एक ताकत के रूप में उभरता भारत

पश्चिम ने सदा अपने आप को बड़ा और उच्च साबित किया है। रंग, बुद्धि, धन सम्पदा और वीरता में। उन्हें लगता है कि उन जैसा श्रेष्ठ और कहीं नहीं। उन्हें इस बात की आदत नहीं है कि कोई अन्य खास कर तीसरी दुनिया में से कोई देश महाशक्ति बन जाये। न ही वे इसे आम तौर पर सहन कर पाते हैं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यही सब घटित हुआ। पहले चीन का उदय उनके सामने हुआ तब चीन और पश्चिम के बीच युद्ध की स्थिति बनती चली गई जिसे हम शीत युद्ध मान सकते हैं। 1980 के दशक तक ऐसी स्थिति नहीं थी, क्योंकि 80 के दशक तक चीन भी ़गरीब देशों में शुमार था लेकिन आज वह तकनीक और आर्थिक दृष्टिकोण से सम्पन्न हो चुका है। अमरीका के नेतृत्व में पश्चिम ने सोवियत संघ रूस को किसी तरह शीत युद्ध में पराजित कर दिया था लेकिन चीन के उदय को वे समय रहते चैलेंज नहीं दे पाये। आंकड़े बताते हैं कि 1990 में चीन की जी.डी.पी. 0.36 ट्रिलियन डॉलर थी तब अमरीका की 5.96 ट्रिलियन डॉलर थी। दोनों में भारी अन्तर था। तब अमरीका ही अकेला हर तरह से शक्तिमान माना जाता था। 
पश्चिम भारत को एक मामूली देश समझता रहा है। 1998 में जब भारत ने पोखरण परमाणु परीक्षण किया, तब उनके चौंकने की बारी थी परन्तु तब बिल क्ंिलटन ने भारत पर आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिये थे। सी.एन.एन. और अन्य अमरीकी मीडिया ने भारत के खिलाफ उल्टे-सीधे बयान दिये थे। तब अमरीका के पास 6 हज़ार से ज्यादा न्यूक्लियर मिसाइलें थी और वह खुद युद्ध में परमाणु बम इस्तेमाल करने वाला इकलौता देश था। वह दूसरों को नसीहत दे रहा था और खुद परमाणु शक्ति सम्पन्न हो रहा था। भारत को शांति पूर्ण परमाणु परीक्षण करने भर से ही पश्चिम की कड़वी आलोचना का शिकार होना पड़ा था। 1990 के दशक में अमरीका इसी तरह पूरी दुनिया पर अपनी थानेदारी लागू कर रहा था। 1990-91 में अपने अभियान में खाड़ी युद्ध के दौरान एक गठजोड़ खड़ा करके इराक पर धावा बोल दिया था। इराक पर दस साल का नो फ्लाई ज़ोन लागू कर दिया। इससे इराकी बच्चे दवाइयों और भोजन से वंचित रहे। यह वही कालखंड है जब अमरीका की लीडरशिप के अधीन पश्चिम ने यूगोस्लाविया को विशक्त कर दिया और बाल्कन प्रायद्वीप में सात नये देश बने। पूर्व यूगोस्लाविया के इन देशों सर्बिया, क्रोएशिया, स्लोवेनिया, बोस्निया, कोसोवो आदि के बीच आज तक नस्ली टकराव जारी है, परन्तु 2000 के दशक में 9/11 के बाद पश्चिम मध्य पूर्व, अ़फगानिस्तान और पाकिस्तान में फैल रहे इस्लामिक आतंकवाद और तेजी से उभरते चीन का ़खतरा समझ में आ गया। तब से पश्चिम को अपना दशकों पुराना भू-राजनीतिक सिद्धांत बदलने  की ज़रूरत महसूस हुई। चीन के समक्ष शक्ति-संतुलन के लिए भारत को मजबूत करने की कोशिश की गई। 2005 में भारत-अमरीका सिविल न्यूक्लियर डील साइन की गई जबकि इससे पहले (सिर्फ सात साल पहले) पोखरण की घटना के बाद यही अमरीका था जिसने भारत पर आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिये थे और 2010 के दशक तक अमरीका के थिंक टैंक को समझ आ गया था कि 2030 तक भारत दुनिया की तीसरी बड़ी इकोनॉमी बनने वाला है। 
चीन और फिर भारत के रूप में दो बड़ी एशियाई ताकतों के आगमन ने पश्चिम के सामने प्रश्न-चिन्ह खड़े कर दिये। अमरीका को तब जाकर समझ आ गया कि भारत को पश्चिम के दायरे में लाना अब ज़रूरी हो गया है। क्योंकि यदि भारत और चीन एक साथ खड़े हो गये तो पश्चिम का वर्चस्व खतरे में आ जाएगा। आज यही कारण है कि अमरीका मेें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को इतना सम्मान दिया जाता है। अमरीका की नज़र में अब भारत का दर्जा काफी ऊंचा हो गया है। 
ब्रिक्स और एस.सी.ओ. में भारत और चीन दो बड़ी आर्थिक ताकते हैं। पश्चिम इस पर भी चिंतित रहा है। वैसे भी पश्चिम का पहले जैसा एकाधिकार नहीं रहा है। शायद यही वह कारण है कि अमरीका ने चीन के हाईटेक उत्पादों पर नियंत्रण लगाया है, जिनमें चिप का निर्यात भी शामिल है। पश्चिम चीन को कम्युनिस्ट तानाशाही देश बता सकता है परन्तु भारत को नहीं। यहां तो लोकतंत्र है। यहां सबसे बड़ा उपभोक्ता बाज़ार है। अब भारत को सोचना है कि वह किस पर कितना भरोसा करे।