लक्ष्मी जी को माना जाता है धन-सम्पदा की देवी 

लक्ष्मी जी को धन, सुख, समृद्धि एवं ऐश्वर्य की देवी माना गया है और प्राचीन काल से ही उनके पूजन की परम्परा चली आ रही है। भारतीय शास्त्रों में यह भी माना गया है कि लक्ष्मी स्वयं ‘रोग निरोधक शक्ति’ के रूप में प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में विद्यमान रहती हैं और शरीर के समस्त रोगों एवं विकारों को दूर कर उसे आंतरिक तथा बाह्य भोगों का आनंद लेने योग्य बनाती हैं। हिन्दू धर्म ग्रंथों एवं शास्त्रों में यह भी माना गया है कि लक्ष्मी चंचल स्वभाव की होती हैं, इसलिए वह कभी भी अधिक समय तक किसी एक निश्चित स्थान पर नहीं रहतीं।  लक्ष्मी जी को धन-सम्पदा एवं समृद्धि की देवी क्यों माना जाता है और उनकी पूजा कैसे शुरू हुई, इस संबंध में विभिन्न धार्मिक पुराणों में अलग-अलग कथाएं मिलती हैं। लक्ष्मी पूजन आरंभ होने के संबंध में प्रमुख कथा इस प्रकार है : एक बार महर्षि दुर्वासा भ्रमण करते-करते हिमालय के अति सुन्दर वन में पहुंचे। वन में एक देव सुन्दरी अपने हाथ में कमल पुष्पों की अति सुंदर माला लिए खड़ी थी। दुर्वासा ऋषि ने सुन्दरी से वह माला मांगी। रास्ते में उन्हें ऐरावत हाथी पर सवार देवराज इन्द्र आते दिखाई  दिए। दुर्वासा ने इन्द्र को प्रणाम करते हुए वह पुष्प माला उनकी ओर उछाल दी और देवराज इन्द्र ने माला ऐरावत हाथी के मस्तक पर रख दी। दुर्वासा ने इसे अपना अपमान समझा और उसी क्षण उन्होंने देवराज को श्राप दे डाला।
दुर्वासा ऋषि के श्राप से इन्द्र घबरा गए और दौड़े-दौड़े ब्रह्मा जी के पास पहुंचे। ब्रह्मा जी उन्हें अपने साथ लेकर भगवान विष्णु के पास गए।  भगवान विष्णु ने क्षीरसागर से लक्ष्मी जी को उत्पन्न होने की आज्ञा दी और देवताओं को लक्ष्मी की प्राप्ति हेतु समुद्र मंथन करने को कहा। भगवान विष्णु की आज्ञा को शिरोधार्य कर देवताओं ने वासुकी नाग को रस्सी और मंदराचल पर्वत को मथनी के रूप में इस्तेमाल कर समुद्र मंथन करना शुरू कर दिया। भगवान विष्णु ने स्वयं कछुए का रूप धारण किया और मंदराचल को अपनी पीठ पर रख लिया। समुद्र मंथन के बाद पहले कालकूट विष निकला, जिसके प्रभाव से पूरी सृष्टि का विनाश हो सकता था, अत: सृष्टि को बचाने के उद्देश्य से भगवान शिव ने कालकूट विष का सेवन स्वयं कर लिया।  इस प्रकार एक-एक करके समुद्र मंथन से समुद्र में से कुल चौदह वस्तुएं निकलीं जिन्हें चौदह रत्न कहा गया। इन्हीं अनमोल रत्नों में से एक थीं लक्ष्मी जी जो क्षीर सागर की धवल लहरों में से कमल के फूल पर प्रकट हुईं।  उनके उत्पन्न होते ही समूचा जगत उनके अप्रतिम सौन्दर्य से जगमगा उठा। तत्पश्चात् सभी ने लक्ष्मी जी को दिव्य वस्त्र एवं तरह-तरह के बेशकीमती आभूषण भेंट किए और उनकी आरती उतारी।  लक्ष्मी जी को धन-सम्पदा एवं ऐश्वर्य की देवी माना और तभी से धन, समृद्धि एवं ऐश्वर्य की देवी के रूप में लक्ष्मी जी के पूजन की परम्परा आरंभ हुई। समुद्र मंथन से प्रकट होने के बाद लक्ष्मी जी ने भगवान विष्णु का वरण किया। इसीलिए लक्ष्मी जी को विष्णु प्रिया भी कहा जाता है।

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