गुमनाम राजनीतिक चंदा लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए ़खतरा

राज्य और आम चुनाव लड़ने में मदद के लिए राजनीतिक दलों को गुप्त व्यापारिक दान में वृद्धि से भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था को नुकसान पहुंचने का खतरा है। ऐसी व्यवस्था दान देने वालों की गुमनामी की रक्षा करता है। यदि फ्रांस, जो दुनिया के सबसे जीवंत लोकतंत्रों में से एक है, व्यापारिक निगमों द्वारा राजनीतिक चंदे पर प्रतिबंध लगा सकता है तो भारत में राजनीतिक दलों को अज्ञात व्यापारिक दिग्गजों से चुनावी धन जुटाने की आवश्यकता क्यों है?
भारत में राजनीतिक दलों की व्यापारिक फंडिंग तेज़ी से बढ़ रही है। सरकार द्वारा 2018 में लोकसभा में वित्त विधेयक के हिस्से के रूप में पेश की गई चुनावी बांड योजना व्यावसायिक निगमों को राजनीतिक दलों को गुमनाम रूप से बड़ी रकम दान करने की अनुमति दे रही है, जो ज्यादातर राज्यों और केंद्र दोनों में सत्तारूढ़ राजनीतिक पार्टियों को ही जा रहा है।
चुनावी बांड भारतीय नागरिकों या भारत में निगमित निकाय को बांड खरीदने की अनुमति देते हैं, जिससे राजनीतिक दलों को गुमनाम दान मिल पाता है। यह सुझाव देना गलत नहीं होगा कि इस तरह के अज्ञात राजनीतिक दान के साथ प्रतिदान कारक दृढ़ता से जुड़ा हुआ है। दुर्भाग्य से भारत में राजनीतिक दल अपने चुनावी धन के स्रोतों के बारे में लोगों को अंधेरे में रखते हैं। राजनीतिक चंदे को पारदर्शी बनाने के लिए मौजूदा कानून में संशोधन की ज़रूरत है।
दुनिया के लगभग सभी प्रमुख लोकतंत्रों के राजनीतिक जीवन में वित्तीय पारदर्शिता पर कानून हैं। बहु-राजनीतिक दल प्रणाली पर चलने वाला दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत अलग है। देश के राजनीतिक दल अपने ज़ोरदार चुनाव अभियानों के समर्थन में धन के स्रोतों का विवरण प्रकट करने से कतराते हैं। कुछ लोग इस बात से असहमत होंगे कि राष्ट्रीय या राज्य चुनावों से पहले राजनीतिक दलों की गुमनाम फंडिंग लोकतांत्रिक लोकाचार के खिलाफ  है। भारत में चुनावों के दौरान प्रमुख राजनीतिक दलों और उनके उम्मीदवारों द्वारा वास्तविक खर्च चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित सीमा से कहीं अधिक माना जाता है। 
चुनावी बांड प्रणाली ने राजनीतिक दलों की व्यावसायिक फंडिंग में भारी वृद्धि की है, विशेषकर सत्तारूढ़ राजनीतिक पार्टियों की। उदाहरण के लिए केंद्र और कई राज्यों में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को 2019-20 में बेचे गये चुनावी बांड का लगभग तीन-चौथाई या 76 प्रतिशत प्राप्त हुआ। चुनाव आयोग के आंकड़ों से पता चला है कि कांग्रेस पार्टी को 2019-20 में बेचे गये कुल 3,355 करोड़ रुपये के चुनावी बांड का लगभग नौ प्रतिशत ही मिला। दिलचस्प बात यह है कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) की 96 प्रतिशत से अधिक आय 2021-22 में चुनावी बांड से आयी, जिसका पार्टी की ऑडिटेड वार्षिक रिपोर्ट से पता चला। 
अब जब चुनावी बांड के वर्तमान स्वरूप की वैधता को भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गयी है, तो शीर्ष अदालत ने प्रथम दृष्टया योजना की पारदर्शिता में कुछ कमियों को महसूस किया है। मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय पीठ ने महसूस किया कि मौजूदा प्रणाली ने ‘सूचना ब्लैक होल’ पैदा कर दिया है। पीठ ने कहा कि चुनावी बांड योजना के साथ समस्या दाता के नाम और जिस राजनीतिक दल को योगदान दिया गया था, उसकी चयनात्मक गोपनीयता थी। 
पीठ ने कहा कि दूसरी समस्या यह है कि एक दानकर्ता आवश्यक रूप से चुनावी बांड का खरीदार नहीं हो सकता है क्योंकि एक बड़ी राशि दान करने वाला कॉर्पोरेट बड़ी संख्या में लोगों को लागत मूल्य से अधिक प्रीमियम का भुगतान करके चुनावी बांड खरीदने के लिए कह सकता है। फिर इसे देने के लिए एकत्र कर सकता है। यह राजनीतिक दलों के लिए है। यह काले धन के खेल से इन्कार नहीं करता ह। 
रिपोर्ट में कहा गया है कि 2012 और 2021 के बीच भारत में बनायी गयी 40 प्रतिशत से अधिक संपत्ति सिर्फ  एक प्रतिशत आबादी के पास गयी है जबकि केवल तीन प्रतिशत ही नीचे के 50 प्रतिशत तक पहुंच पायी। लोकतंत्र और राजनीतिक व्यवस्था अमीरों का पक्ष लेना जारी रखती है और सत्तारूढ़ पार्टी के क्षत्रपों और उनके अनुयायियों को धन इकट्ठा करने में मदद करती है। राजनीतिक नेताओं और उनके गुर्गों की संपत्तियों पर चल रही सीबीआई और ईडी की चुनिंदा छापेमारी से पता चलता है कि दोषपूर्ण लोकतांत्रिक व्यवस्था तेजी से वित्तीय भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रही है। इससे यह भी पता चलता है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के समुचित कामकाज के लिए चुनावी फंडिंग में पारदर्शिता क्यों महत्वपूर्ण है। दरअसल चुनावी बांड भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरा पैदा करते हैं।
यदि विकसित लोकतांत्रिक देश राजनीतिक जीवन में वित्तीय पारदर्शिता को लेकर इतने चिंतित हैं, तो क्या भारत को इस मामले से अलग रहना चाहिए? भारत में गुमनाम चुनावी चंदा सांठ-गांठ वाले पूंजीवाद को बढ़ावा दे रहा है।  (संवाद)