आतंकवाद को उत्साहित करने वाले पड़ोसियों से सुरक्षा कैसे हो ?

सूचना तंत्र की व्यापकता और पलक झपकते किसी घटना की जानकारी दुनिया के किसी भी छोर तक पहुंचने से जहां बहुत-सी सहूलियतें हुई हैं, वहीं इसके दुरुपयोग और दुष्प्रचार के किस्से भी अक्सर देखने में आ जाते हैं। सही और गलत का फैसला करना न केवल मुश्किल हो जाता है, बल्कि अपनी भूमिका क्या होनी चाहिये, इस पर भी भ्रम बना रहता है। यह सही है कि दुनिया के किसी कोने से युद्ध और संघर्ष की आवाज़ें लगातार सुनाई देते रहने के बावजूद हम तब तक अपने को सुरक्षित मानते रहते हैं जब तक आग की लपटों के लपेटे में स्वयं हम न आने लगें। ज़रूरी हो जाता है कि अपनी सुरक्षा व्यवस्था मज़बूत हो और नागरिकों को लगे कि हालांकि  खतरा है, लेकिन उसे हम तक न पहुंचने देने के पुख्ता प्रबंध हैं।
एकजुटता के लिए खतरे की घंटी
संसार इज़रायल की खुफिया एजेंसी का लोहा मानता रहा है। न जाने कितनी कहानियां इसकी वीरता, बहादुरी और शत्रु का समूल नाश करने से जुड़ी हैं, परंतु क्या हुआ कि उस का सारा तंत्र फेल हो गया, उसे पता ही नहीं चला और आतंकी के नाम से कुख्यात पड़ोसी ने ऐसा हमला किया कि सब इंतज़ाम धरे रह गये। अब चाहे इज़रायल कितनी भी बातें बना ले कि वह हमास को नेस्तनाबूद करके ही दम लेगा, लेकिन हकीकत यही है कि लड़ाई लम्बी खिंचने वाली है और वह अपने तथा कथित मजबूत तंत्र की जड़ें हिला दिये जाने से विचलित है।
इस उदाहरण से हमारा क्या संबंध है और हमें यों चिंता करनी चाहिए तो वह इसलिए कि हमारा एक पड़ोसी अपने सनकीपन से जब तब हमें गरियाता रहता है, हमारी ज़मीन को अपनी बताता फिरता है और मौका मिलते ही सरहद पर कोई न कोई घुसपैठ की वारदात और हमारे सशस्त्र बलों से मुठभेड़  करता रहता है। स्थिति यह है कि हमारी जरा सी चूक या गफलत का फायदा उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ता। यह  पड़ोसी अपनी विस्तारवादी नीतियों पर चलने और अवसर मिलते ही तिब्बत जैसे विशाल और दुर्गम इला के पर कब्ज़ा करने के लिए बदनाम है। वह ताकत में भी कम नहीं है और आधुनिक शस्त्रागार का मालिक है, अपनी जनता की बलि चढ़ाने में उसे कोई संकोच नहीं होता और चाहे भाई-भाई का कितना ही नाटक करले, उसकी असलियत किसी से छिपी नहीं रहती। हमारा दूसरा पड़ोसी आतंकवाद का मसीहा है, भारत से दुश्मनी उसे घुड़ती में मिला है, चाहे स्वयं कितना भी अपनी मुसीबतों में घिरा हो लेकिन हमें चैन से बैठने न देने के लिये कृत संकल्प है। हमारे इलाके को अपना बताने के लिए दुनिया भर में ढोंग और छल करता रहता है। तलाश में रहता है कि मौका मिलते ही निर्दोष कश्मीरियों और उसके साथ लगी दूसरी सीमाओं के निवासियों पर हमला करने और आगज़नी तथा हत्याकांड की घटनाओं को निरन्तर अंजाम सके।
यह कहना सही होगा कि हमारी अधिकतर सैन्य शक्ति एक पड़ोसी की नापाक और दूसरे की अमानवीय हरकतों को विफल करने में ही लगी रहती है। हरेक नागरिक इस आशंका से ग्रस्त रहता है कि न जाने कब कोई छिट-पुट सी घटना बड़े संघर्ष का रूप न ले ले।
यह भी वास्तविकता है और इसे स्वीकार करने की हिम्मत चाहे सरकार हो या जनता, सब में होनी चाहिए कि हमें अपने पड़ोसियों की दगाबाजी और उनके द्वारा किए गये आक्रमण का पता अधिकतर तब चलता है जब वह कोई हिंसक वारदात करने में कामयाब हो जाते हैं। मुंह छिपाने के लिए यह दलील दी जाती है कि जब अमरीका, रूस, इज़रायल जैसे देशों के जासूसी तंत्र की नाक के नीचे से दुश्मन अपना मन चाहा करने में कामयाब हो सकता है तो हमारी क्या बिसात है? वैसे तो यह बात तर्कहीन है क्योंकि अगर हम अपनी रक्षा करने में और घुसपैठ तथा आतंकी घटनाओं को न होने देने में अपनी असमर्थता दिखाते हैं या होने के बाद लीपा-पोती करते हैं तो यह किसी के गले नहीं उतर सकता और प्रशासन इस ज़िम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ सकता कि इन वारदातों के पीछे उसकी नीतियों की विफलता है।
सख्त और निर्भीक शासन की ज़रूरत
अब हम इस वास्तविकता पर आते है कि हमारे देश में ही ऐसे व्यक्ति हैं, संगठित गिरोह हैं जो हमारे दोनों पड़ोसियों की मदद करते हैं और सफेद पोश भी बने रहते हैं। ऐसा न होता तो हमास जैसे आतंकवादी गिरोह के समर्थन को अपने मज़हब पर हमले की तरह नहीं देखते, खुलेआम उसके नृशंस हमले और निर्दोष लोगों की हत्या करने को उचित नहीं ठहराते और जब इज़रायल ने उसका जवाब दिया तो हमास की वकालत करते करते यह न भूल जाते कि फिलिस्तीन के लिए हमास भी उतना ही बड़ा खतरा है जितना पाकिस्तान के लिये उसके अपने यहां पनप रहे आतंकवादी संगठनों का उसके अपने वजूद के लिए है। हमारे लिए भी यह उतना ही सच है क्योंकि हमारे संसाधन शत्रु के अतिरिक्त अपने ही घर के लोगों की शत्रुता से निपटने में लगे रहते हैं।
जब यह स्थिति है तो चाहे हम सैन्य और शस्त्र कितने भी आधुनिक कर लें, सीमा पर खतरा तो रहने ही वाला है। यह जो अचानक हमले हो जाया करते हैं, वह हमारे खुफिया तंत्र की विफलता तो है ही लेकिन उससे अधिक इस बात का संकेत है कि हमें कुछ और भी करना होगा जिससे हम गहरी नींद में सोते न रह जायें और शत्रु अपना काम कर जाए।
हमारी जो समुद्री सीमाएं हैं, उनके चप्पे-चप्पे पर निगरानी करना एक असम्भव कार्य तो नहीं, परन्तु मुश्किल अवश्य है। हमारे जल सेना प्रमुख का ही कबूनामा है कि अधिकतर विदेशी व्यापार समुद्र के रास्ते होने के कारण इस बात पर नज़र रखते रहना कि किस समुद्री मालवाहक जहाज़ या किश्ती से हथियार या हम पर हमला करने का अलसा जा रहा है, काफी मुश्किल है। मुम्बई हमला इसका उदाहरण है। इसका मतलब यह नहीं कि हम हाथ पर हाथ रख कर बैठे रहें।
पिछले दिनों हमारे सुरक्षा तंत्र से जुड़े एक महत्वपूर्ण अधिकारी ने यह बात कही कि राष्ट्रीय स्तर पर क्राइसिस मैनेजमेंट रिस्पांस सिस्टम होना चाहिए जो आतंकवादियों की हरकतों पर नज़र रखे। इसके लिए आधुनिक टेक्नोलॉजी का तो इस्तेमाल हो लेकिन इसके साथ उसके यानी नवीनतम विधियों, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और नेटवर्किंग के कुशल जानकारों का एक बल तैयार हो जो हमारे सशस्त्र बलों का दायां हाथ बन कर काम करे। यह समझना ज़रूरी है कि वर्तमान युग में हथियार ही नहीं, इंसान की भी भूमिका है। अस्त्र-शस्त्र चाहे कितने भी आधुनिक हों लेकिन जब तक उनके संचालन की आज्ञादे ने वाले सक्षम नहीं होंगे तब तक किसी भी संकट का मुकाबला करने की बात करना केवल डींग हांकने जैसा होगा।
जहां तक हमारे देश की बात है तो जितनी गंदी राजनीति खेली जाती है, लोगों को एक दूसरे का दुश्मन बनाने का कोई मौका छोड़ा जाता और विरोध चाहे कितना ही सही हो, सत्ता के नशे में उसका दमन करने से पीछे नहीं रहते, नेतृत्व के घटियापन की मिसाल पेश करते रहते हैं। इस सब के होते हुए कैसे आश्वस्त हो सकते हैं कि अचानक घटी किसी आतंकवादी कार्यवाही का सफलतापूर्वक सामना कर पायेंगे? जरा सोचिए!