सिर्फ वोट हासिल करने का ज़रिया है जातिगत जनगणना

बिहार में जातीय जनगणना के बाद जो आंकड़े सामने आये हैं, वे कोई पर्दाफाश सच्चाई नहीं है। बिना इन आंकड़ाें के आये भी जातियों के समीकरण को करीब-करीब यही माना जा रहा था। जनगणना रिपोर्ट के मुताबिक बिहार में अति पिछड़ा वर्ग 27.12 फीसदी, अत्यंत पिछड़ा वर्ग 36.01 फीसदी, अनुसूचित जाति 19.65 फीसदी, अनुसूचित जनजाति 1.68 फीसदी और अनारक्षित सवर्ण 15.52 फीसदी हैं। बिहार की राजनीति में साल 1990 के बाद से अनुमानों के आधार पर जातियों का जो समीकरण बिठाया जाता रहा है, वह बिल्कुल इन्हीं तथ्यों के आसपास ही रहा है। साथ ही पिछले साढ़े तीन दशकों से बिहार की राजनीति में इन्हीं जातीय समीकरणों के आधार पर सत्ता में पिछड़े वर्ग का ही कब्जा रहा है। भले वे इस कब्जे की अनदेखी करते हुए हवा में सवर्णों के विरोध की लाठी भांजें, लेकिन पिछले 33-34 सालों से बिहार में सवर्ण राजनीतिक ताकत नहीं रहे। लेकिन सवर्णों को खलनायक बनाने वाले पिछड़े वर्ग के लोग बिहार की राजनीति के समग्र विश्लेषण में दलितों के शोषण या उनके हिस्से पर अपनी कब्जेदारी की तरफ  अंगुली नहीं उठाएंगे।
सच्चाई तो यह है कि इस जातीय जनगणना रिपोर्ट ने उस हल्ला बोल और वितान की तरह बांधे जा रहे विरोध को फुस्स कर दिया है, जो इस तरह प्रदर्शित किया जा रहा था कि अगर जातीय जनगणना नहीं हुई तो सवर्णों के कब्जे की हाहाकारी कहानी दबी छुपी रहेगी, लेकिन अब जब बिहार की जातीय जनगणना रिपोर्ट सार्वजनिक हो ही गई है, तो पिछले 33 सालों से बिहार की राजनीति में जिस पिछड़े वर्ग का वर्चस्व रहा है, वह अपनी एकाउंटबिल्टी का भी चिट्ठा पेश करे कि पिछले साढ़े तीन दशकों में उसने इसके पिछड़ेपन को दूर करने के लिए क्या किया है? पिछले साढ़े तीन दशकों में बिहार की आर्थिक बेहतरी या बदतरी में दलित और पिछड़े कहां ठहरते हैं? मगर जिस तरह से दशकों से तार्किक मुद्दों और मसलों पर स्वर्ण मीडिया बात करने की बजाय गैर-ज़रूरी मुद्दों और मामलों को हवा देती रही है, ठीक उसी अंदाज़ में बिहार की जातीय जनगणना रिपोर्ट आने के बाद सोशल मीडिया में तथाकथित पिछड़े और उनके अतिरिक्त खैरख्वाह बनकर उभरे अल्पसंख्यक बुद्धिजीवी इस मंच पर हल्ला बोले हुए हैं। यह बहुत चालाकी से असली लड़ाई से ध्यान बंटाने की कोशिश भर है।
सच्चाई यह है कि देश में संसाधनों का वितरण बेहद असमान है, जिसे आज़ादी के तुरंत बाद बहुत आसानी से  दुरुस्त किया जा सकता था। लेकिन करता कौन? जब वही जातियां सत्ता में थीं, जिन्हें यह करना था? यह तो कोई ईमानदार वाम क्रांति ही कर सकती थी,जो नहीं हुई। सवर्ण और पिछड़े वर्ग के सियासी दर्शन में कोई बुनियादी फर्क नहीं है। पिछले 73 सालों की चुनावी राजनीति ने सही मायनों में अर्थशास्त्र की ट्रिकल डाउन थ्योरी को राजनीति में लागू किया है। इन सालों में सत्ता की जो मलाई टपक कर पिछड़ों और दूसरों के हिस्से में आयी है, इससे उनका भी चरित्र कहीं न कहीं उन्हीं सवर्णों सा हो गया है। इसलिए अब जातीय जनगणना या किसी दूसरे बहाने से जब ये शोषण का हल्ला मचाते हैं तो इसमें हर शोषक को चिन्हित नहीं किया जाता। अगर वास्तव में बिहार सरकार प्रदेश में सबसे गरीब और अति पिछड़े लोगों के आर्थिक सामाजिक उत्थान के लिए प्रतिबद्ध है,तो पिछले तीन दशक के उन आंकड़ों का खुलासा करे कि लालू प्रसाद यादव से लेकर नितीश कुमार तक के मुख्य मंत्रित्व काल में आखिर बिहार के दलितों, पिछड़ों, अति पिछड़ों का पहले की तुलना में कितना आर्थिक और सामाजिक उत्थान हुआ है? क्या इन साढ़े तीन दशकों में बिहार के इन लोगों और वर्गों की खरीद शक्ति इन सरकारों की वजह से बेहतर हुई है? इसे जानने में कोई बहुत ज़्यादा मेहनत करने की भी ज़रूरत नहीं है और न ही इसके लिए कोई अधिक प्रयास करने की। जातीय जनगणना के साथ-साथ आर्थिक जनगणना भी हुई है, जिसमें लोगों की आय के साथ-साथ उनके पास मौजूद संसाधनों और रोज़ी-रोटी के सारे आंकड़े हैं। साथ ही आज़ादी के बाद के पिछले 75 सालों के सारे आर्थिक और सामाजिक आंकड़े भी अलग-अलग रूप में मौजूद हैं। इसलिए सरकार अब सिर्फ  ये करे कि 1990 के बाद से बिहार में जो सियासी समीकरण बदला है, उस समीकरण के बदलने से वहां के गरीबों, पिछड़ों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति में क्या परिवर्तन हुए हैं, इसका भर खुलासा कर दे।
शायद इस हकीकत से पिछले तीन दशकों की बिहार की सरकारें ही नहीं, यहां का तथाकथित मुखर तबका भी खुलासा करने से बचना चाहेगा, क्योंकि हकीकत तो यह है कि लालू यादव और नितीश के ज़माने में बिहार के अति पिछड़ों और दलितों की वैसी ही आर्थिक स्थिति और दुर्गति जारी रही है, जैसे इससे पहले की तथाकथित सवर्ण सरकारों के दौर में रही है। बिहार से पलायन करने वाली जातियों के आंकड़ों में भले प्रतिशत के हिसाब से दलितों और पिछड़ों का आंकड़ा सवर्णों और सामान्य पिछड़ों से बहुत ज़्यादा न हों, लेकिन इसका कारण पलायन न कर सकने की मजबूरी है, न कि इच्छा। अगर पिछले तीन दशकों में बिहार में बिकी ज़मीनों और उन्हें खरीदने वालों के आंकड़ों को सार्वजनिक कर दिया जाये तो पता चलेगा कि वह चिन्हित सवर्ण दलितों और अति पिछड़ों की ज़मीनें खरीदनें में पिछड़ों से काफी पीछे हैं। दरअसल जिस तरह से बिहार के जातीय जनगणना को एक राजनीतिक माहौल बनाने के लिए पेश किया जा रहा है, उसमें सिवाय चालाकी के और कुछ नहीं है। यह कहना और यह सुनना वाकई हास्यास्तद है। यह महज एक राजनीतिक अभिनय है और यह अभिनय महज वोट पाने के लिए किया जा रहा है। ऐसा नहीं है कि यह अभिनय सवर्ण या दूसरे लोग नहीं करते रहे। सच तो यह है कि परम्परा ही उन्होंने डाली है। वक्त आ गया है कि ईमानदारी से देश को आगे बढ़ाने के लिए झूठ की बिसात पर सियासत की शतरंज न खेली जाये। 

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर