खोये हुए नशे की तलाश

ज़माने ने रुख कुछ इस तेज़ी से बदल लिया है कि पहचाने चेहरे अजनबी हो गये हैं, और अजनबी लोग पहचान में आने लगे हैं। अपनी धरती अपने लोग कह कर कभी अपने परिवेश से हमारा अजब-सा मोह जागता था, आज उन्हें पहचान कर वैराग्य नहीं, वितृष्णा होने लगती है।
सोने, चांदी के खज़ाने पर बैठे, हीरे, जवाहरात से आपका स्वागत करने वाले कभी बहुत बड़े लोग मान लिये जाते थे। आजकल लगता है कि अति-विशिष्ट वे हैं जो आपकी शाम को किसी अनोखे नशे से भरपूर कर दें। जी नहीं, हमें उमर खय्याम नहीं याद आ रहे। मधुबाला, मधुशाला की बात आपसे क्या करूं? उसके साथ तो कह देते थे, ‘राह पकड़ कर एक चला चल, पा जायेगा मधुशाला।’ उमर खटयाम की रुबाइयों से मिले हो क्या? मद के प्याले में से लहरा कर निकलती हुई एक चिर यौवना। अब कहां मिलती है?
गदहा पच्चीसी के दिनों में निर्मल वर्मा के पहाड़ रुइयों के फाहों की तरह हम सबको घेरे रहते थे और उनके साथ बीयर भरी शामें आपको तीन इंच धरती से ऊपर ऊपर रहने पर मजबूत कर देती थी। आजकल इस तरह मधुबाला और फिर मधुशाला तलाशने के ढंग से कौन पीता है। पीने के बाद निर्मल वर्मा की किताबों में से उभरते हुई रुई के फाहों को कौन तलाशता है? इतनी फुर्सत किसके पास है, कि आदमी दो घूंट भर कर कहे, आइए, थोड़ा-सा समानी हो जाए। आज तो सरहद पार से भेजे गये ड्रोनों की घुसपैठ यूं अवैध नशे की इनके द्वारा आमदोरफ्त, ़गैर कानूनी ज़िन्दगी का एक बड़ा हिस्सा बन गई।
पहले पारो का न मिलना और चन्द्रमुखी को स्वीकार न कर पाना हमारे देवदास को ‘पियेला’ बना गई थी। उदास, और मरते हुए आदमी की पथराती हुई आंखें पारो का गांव तलाशती रहीं। न उसे पारो मिली, न चन्द्रमुखी। मिले तो परदेस पहुंचा देने के वायदे जहां डॉलरों की फसल उसकी मुफलिसी को विदा करती है। उसकी फुटपाथी ज़िन्दगी को भव्य प्रासादों के स्वामित्व का उपहार देती है। सपने देख लो। लेकिन यह सब कहने की बातें हैं बन्धु! सात समुद्र पार जाने की लालसा में मां-बाप का जमाजत्था भी गंवा बैठे। डॉलर की धरती पर पहुंचने की जगह म्यांमार के बीहड़ जंगलों में भटक रहे हैं वे, या अरब की उड़ती रेत वाले रेगिस्तान में वे शेखों की कोर्निश बजा रहे हैं।उससे बच कर निकले, तो सिर पर बम गिरने लगे। झगड़े उनके हैं सदियों पुराने, धरती पर नये पुराने देशों की लकीरें खींचने वालों के और हमारे देश का भगौड़ा जो स्वप्नजीवी मखमली ज़िन्दगी की तलाश में गया था, वहां अब थोपी गई मौतों के चीत्कार को गले लगा रहा है।
‘जाना था जापान पहुंच गये चीन समझ गये न।’ कभी एक गाना गूंजता था तब मन्नू का तो कुछ हो गया था, अब कुछ हमारा भी हो जाएगा क्या? उम्मीद थी, लेकिन वह उम्मीद ही क्या जो पूरी हो जाये। अब सिरों पर बम गिर रहे हैं, और पूरी दुनिया लगता है तीसरे महायुद्ध के दहाने पर बैठी हुई है। अब परमाणु युद्ध की धमकियों के बीच विस्थारित नेत्रों वाले स्वप्नजीवी कहां जायें? अब आप्रेशन अजय का इंतजार करने के सिवा है ही क्या उनके पास। घर के बुद्धू सकुशल घर को आये। और कह दें कि जहां की माटी थी उसी का चन्दन बनने आये हैं।
लेकिन यहां माटी का चन्दन बनने कौन देता है? काम के लिए तरसते हाथों को काम कौन देता है? यहां वायदे गारंटियों में बदल जाते हैं, कि तुम्हें भूख से नहीं मरने देंगे। आत्महत्या करोगे भी तो उसके खाते में कारण भूख और गरीबी नहीं, मानसिक विक्षिप्तता होगी। यहां आधुनिकता और तेज़ी से बदलती हुई ज़िन्दगी इन्हें बिल्कुल अकेला कर जाती है। वे नहीं सह पाये, मौत को गले लगा लिया।
अरे आत्महत्याओं का आंकड़ा तो देख लो। बेकाम मजूर मरे हैं, कर्ज के बोझ से लदे किसान मरे हैं, और बहुत से वे नौजवान जो किसी पारो की नहीं, उचित काम की तलाश कर रहे थे। काम नहीं, घोषणायें मिलीं, वायदे मिले, और साथ ही यह वचन मिला कि एक दो साल नहीं, अब पूरे पांच साल आप में मुफ्त राशन बटता रहेगा। यहां अनुकम्पाओं के रिकार्ड बन रहे हैं, और उधर नशे के गर्त्त में पड़े यौवन के लिए न मधुबाला कारगर है, और न मधुशाला। उनके लिये निचाट नंगे फर्श हैं, या गन्दी नालियों का ठिकाना है। अवैध मदिरा का कारोबार है और उससे आगे चिट्टा, गोली, मारजुआना है, हैरोइन है।
महंगे लगते हैं ये नशे? तब इसी धरती ने उन्हें एक और हल दे दिया। बहुत दिनों से इस देश को सांपों और मदारियों का देश कहते थे न! मदारी तो अब राजनीति की शतरंज खेलने में निमग्न हो गये। हां स्वच्छता अभियान और स्मार्ट शहरों की उपाधियों के बावजूद यह शहर एक कूड़ाघर में तबदील होने लगा। कूड़ा घर भी ऐसा कि जिसे उठाने का दायित्व लेने के लिए कोई तैयार नहीं। और कूड़े के इन नाबदानों में क्या पलता है, बिच्छू और सांप? सांपों का तो सही इस्तेमाल होने लगा। खबर मिली है कि नशे का प्रभाव बढ़ाने के लिए सांपों का ज़हर धड़ल्ले से बेचा जा रहा है। बेचने वाले पकड़े जा रहे हैं। उनकी बगल में नशे की बंद बोतलें नहीं, ज़हरीले सांप बरामद हो रहे हैं। सांप तो मिल ही जायेंगे, अब बिच्छुओं के डंक पर भी शोध कर ली जाये। लगता है  उनमें भी नशे की सामर्थ्य कम नहीं होगी।