच्छे से बेचे। और आशीष भईया और सेवक चाचा ने हमारी खूब मदद की।’
‘हां, बेटा सही कह रही हो। आखिर परिवार की नींव सहयोग की भावना पर ही रखी जाती है। वैसे भी बड़े बाबू के निधन के बाद अब दुकान तो आप लोगों को ही संभालनी है। वैसे भी श्वेता और गोपी मेरे बच्चों की तरह हैं और तुम मेरी पोती की तरह। पति-पत्नी तो एक ही गाड़ी के दो पहिये की तरह होते हैं, बेटा एक के बिना गृहस्थी की गाड़ी नहीं चल सकती।’ सेवक चाचा जो गोपी की दुकान के सबसे पुराने मुलाजिम थें। ये बातें गोपी बाबू और श्वेता को समझा रहे थें।  गोपी को अब ये विश्वास हो चला था कि श्वेता के ऊपर भी वो दुकान छोड़कर कहीं भी आ जा सकता था। वो आज मन-ही-मन बहुत खुश था!


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