‘आपा-धापी युग की आमद’

‘सुनो, आजकल अपनी मेहनत का मूल्य मांगते हुए डर लगने लगा है।’ छक्कन ने हमें चताया।
बात हैरानी की थी। एक ऐसा देश जिसकी नय्या के खवैया गर्वित हों कि उन्होंने देश की अस्सी करोड़ आबादी में रियायती गेहूं बांट कर दुनिया में रिकार्ड बना दिया है, जहां गारण्टी दे दी गई हो कि अब किसी को भूख से मरने नहीं दिया जाएगा, जिसके नौजवान अब रोज़गार दिलाऊ खिड़कियों के बाहर नहीं, रियायत बांटने वाले दानवीर उद्घोषक के सामने कतार लगा कर खड़े हों, जहां चुनावों की घोषणा का हर नया एजेंडा उन नई रियायती उड़ानों से भरा हो, जो लोगों को काम नहीं, निष्काम की ओर ले जाएं, मेहनत नहीं, जयघोष की ओर ले जाएं, राष्ट्र नव-निर्माण नहीं, राष्ट्र-पलायन की ओर ले जाएं। जी हां, डॉलरों और पाऊंडों की बिसात पर नई पीढ़ी के सपनों के जहां दांव लगते हों, वहां छक्कन हमें पूछते हैं, ‘यहां तो आजकल अपनी मेहनत का मूल्य मांगते हुए भी डर लगता है?’ उधर समय के अलम्बरदार बताते हैं, कैसी मेहनत? क्या ऊंची अटारी वालों का जयघोष करने में मेहनत लगती है? उनकी सफलता का जश्न मनाने में कैसी मेहनत? यहां तो ऐसे उत्सवों में ऐसे मुहाविरे टकसाली सिक्कों की तरह चलते हैं कि, ‘न हींग लगे न फिटकड़ी, रंग भी चोखा आए’ अब बताओ, हींग और फिटकड़ी उपजाने के लिए दिन-रात मेहनत करने वाले कहां जाएं। अरे, अब इसके लिए मेहनत की कुदाल न उठाओ, कोई नया शार्टकट पैदा करने के लिए ज़मीन हमवार करने की क्षमता पैदा करो। जानकार सिर हिला कर बताते हैं, ‘भाई जान, अपनी मेहनत का मेहनताना मांगने से पहले अपने बिकने की क्षमता पैदा करो।’
भई यह बिकने की क्षमता पैदा करना क्या बाज़ारीकरण का दूसरा नाम है? चमकदार आकर्षक डिब्बों में बन्द उन खोखले सपनों को नाम है, जिन्हें सरकार-दर-सरकार अन्धी अन्धेरी बस्तियों को परोस दिया जाता है? इसी बल पर अपने हक में ई.वी.एम. मशीनों पर उनकी उंगलियों का दबाना बटोर लिया जाता है। बार-बार इसे बटोरने की ज़ेहमत न उठानी पड़े, इस लिए क्यों न अब पूरे देश में एक साथ ही दिल्ली दरबार और हर राज्य के वोट बटोरने का सिलसिला पैदा कर दिया जाए। नई ़खबर उड़ी है।  भई अभी उभरता संवरता देश है। इसमें तो किफायत से ही चलना होगा। हम तो दिन-रात मितव्ययिता के नए रिकार्ड बना रहे हैं। एक महंगी हॉलीवुड या बॉलीवुड फिल्म की लागत से कम में हमने अपने चन्द्रयान को चांद के दक्षिणी ध्रुव पर उतार दिया। सूरज के आदित्य अभियान का प्रक्षेपण हो गया। उसी मितव्ययिता का बोलबाला रहा इसमें भी।
समझे, देश का कितना पैसा बच गया, हम कितनी आर्थिक समझ रखते हैं। हां, इसके प्रचार और प्रसार की विज्ञापनबाज़ी पर इससे दुगना-तिगना खर्च हो जाए तो इसकी परवाह नहीं। आखिर सदियों से सोयी हुई जनता को जगाना भी तो है। उन्हें नए युग के आने का आभास भी तो देना है। उसके लिए स्वागतगान होगा, तोरण की यात्रा भी तय करनी होगी। पैसा तो लगता है।
परन्तु इस त्यौहारी कोलाहल में वह सवाल तो खो गया, कि जिस युवा पीढ़ी ने इतने बरस लगा कर अपनी डिग्रियां पूरी कीं, अब वे इनका इस्तेमाल क्या शोभायात्राओं में शामिल होने के लिए करें? इन शोभायात्राओं में तो डिग्रीधारी नहीं, धक्कमपेल में माहिर लोग आगे आगे चलते हैं। देखते ही देखते वे नये मुहाविरों का शब्दकोश घड़ देते हैं, कि ‘कौन कहता है हथेलियों पर सरसों नहीं उगती।’ आजकल तो सरसों खेतों में नहीं, हथेलियों पर उगती है। भेड़िया धसान की अन्धी दौड़ है, जिसमें रंक से छलांग लगा कर लोग राजा हो जाते हैं और शतरंज का मुहाविरा गलत करके कहते हैं, कि ‘आज तो जो प्यादे से फर्जी होकर टेढ़ो-टेढ़ो जा सके, वही कामयाब है।’
सही पूछा आपने, मेहनत करने वालों में कितने ऐसे हैं, जिनमें बिकने की क्षमता है। अपना बाज़ार सजा कर अपने सर्वोपरि होने की ऊंची आवाज़ निकालने की क्षमता है? अगर आवाज़ अकेली है, तो अपना गिरोह बना लो, अपने जैसे श्रेष्ठ लोगों की सूची समय-समय पर प्रसारित करवा लो। ऐसे लोग जिनमें समवेत स्वर में गाने की क्षमता हो, अपना प्रशस्ति गायन कर लें। अपने लिए अभिनंदन गोष्ठी स्वयं नहीं आयोजित करवा सकते, उसकी खबर से मीडिया को नहीं चुंधिया सकते, तो फिर जाओ बीस नहीं शून्य के भाव में। तुम्हें तो कोई अनुकम्पित होते लोगों की बारात में भी शामिल नहीं होने देगा, बंधु, क्योंकि इस बारात का दूल्हा बनने के लिए सही सम्पर्क चाहिये। लेखक हो न तो अपने लिए आलोचक, और कलाकार हो तो अपने लिए समीक्षक साथ लेकर चलो। ‘आकेला चालो रे’ से बड़ा कोई और सूत्र नहीं जो इस नए ज़माने ने आजकल नकार दिया। अरे यह तो गिरोह-बन्दी करके चक्रव्यूह रचने का ज़माना है, और तुम मेहनत का साधना पथ तलाश रहे हो। 
ऐसे साधक तो आजकल अंधेरी बस्तियों में भी दीये जलाते नहीं दिखते। अकेले की क्या बिसात? उसे तो इस आपाधापी की दौड़ में पीछे छूटना ही है। युग बदल गया है। इसका तो नया नामकरण भी हो गया, आपाधापी युग। और आप अभी तक कलियुग के बाद सतयुग के आने का इंतज़ार कर रहे हैं। अपनी मेहनत का मेहनताना पाने जैसे बोसीदा सवाल कर रहे हैं। बहुत भोले हो तुम, बन्धु!