हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति में भेदभाव क्यों ?

इन्स़ाफ के पर्दे में ये क्या ज़ुल्म है यारो,
देते हो सज़ा और, ़खता और ही कुछ है।
शायर अख़्तर का यह शे’अर उस समय याद आया जब देश के सर्वोच्च न्यायालय ने पंजाब तथा हरियाणा हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए सुप्रीम कोर्ट के कालेजियम द्वारा प्रमुख तथा योग्य वकीलों को जज बनाने की सिफारिश के बावजूद इसमें से सिखों का चयन कर जज न बनाने पर कड़ी टिप्पणी की। सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार से कड़ा सवाल पूछा कि केन्द्र सरकार द्वारा जिन उम्मीदवारों को स्वीकृति नहीं दी गई, वे दोनों सिख हैं। ऐसा क्यों हो रहा है? वास्तव में सुप्रीम कोर्ट के कालेजियम ने 17 अक्तूबर, 2023 को पांच वकीलों के नामों की सिफारिश जज बनाने के लिए की थी, जिनमें 2 वकील हरमीत सिंह ग्रेवाल और दीपिन्दर सिंह नलवा दोनों सिख थे। केन्द्र ने 2 नवम्बर को इनमें से दोनों सिख उम्मीदवारों को छोड़ कर शेष तीनों की नियुक्ति की अधिसूचना जारी कर दी। अदालत ने वकीलों के स्थानांतरण के मामले पर भी अटार्नी जनरल को कहा कि तबादलों संबंधी भी चुनिंदा नीतियां तैयार करने से अच्छा सन्देश नहीं जाता। स्थानांतरण एवं नियुक्तियों को ‘पिक एंड चूज़’ नहीं किया जा सकता। हम कोई कानून विशेषज्ञ नहीं हैं, परन्तु जिस तरह योग्य जज जस्टिम संजय किशन कौल तथा जस्टिस सुधांशू धूलिया ने कहा है (कालेजियम द्वारा चुने) आधे से कम नामों को स्वीकृति मिलने से वरिष्ठता प्रभावित होती है। इससे यह प्रभाव तो बनता ही है कि कहीं न कहीं चुने गये 5 जजों में एक ही समुदाय के दोनों जजों की नियुक्ति को लटकाना उनकी वरिष्ठता कम करने तथा इसे भविष्य में इस्तेमाल करने के लिए तो ऐसा नहीं किया जा रहा? हालांकि मामले की अगली सुनवाई 5 दिसम्बर को है परन्तु आश्चर्यजनक बात यह है कि देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तथा गृह मंत्री अमित शाह जो आम तौर पर सिखों की प्रशंसा भी करते हैं, सिखों के लिए किये कामों के प्रचार करने में भी कोई कमी नहीं छोड़ते, परन्तु दूसरी तरफ क्रियात्मक रूप से सिखों को समर्थ बनाने वाले पद जिन पर उनकी योग्यता तथा वरिष्ठता के कारण उनका हक बनता है, देने में आनाकानी करते हैं, तो स्वाभाविक तौर पर इस बात से दुख होता है। वैसे यदि उनमें थोड़ी-सी भी हमदर्दी होती तो वह अगली तिथि का इन्तज़ार न करते, अपितु अदालती टिप्पणी के अगले ही दिन ये नियुक्तियां करवाने में अपने प्रभाव का उपयोग करते तो नि:संदेह देश के एक प्रमुख अल्पसंख्यक  वर्ग में उनके संबंध में अच्छा सन्देश जाता।
सच्चाई यह है कि चाहे सिख कांग्रेस से आप्रेशन ब्लू स्टार तथा दिल्ली के सिख नरसंहार के कारण उससे नाराज़ हैं। यह आज़ाद भारत में सिखों के लिए सबसे बड़ा ज़ख्म है, परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि इन्दिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के दौरान ज़ुल्म तथा उनकी मृत्यु के बाद हुये सिख नरसंहार को एक तरफ रख दें तो आज़ाद भारत में कांग्रेस शासन के समय सिखों के साथ भेदभाव अब के मुकाबले कम ही दिखाई देता था। हालांकि आप्रेशन ब्लू स्टार संबंधी भाजपा के उस समय के बड़े नेता लाल कृष्ण अडवानी स्वयं कहते हैं कि उन्होंने इन्दिरा गांधी पर इसके लिए दबाव बनाया था।
आज़ादी के बाद राजनीतिक तौर पर देश में सिखों का प्रभाव कितना था, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि ज्यादातर महाराष्ट्र, राजस्थान, जम्मू-कश्मीर, हरियाणा, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश के अलावा झारखंड, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ तथा दिल्ली जैसे प्रदेशों में लगभग हर जगह एक सिख मंत्री होता था। दिल्ली के तो दूसरे मुख्यमंत्री भी एक सिख गुरमुख निहाल सिंह रहे हैं, जो 12 फरवरी, 1955 से 1 नवम्बर, 1956 तक मुख्यमंत्री रहे थे। 
अकेले भाजपा ही नहीं, ‘आप’ भी पंजाब से बाहर सिखों  तथा पंजाबियों से कोई अच्छा व्यवहार नहीं कर रही। दिल्ली में कोई सिख मंत्री नहीं है। पहले दिल्ली के प्रत्येक मंत्री के साथ एक पंजाबी टाईपिस्ट या स्टैनोग्राफर तैनात होता था, परन्तु अब दिल्ली से पंजाबी गायब ही की जा रही है। कांग्रेस के समय केन्द्रीय मंत्रिमंडल में सिख मंत्री किसी बड़े मंत्रालय, रक्षा, विदेश तथा गृह जैसे विभागों के मंत्री होते थे। देश के राज्यपालों में भी सिखों का विशेष स्थान होता था और राजदूतों में भी बड़ी संख्या में सिख तथा पंजाबी दिखाई देते थे। वैसे देश के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, सैन्य प्रमुख जैसे उच्च पद भी सिखों के पास रहे हैं। 
परन्तु अब जो हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति के समय हुआ और जिस पर सर्वोच्च न्यायालया को टिप्पणी करनी पड़ी है, उससे ऐसा प्रतीत होता है कि सिखों का देश के बड़े पदों से लगातार कम होते जाना किस प्रकार की सोच का परिणाम हो सकता है। 
इन्तिहा देखें, जम्मू-कश्मीर में उन कश्मीरी पंडितों के लिए नौकरियां तथा विधानसभा सीटें आरक्षित की गई हैं, जो आतंकवादियों का मुकाबला करने के स्थान पर कश्मीर छोड़ गए और कश्मीर से बाहर सरकारी सुविधाएं प्राप्त करते रहे (यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि हमें कश्मीरी पंडितों को दी गई सुविधाओं तथा आरक्षण पर कोई अपत्ति नहीं है) परन्तु उन सिखों को ये सब कुछ क्यों नहीं दिया जा रहा, जो सीना तान कर कश्मीरी आतंकियों का मुकाबला करते रहे, कुर्बान होते रहे लेकिन कश्मीर नहीं छोड़ा। क्या यह उनकी कुर्बानियों का इनाम है या सज़ा?   
डेरा प्रमुख की फरलो
क्यों बनाते हो सियासत 
को तुम अपना हमस़फर,
सब चले जाएंगे 
खाली कुर्सियां रह जाएंगी। 
(आदर्श दूबे)
यह ठीक है कि फरलो किसी कैदी का हक है और यह सरकार का अधिकार भी है, परन्तु दो हत्याओं तथा दुष्कर्म के केस में सज़ा काट रहे डेरा सिरसा प्रमुख को जिस प्रकार ज्यादातर फरलो तथा पैरोल किसी न किसी चुनाव के निकट ही दी जा रही है, वह स्वयं में हरियाणा सरकार तथा भाजपा की नीयत पर कई प्रश्न-चिन्ह खड़े करती है। हालांकि हमारे सामने कई प्रमुख व्यक्ति हैं, जिन्हें अभी सज़ा भी नहीं हुई और वे न्यायिक हिरासत में हैं, परन्तु उन्हें अपने बीमार करीबियों को मिलने की इजाज़त भी मुश्किल से ही मिलती है। ताज़ा उदाहरण दिल्ली के पूर्व उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया का है जिन्हें अपनी बीमार पत्नी को मिलने के लिए सिर्फ चार घंटे का ही समय मिला था। 
डेरा प्रमुख गुरमीत राम रहीम को जुलाई 2020 में हरियाणा के पंचायत चुनाव के निकट 30 दिन की रिहाई मिली, जनवरी 2021 में 40 दिन के लिए, फरवरी 2022 में 30 दिन के लिए  हरियाणा के कौंसिल चुनाव के निकट, अक्तूबर 2022 में 40 दिन के लिए आदमपुर उप-चुनाव के समय, फिर जनवरी 2023 में 40 दिन के लिए रिहाई मिली। इस समय शायद कोई चुनाव नहीं था। जबकि जुलाई 2023 में हरियाणा पंचायत चुनाव के निकट तथा अब नवम्बर 2023 में राजस्थान विधानसभा चुनाव निकट होने पर भी रिहाई मिली है। उल्लेखनीय है कि डेरा प्रमुख का पैतृक गांव भी राजस्थान में ही है। ये सभी तथ्य अपनी गवाही स्वयं भरते हैं और किसी टिप्पणी के मोहताज नहीं कि हरियाणा की भाजपा सरकार तथा मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर की नीयत तथा सोच क्या है?
मसलहत आमेज़ होते हैं सियासत के कदम,
तू ना समझेगा सियासत, तू अभी नादान है।
(दुष्यंत कुमार)
सिख नेतृत्व के ध्यानार्थ
कई बार कुछ टिप्पणियां किसी दूसरे से अपना ही नुकसान अधिक करती हैं। याद रखें, नि:संदेह भारत सरकार ने गुरुद्वारा श्री दरबार साहिब श्री करतारपुर साहिब दर्शनों के लिए खोल कर सिख कौम को धन्यवादी बनाया है, परन्तु इसके लिए बने हालात भी इस इजाज़त के लिए एक बड़ा कारण थे। अब भी बहुत-से लोग इसे बंद करवाना चाहते हैं और इसके विपरीत बयान भी देते रहते हैं। इसलिए इस के खिलाफ मामूली बात को भी देश के बड़े-बड़े मीडिया हाऊस तथा कई भाजपा नेता बहुत उछालते रहते हैं, परन्तु सिख नेताओं को पूरी सच्चाई जाने बिना कोई टिप्पणी करने से गुरेज ही करना चाहिए। अब जब पंजाब के स्पीकर कुलतार सिंह संधवां तथा गुरुद्वारा साहिब के ग्रंथी ने स्थिति स्पष्ट कर दी है कि विवादित चर्चित पार्टी गुरुद्वारा साहिब से डेढ़-दो किलोमीटर दूर एक अलग काम्पलैक्स में हुई है तो यह विवाद समाप्त होना चाहिए, परन्तु हैरानी की बात है कि इसके बाद ही भाजपा के बड़े-बड़े नेता इस बारे लेख लिख कर इसे मर्यादा का उल्लंघन करार दे रहे हैं जैसे मां से वे अधिक हेजले हों। वैसे भी विगत में भाजपा नेताओं द्वारा सिख मामलों बारे टिप्पणियों की लहर काफी तेज़ है। इस बारे कौम को सचेत होने की आवश्यकता है। भाजपा के एक पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष तथा राज्यसभा सांसद जो स्वयं पत्रकार हैं, कहते हैं कि ‘दलित-मुस्लिम भरातरी वांग’ यह घटना ‘सिख-मुस्लिम भाईचारे’ की हवा निकालने के लिए काफी है, तो साफ समझ आ जाती है कि वह किस राजनीतिक एंगल (कोण) से बोल रहे हैं। हमारी सिख नेताओं विशेषकर शिरोमणि कमेटी के पदाधिकारियों तथा तख्त साहिबान के जत्थेदारों को विनती है कि वे इस घटना की वास्तविकता स्वयं लोगों के सामने रखें और स्वयं राजनीतिक सिख नेताओं को निर्देश दें कि सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो-आडियो पर तब तक टिप्पणी न करें जब तक शिरोमणि कमेटी उसकी वास्तविकता की जांच न कर ले। 
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