महत्त्वपूर्ण है आपसी विचार-विमर्श

अमृतसर में उत्तरी ज़ोनल कौंसिल की बैठक का एक अहम पहलू यह है कि इसमें उत्तरी भारत के प्रदेशों तथा केन्द्र शासित क्षेत्रों के प्रमुखों की बैठक में भाग लिया एवं अपने-अपने दृष्टिकोण से आपस में विस्तारपूर्वक विचार-विमर्श किया गया है। इनमें पंजाब के अलावा हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश तथा जम्मू-कश्मीर आदि शामिल हैं। चंडीगढ़ केन्द्र शासित क्षेत्र होने के कारण पंजाब के राज्यपाल तथा चंडीगढ़ के प्रशासक ने भी इस बैठक में भाग लिया। समय-समय पर ये बैठकें होती रहती हैं जिनकी अध्यक्षता केन्द्रीय गृह मंत्री करते रहे हैं। विगत कुछ समय में इन उपरोक्त प्रदेशों में कुछ ऐसे मुद्दे उभरे हैं जिनका प्रमुखता के साथ ज़िक्र इन बैठकों में होता रहा है। 
वर्ष 2019 में सितम्बर मास में हुई इस कौंसिल की 29वीं बैठक में पानियों का विवाद मुख्य रूप में उभरा था। पानियों के विभाजन को लेकर उठा यह विवाद बेहद जटिल हो चुका है। 1966 में पंजाब पुनर्गठन एक्ट के बनने पर हरियाणा उस समय से ही पंजाब से अपने हिस्से का पानी मांगता रहा है। पंजाब का पक्ष यह रहा है कि उसके पास अपनी खप्त के लिए ही पानी की कमी है। इससे पहले राजस्थान को भी इन पानियों से बड़ा हिस्सा नहरों द्वारा पहुंचाया जा रहा है। राजस्थान इस पुनर्गठन एक्ट का हिस्सा भी नहीं था तथा न ही वह राइपेरियन प्रदेश है परन्तु उसे अधिक पानी श्रीमती गांधी के प्रधानमंत्री होते तथा पंजाब में कांग्रेस की सरकार के समय दिया गया था। पंजाब का पक्ष यह भी रहा है कि उसे यमुना के पानी से भी हिस्सा दिया जाना बनता है। एक समय से ही हरियाणा तथा दिल्ली द्वारा अधिक पानी की मांग के जवाब में तत्कालीन मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह ने स्पष्ट कहा था कि पंजाब के पास किसी भी पड़ोसी प्रदेश को देने के अतिरिक्त पानी नहीं है। प्रदेश स्वयं अपने लिए पानी की कमी महसूस करता आ रहा है क्योंकि नदियों का जल स्तर लगातार कम होता जा रहा है तथा भूमि के नीचे का पानी भी बहुत नीचे चला गया है। उस समय भी पंजाब यूनिवर्सिटी चंडीगढ़ पर अधिकार की बात चली थी, परन्तु तब यह बात किसी किनारे नहीं लगी थी। अब तक भी यह समस्या उसी तरह लटकती आ रही है। इस बार भी हरियाणा द्वारा यह बात पूरे ज़ोर-शोर से उठाई गई। पंजाब द्वारा राइपेरियन प्रदेश होने के कारण तथा पानी की भारी कमी महसूस करते यही कहा गया है कि उसके पास अतिरिक्त पानी नहीं है। चंडीगढ़ का मामला पंजाब के पुनर्गठन के समय से ही उलझा चला आ रहा है। पंजाब ने हमेशा चंडीगढ़ को पंजाब में शामिल करने की मांग उठाई है। इस संबंध में विगत अवधि में लम्बे आन्दोलन भी चलते रहे हैं तथा पंजाब की ओर से यह पक्ष भी रखा जाता रहा है कि चंडीगढ़ पंजाब के गांवों को उजाड़ कर पंजाब के लिए राजधानी के तौर पर बसाया गया था,परन्तु केन्द्र हमेशा इसे केन्द्रित शासित क्षेत्र बनाए रखने के हठ पर कायम रहा है। चाहे राजीव गांधी-लौंगोवाल समझौते में स्पष्ट रूप से लिखित रूप में चंडीगढ़ पंजाब को देने की बात की गई थी परन्तु बाद में यह समझौता सम्पन्न नहीं हो सका था। चंडीगढ़ को 1966 में अस्थायी तौर पर केन्द्र शासित क्षेत्र बनाते समय यह तय हुआ था कि पंजाब हरियाणा के कर्मचारी 60-40 के अनुपात से रखे जाएंगे, परन्तु धीरे-धीरे केन्द्र ने यह प्रथा भी तोड़ दी। उसके द्वारा सीधे भर्ती किये गये कर्मचारियों की संख्या कहीं अधिक है। अपनी ही राजधानी में पंजाब को एक तरह से हाशिये पर धकेल दिया गया है। पंजाब यूनिवर्सिटी संबंधी भी पंजाब के हक का लगातार क्षरण किया जा रहा है। इस बैठक में हरियाणा ने अपने प्रदेश के कालेजों को भी इस यूनिवर्सिटी के साथ जोड़ने की बात पुन: उठाई है। हरियाणा ने अपनी अलग विधानसभा बनाने के लिए चंडीगढ़ में ज़मीन खरीदे जाने की बात भी चलाई, जिसे अब लगभग मान ही लिया गया है। हम समझते हैं कि यदि पंजाब का अधिकतर पक्षों से क्षरण हुआ है तो इसके लिए यहां की राजनीतिक पार्टियों तथा इनके नेता अधिक ज़िम्मेदार हैं। हमारी पूर्व सरकारों तथा मौजूदा सरकार की कारगुज़ारी के दृष्टिगत ऐसा प्रभाव लगातार परिपक्व होता गया है कि राजनीतिक नेतृत्व प्रदेश के हितों की रक्षा करने के समर्थ नहीं रही है। चंडीगढ़ से अपने कार्यालयों को मोहाली ले जाने तथा इसके साथ लगते पंजाब के क्षेत्रों में नया चंडीगढ़ बनाना भी यह दर्शाता है कि पंजाब अपने तौर पर चंडीगढ़ पर अपने हक के दावे को कम करता आ रहा है। इसी बैठक में भाखड़ा प्रबन्धन से पंजाब तथा हरियाणा के प्रतिनिधियों को भी धीरे-धीरे हटाने का यत्न किया गया है। 
इसी बैठक में हिमाचल के मुख्यमंत्री ने वर्षा तथा प्राकृतिक आपदाओं से हुए प्रदेश के भारी नुकसान की भरपाई की गुहार लगाई। हिमाचल के मुख्यमंत्री अधिक सीमा तक इसमें सफल भी हुये क्योंकि उन्होंने जहां अपने प्रदेश की सभी विपक्षी पार्टियों को साथ लिया, वहीं संबंधित केन्द्रीय मंत्रियों के पास स्वयं सम्पर्क करते हुए इन प्राकृतिक आपदाओं की भरपाई हेतु सहायता लेने का यत्न किया। पंजाब इस मामले पर भी पीछे रह गया, क्योंकि वह केन्द्र के समक्ष प्रभावशाली ढंग से अपना मामला नहीं रख सका। इस बैठक में दो दर्जन से अधिक मामले उठाये गये जिनका बड़ा संबंध इन प्रदेशों का आपसी सहयोग के साथ भी जुड़ा हुआ था। नदियों के पानी के प्रदूषण को कम करने के लिए इन प्रदेशों का आपस में मेल-मिलाप ज़रूरी है। इसी तरह नशीले पदार्थों के घटनाक्रम को रोकने के लिए भी इनके आपसी संबंध बने रहने चाहिएं। कृषि के अवशेषों को जलाने से पैदा हुए प्रदूषण को कम करने के लिए भी इनके मध्य संयुक्त योजनाबंदी होनी ज़रूरी है, क्योंकि ये प्रदेश एक-दूसरे के साथ हर पक्ष से पूरी तरह जुड़े हुये हैं तथा इन्हें किसी भी तरह अलग करके नहीं देखा जा सकता। साझी सोच तथा साझी पहुंच ही इन प्रदेशों के विकास में बड़ी सीमा तक सहायक हो सकती है। इन प्रदेशों के मध्य मतभेदों वाले मामले भी आपसी मेल-मिलाप तथा सहयोग से ही सुलझाये जा सकते हैं।
—बरजिन्दर सिंह हमदर्द