राज्यपालों और सरकार के बीच तनातनी ठीक नहीं

देश के कई राज्यों में हाल के वर्षों में राज्य सरकारों व राज्यपालों के बीच गहरे टकराव के मामले प्रकाश में आए हैं। विडम्बना यह है कि ये मामले उन राज्यों में सामने आए हैं, जिन-जिन राज्यों में भाजपा सरकार नहीं है। वहां बीते सालों में सरकारों और राज्यपालों के बीच गंभीर तनातनी देखने को मिली है। इन राज्यों की सरकारें शिकायत करती रही हैं कि प्रदेश के बिलों को मंजूरी देने में देरी की जाती है। 
फिर मामला पंजाब का हो या केरल, तेलंगाना, महाराष्ट्र और तमिलनाडु का- इनके विवाद की जड़ में राज्य विधानसभा से पारित विधेयकों को राज्यपाल की ओर से पारित न किया जाना या इन्हें रोक कर रखना रहा है। सुप्रीम कोर्ट पहले भी राज्यपालों के रुख पर अपनी प्रतिक्रिया दे चुकी है। वर्तमान में यह विवाद इतना बढ़ा कि मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा जिस पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ा कि राज्यपालों को आत्मावलोकन करना चाहिए।
सर्वोच्च न्यायालय पंजाब और तमिलनाडू के राज्यपालों से इस बात पर नाराज़ है कि वे विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी नहीं दे रहे। ऐसे में वैचारिक मतभेद तो स्वाभाविक हैं किंतु विधायी कार्यों में राजभवन और सरकार में टकराव लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है। संघीय ढांचा होने से केंद्र और राज्यों में अलग-अलग दल की सरकार होना स्वाभाविक है। हालांकि यह कोई पहला मामला नहीं है जब इस तरह के मतभेद सामने आए हैं।भारत में राज्यपाल की नियुक्ति केन्द्र सरकार की सिफारिश पर राष्ट्रपति करते हैं। किसी भी प्रदेश में राज्यपाल राष्ट्रपति और केन्द्र सरकार का प्रतिनिधि होता है। राज्य में उसकी भूमिका एकदम स्पष्ट है। राज्य सरकार की सलाह से अपने दायित्वों का निर्वहन करना राज्यपाल का मुख्य काम है। राज्य में कुछ भी असामान्य होता है और राज्यपाल किसी बिल से सहमत नहीं हैं तो उसे नामंजूर कर सकते हैं लेकिन सरकार उसे दोबारा भेज देगी तो नियमानुसार उसे मंजूरी देनी होगी। राज्यपाल के पास यह भी अधिकार है कि वह असहमत होने पर बिल को राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं। उन्हें अधिकार यह भी है कि राज्यपाल बिल पर कोई फैसला ही न लें। इस मुद्दे पर कानून भी मौन है और इसीलिए राज्य सरकारें राज्यपाल के पास बिल लटकने की स्थिति में सुप्रीम कोर्ट पहुंचती हैं।
इतिहास के पन्ने पलटें तो केरल की नंबूदरीपाद सरकार को 1959 में राज्यपाल की सिफारिश पर महज इसलिए भंग कर दिया गया था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू को देश की वह एकमात्र गैर कांग्रेस सरकार नापसंद थी। उसके बाद से राज्यपाल के जरिए प्रदेश सरकारों को बर्खास्त किया जाना मामूली बात हो गई। यद्यपि अब यह चलन बंद हो चुका है किंतु राज्यपाल और मुख्यमंत्री में खींचातानी बढ़ती जा रही है। बाकी बातें अपनी जगह हैं किंतु विधानसभा द्वारा स्वीकृत विधेयकों को रोके रखना निर्वाचित सरकार के अधिकारों पर अतिक्रमण है।
वैसे राज्यपालों का यह दायित्व ज़रूर है कि वे विधानमंडल द्वारा पारित विधेयक की जांच करें। यदि वे संतुष्ट नहीं हैं, तब उसे पुनर्विचार हेतु लौटा सकते हैं, लेकिन दोबारा पारित होने के बाद उस पर स्वीकृति देने की बाध्यता भी है। केंद्र और राज्य में एक ही दल की सरकार होने पर तो दिक्कत नहीं आती किंतु विरोधी विचारधारा की सरकारें होने पर इस तरह की रस्साकशी आम बात हो गई है।
राज्यपाल विधेयक को स्वीकृति हेतु कब तक रोके रख सकते हैं, इसकी कोई समय सीमा नहीं है। हालांकि कुछ राज्यों में विरोधी मानसिकता वाले राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच काफी सौहार्दपूर्ण संबंध भी रहे हैं। दरअसल राजभवन में बैठे ज्यादातर लोग सक्रिय राजनीति से रिटायर हुए होते हैं या सेवानिवृत्त नौकरशाह। कुछ पूर्व सैन्य अधिकारियों को भी महामहिम बनाया जाता रहा है। इनमें से ज्यादातर निजी स्वार्थवश केन्द्र सरकार को खुश करने में जुटे रहते हैं हालांकि अनेक मुख्यमंत्री भी जानबूझकर टकराव के हालात पैदा करते हैं, जिसका उद्देश्य अपनी विफलताओं से जनता का ध्यान हटाना होता है। पंजाब, दिल्ली, तामिलनाडु, केरल, पश्चिम बंगाल इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। 
पंजाब के मामले में भी वही बात है। राज्य में आम आदमी पार्टी की सरकार है। सरकार ने राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित पर विधेयकों को मंजूरी देने में देरी का आरोप लगाया है। इसी सिलसिले में उसने शीर्ष अदालत का रुख किया था। अपनी अर्जी में राज्य सरकार ने आरोप लगाया कि राज्यपाल की असंवैधानिक निष्क्रियता ने पूरे प्रशासन को ठप्प कर दिया है। राज्यपाल अनिश्चित काल तक विधेयकों को रोक नहीं सकते। उनके पास संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत सीमित शक्तियां होती हैं। ये किसी विधेयक पर सहमति देने या रोकने या राष्ट्रपति के विचार के लिए विधेयक को रखने की राजभवन की शक्ति से संबंधित हैं। पंजाब के राज्यपाल का आम आदमी पार्टी सरकार के साथ लम्बे समय से विवाद चल रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल राज्य का संवैधानिक मुखिया होता है, लेकिन पंजाब की स्थिति को देखकर लगता है कि सरकार और उनके बीच बड़ा मतभेद है, जो लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल के वकील से पूछा कि आप किसी बिल को क्या अनिश्चित काल के लिए रोक कर रख सकते हैं? सिंघवी ने पंजाब सरकार की तरफ से कहा कि बिल रोकने के बहाने राज्यपाल बदला ले रहे हैं। 
मुख्य न्यायाधीश ने नाराज़गी जाहिर करते हुए कहा कि आखिर संविधान में कहां लिखा है कि राज्यपाल स्पीकर द्वारा बुलाए गए विधानसभा सत्र को अवैध करार दे सकते हैं? चीफ जस्टिस ने कहा कि मेरे सामने राज्यपाल के लिखे दो पत्र हैं जिनमें उन्होंने सरकार को कहा कि चूंकि विधानसभा का सत्र ही वैध नहीं तो वो बिल पर अपनी मंजूरी कैसे दे सकते हैं। राज्यपाल ने यह भी कहा कि वो इस विवाद पर कानूनी सलाह ले रहे हैं। हमें कानून के मुताबिक ही चलना होगा। सुप्रीम कोर्ट के सख्त लहजे को सिर्फ पंजाब के संदर्भ तक सीमित करके देखना गलती होगी। शीर्ष न्यायालय ने पंजाब के राज्यपाल के ज़रिये ऐसे दूसरे राज्यों के राज्यपालों को भी संदेश दिया है जहां भाजपा की सरकारें नहीं हैं। फर्क सिर्फ यह है कि पहले सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव की तरह अपनी बात कही थी लेकिन पंजाब के मामले में उसने बेहद सख्ती से यह बात बोली है। संविधान के अनुच्छेद 200 का जिक्र करते हुए सुप्रीम कोर्ट पहले कह चुका है कि विधानसभाओं की ओर से पारित विधेयकों को उन्हें सहमति के लिए भेजने पर राज्यपालों को देरी नहीं करनी चाहिए। जितना जल्दी हो सके, उन्हें वापस किया जाना चाहिए। इन्हें अपने पास लंबित रखने की कोई तुक नहीं बनती है।