लोकसभा में कितना कामयाब हो सकेगा सर्वोच्च् नेता वाला फार्मूला ?

भारत में पार्टियां अपना सांगठनिक केंद्रीकरण तीन तरह से करती हैं। इनमें एक मॉडल कम्युनिस्ट पार्टी का है, दूसरा परिवार आधारित पार्टियों का है, और तीसरा व्यक्ति आधारित पार्टियों का। लोकतांत्रिक केंद्रवाद के लेनिनवादी उसूल पर आधारित कम्युनिस्ट पार्टियों के मॉडल की ऩकल कोई नहीं कर सकता। वैसे भी ये पार्टियां धीरे-धीरे अपना आकार-प्रकार खोती चली जा रही हैं। राजनीतिक सफलता के अभाव ने इन्हें अनाकर्षक बना दिया है। परिवार आधारित पार्टियों का सबसे बड़ा मॉडल कांग्रेस है। इंदिरा गांधी ने देश की सबसे पुरानी पार्टी के विकास में अपने परिवार को अभूतपूर्व महत्व देकर यह सांगठनिक प्रारूप तैयार किया था। फिर इसी तज़र् पर लगभग सभी क्षेत्रीय दलों ने अपना कमांड और कंट्रोल का ढांचा तैयार किया। 2013 से पार्टी के सांगठनिक केंद्रीकरण का एक नया ढांचा सामने आया। यह था भारतीय जनता पार्टी का। इसके केंद्र में सर्वोच्च नेता के रूप में एक व्यक्ति और उसके सलाहकारों की बहुत छोटी सी मंडली मौजूद थी। शुरू में यह ढांचा स्पष्ट नहीं था, लेकिन लोकसभा चुनाव की जीत के बाद यह लगातार स्पष्ट होता चला गया। एक सर्वोच्च नेता पर आधारित पार्टी की संरचना आम आदमी पार्टी ने भी अपना रखी है और उसे काफी हद तक इसके ज़रिये अपना प्रसार करने में सफलता भी मिली है। इस मॉडल की सबसे बड़ी और सफल प्रतीक भाजपा ही है। मैं यह मानता हूँ कि भाजपा ने इस मॉडल के चलते बहुत कामयाबी हासिल की है, लेकिन अब इसी मॉडल के कारण उसे नीति और रणनीति के मोर्चे पर मुश्किलों का सामना भी करना पड़ रहा है।  
अगर कोई पार्टी अपने सबसे लोकप्रिय सर्वोच्च नेता के चेहरे पर विधानसभा का चुनाव लड़ने की रणनीति बनाए तो उसमें किसी को आपत्ति क्यों होनी चाहिए? लेकिन अगर किसी पार्टी के पास एक ऐसा मुख्यमंत्री है, जो अठारह साल से लगातार सत्तारूढ़ हो, सर्वेक्षणों में उसके खिलाफ कोई खास एंटीइनकम्बेंसी न दिख रही हो, रेटिंग के लिहाज़ से वह मुख्यमंत्री पद की पसंद के मामले में भी विपक्ष या पार्टी के अन्य नेताओं के मुकाबले सबसे आगे हो और जो पिछले साल भर से टीवी व अखबारों में अपनी छवि के प्रचार पर लगातार सैकड़ों करोड़ रुपया खर्च कर रहा हो— तो उस पार्टी के आलाकमान को ऐसे मुख्यमंत्री के प्रति क्या रवैया अपनाना चाहिए? मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव की मुहिम में प्रधानमंत्री की हालिया रैली इस प्रश्न का कुछ विचित्र-सा उत्तर देती है। इस रैली में एक गीत के ज़रिये नारा दिया गया— मोदी के मन में एम.पी., एम.पी. के मन में मोदी। भाजपा के सबसे वरिष्ठ मुख्यमंत्री बगल में खड़े रहे, लेकिन उनका नाम भी नहीं लिया गया। आलाकमान की इस मोदी-प्रधान रणनीति की तरफदारी करने वालों का कहना है कि प्रधानमंत्री की निजी लोकप्रियता को दांव पर लगाना एक सोचा-समझा कदम है। ठीक बात है, लेकिन इस प्रकरण को भाजपा के भीतर लगातार जारी वैचारिक और सांगठनिक अतिकेंद्रीकरण के एक रूपक की तरह भी देखा जा सकता है। इसमें कोई शक नहीं कि इस अतिकेंद्रीकरण ने मोदी के नेतृत्व में भाजपा को काफी लाभान्वित किया है। सब कुछ आलाकमान के कब्ज़े में रहता है। एक-एक गतिविधि केंद्र से नियंत्रित करके चलाई जाती है। अभी तक इस तऱीके को भाजपा और मोदी के नेतृत्व की ताकत माना जाता रहा है, लेकिन अब इसके नुकसान भी दिखने लगे हैं।
 अतिकेंद्रीकरण का यह मॉडल राज्यों की क्षेत्रीय राजनीति में कभी कामयाब होता है, तो कभी नाकाम। मसलन, पिछले पांच साल में यह उत्तरप्रदेश, गुजरात और त्रिपुरा में सफल रहा। लेकिन, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, बिहार और दिल्ली में यह पार्टी को बहुमत दिलाने में विफल रहा। महत्वपूर्ण राज्यों में सफलता के लिहाज़ से यह अच्छी दर नहीं कही जा सकती। मध्य प्रदेश में जिस तरह केंद्रीय मंत्रियों, सांसदों और एक राष्ट्रीय महासचिव को विधायकी के चुनाव में उतारा गया है, उससे राज्य की इकाई भौचक्की रह गई है। उन सीटों पर ब़गावत की तकरीबन वैसी ही स्थिति पैदा होती हुई दिख रही है जैसी हिमाचल प्रदेश में थी। राजस्थान और छत्तीसगढ़ की इकाइयां भी कयास और अनिश्चितता में फंस गई हैं। चुनाव वाले राज्यों के कई केंद्रीय नेता मन ही मन माला जप रहे हैं कि विधायक का चुनाव लड़ने का निर्देश कहीं उनके लिए भी न आ जाए। कहना न होगा कि राज्य की इकाइयों का महत्व भाजपा आलाकमान की केंद्रीकृत डिज़ाइन में केवल नाममात्र का रह गया है। इसका विपरीत असर लाज़िमी तौर पर स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं की पहल़कदमी पर पड़ना स्वाभाविक है। 
चुनावों के अलावा इस मॉडल के कुछ और भी नुकसान समझ में आने लगे हैं। इस सिलसिले में तमिलनाडु के मामले पर ़गौर किया जा सकता है। उदयनिधि स्टालिन के सनातन धर्म विरोधी वक्तव्य की प्रतिक्रिया में विपक्ष पर कड़ा आक्रमण करने का निर्देश स्वयं प्रधानमंत्री द्वारा जारी किया गया। सारे देश में भाजपा के प्रवक्ताओं और नेताओं द्वारा अति उत्साह से इसका पालन हुआ। नतीजा यह निकला कि द्रमुक के नेताओं को अपनी प्रमुख विरोधी अन्नाद्रमुक को दबाव में लेने का अवसर मिल गया और अन्नाद्रमुक को भाजपा का साथ छोड़ना पड़ा। उसके कार्यकर्ताओं ने एन.डी.ए. से बाहर निकलने का ढोल बजा कर जश्न तक मनाया। अब भाजपा के पास तमिलनाडु में कोई पार्टनर नहीं है। क्या प्रधानमंत्री ने यह निर्देश देते समय इस तरह के परिणाम के बारे में सोचा था? अब एक कमेटी से कहा गया है कि वह अन्नाद्रमुक द्वारा साथ छोड़ देने के कारणों को स्पष्ट करे। 
2013 में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनते ही नरेंद्र मोदी ने अपना इरादा साफ कर दिया था। वे लालकृष्ण आडवाणी द्वारा अपनायी जाने वाली ‘एन.डी.ए.-प्लसप्लस’ के सिद्धांत से सहमत नहीं थे। मोदी पार्टी के विकास को एन.डी.ए. के विकास की मातहती से निकालना चाहते थे। वे ‘भाजपा-प्लसप्लस’ के हामी थे। यानी, अगर भाजपा मज़बूत होगी, उसका विस्तार होगा, तो एन.डी.ए. अपने-आप मज़बूत हो जाएगा। इस नीति के कारण भाजपा का अभूतपूर्व विस्तार हुआ। लेकिन, ‘भाजपा-प्लसप्लस’ व्यावहारिक रूप से ‘मोदी-प्लसप्लस’ में बदलता चला गया। पार्टी और एक नेता पर अत्यधिक और केंद्रीकृत ़फोकस ने पिछले नौ वर्षों में धीरे-धीरे एन.डी.ए. का वजूद त़करीबन औपचारिक जैसा बना दिया। बड़ी और मज़बूत पार्टियां छोड़ कर चली गईं। आज भाजपा के साथ कुछ टूटी हुई पार्टियों के हिस्से हैं और ऐसे कई दल हैं जिनकी हैसियत एक सांसद से भी कम है। कर्नाटक में जनता दल-सेकुलर उसके साथ ज़रूर जुड़ा है, लेकिन वह भी भाजपा को शक्ति देने के बजाय उससे शक्ति खींचने की ़िफराक में ज्यादा है। देवगौड़ा का ताज़ा बयान बताता है कि उनका एक पैर नीतिश कुमार की नाव में रखा है। अगर विपक्ष की एकता के कारण भाजपा की सीटें 272 से कम रह गईं तो क्या एन.डी.ए. के छुटभैये पार्टनर ज़रूरत के मुताबिक सीटों की भरपायी कर पाएँगे?
भाजपा के पास न आत्मविश्वास का अभाव है और न ही नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में कोई कमी आई है। आज भी भाजपा केंद्रीय सत्ता की दौड़ में सबसे आगे है। वह सशक्त, संसाधन सम्पन्न और प्रबल राजनीतिक इच्छाशक्ति से भरी हुई है। हो सकता है कि अतिकेंद्रीकरण के विपरीत परिणामों और उनके कारण हो रहे धीमे क्षय को उसने पहचान लिया हो। यह भी हो सकता है कि भाजपा एक के बाद एक कई चुनाव जीत कर इस विश्लेषण को पूरी तरह से ़गलत साबित कर दे। अगर उसने ऐसा कर दिखाया तो अतिकेंद्रीकरण की यह राजनीतिक शैली दूसरे दलों के लिए भी एक अनुकरणीय मॉडल बन जाएगी।

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।