चर्चा में रहने के लिए दिए जाते हैं विवादित बयान

नेता लोग अक्सर चर्चा में रहने के लिए आपत्तिजनक, ऊल-जलूल और समाज में कटुता फैलाने वाले बयान देते रहते हैं। विशेषकर चुनावों के दौरान गंदे बोलों से चुनावी बिसात बिछ जाती है। कुछ सियासी नेताओं ने तो लगता है कि उन्होंने विवादित बयानों का ठेका ले रखा है। कई नेताओं पर विवादित बयान देने पर मुकद्दमें भी दज़र् हुए हैं। कुछ को न्यायालय से सज़ा भी मिली। मगर इसका उन पर कोई असर  नहीं होता। बिहार के मुख्यमंत्री को अपने विवादित बयान के लिए सार्वजनिक माफी भी मांगनी पड़ी। विवादित बयानबाज़ी करके सुर्खियों में रहना शायद नेताओं को आनंद देने लगा है। पिछले दो दशक से आपत्तिजनक और विवादित बोल बोले जा रहे हैं। नेताओं के बयानों से गाहे बगाहे राजनीति की मर्यादा भंग होती रहती है। अमर्यादित बयानों की जैसे झड़ी लग जाती है। राजनीति में बयानबाज़ी का स्तर इस तरह नीचे गिरता जा रहा है जिसे देखकर लगता है कि हमारा लोकतंत्र तार-तार हो रहा है। कहा जाता है अभी तो यह ट्रेलर है, 2024 के लोकसभा चुनाव में विवादित बयानबाज़ी की पिक्चर बाकी है। सुप्रीम कोर्ट ने भी नफरत फैलाने वाले भाषण को देश के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को प्रभावित करने वाला गंभीर अपराध करार दिया है। देश की सर्वोच्च अदालत ने पिछले दिनों सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की पुलिस को निर्देश दिया कि वे स्वत: संज्ञान लेकर कार्रवाई करें। शीर्ष अदालत ने कहा कि ऐसे भाषण देने वालों के खिलाफ  मामला दर्ज किया जाए, भले ही उनका धर्म कुछ भी हो। सुप्रीम कोर्ट ने साफ  कहा कि राज्य सरकारें नफरत भरे भाषणों के खिलाफ  कार्रवाई करने के लिए बाध्य हैं।
राजस्थान में विधानसभा चुनाव के चलते नेताओं के बीच विवादित बयानबाजी का दौर रहा है। जिस तरह से एक के बाद एक नेता विवादित बयान दे देता है, उसकी वजह से चुनावी माहौल में सरगर्मी बढ़ जाती है। विवादित बयान देने में किसी भी पार्टी का नेता पीछे नहीं है। कहते हैं राजनीति में सभी एक जैसे हैं।  सियासत में विवादास्पद बयान को नेता भले अपने प्रसिद्ध होने तथा चर्चा में रहने का ज़रिया मानें, लेकिन ऐसे बयान लोकतंक्ष के स्वस्थ के लिए ठीक नहीं होते। देश के कई नेता आजकल अक्सर ऐसी भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं, जिससे सिर शर्म से झुक जाता है। देश के नामी-गिरामी नेता और मंत्री भी कुछ न कुछ ऐसा बोल ही देते हैं, जिसे सुनकर कान बंद करने को मन करता है।  
आम आदमी से जुड़े मुद्दों, जैसे बेहतर आधारभूत सुविधाएं, सामाजिक न्याय, सब के लिए शिक्षा और रोज़गार, भ्रष्टाचार से मुक्ति, शासन-प्रशासन में पारदर्शिता इत्यादि से देश के हर नागरिक को जूझना पड़ता है। आम आदमी की परेशानियों से किसी को कोई मतलब नहीं है। आम आदमी को महंगाई से जूझना पड़ेगा। चुनाव में करोड़ों-अरबों की धनराशि स्वाहा हो जाती है। चुनाव लोकतंत्र की परीक्षा होते हैं और इस परीक्षा में राजनीतिक दलों को यह साबित करना होता है कि जनता के बीच उनकी स्वीकार्यता और लोकप्रियता कितनी है। लोकतंत्र की परीक्षा पास करने के लिए राजनीतिक दल चुनाव में जनता के बीच जाते हैं। अपने मुद्दे रखते हैं और वायदे करते हैं कि चुनाव जीतने के बाद वे जनता की भलाई के लिए क्या कदम उठाएंगे। मगर वास्तविकता इससे ठीक विपरीत होती है। चुनाव जीतने के बाद नेता अपनी झोली भरने में व्यस्त हो जाते हैं। जितने पैसे चुनाव में लगाए हैं उनके पुनर्भरण की जुगत बैठाते हैं। 
गरीब की भलाई के स्थान पर अपने कुनबे को आगे बढ़ाने में लग जाते हैं। इसलिए जनता को खूब सोच-समझ कर अपने मताधिकार का इस्तेमाल करना चाहिए अन्यथा पांच साल के लिए फिर भैंस गई पानी में। नेता वोट लेने के लिए जाति व धर्म का सहारा लेते हैं और जनता को प्रलोभल देते हैं, मगर मतदाता को इन प्रलोभनों से हट कर मतदान करना चाहिए। जनता उसी नेता को चुने जो उसका हित चाहता हो अन्यथा फिर पांच साल पछताना पड़ेगा और इसके लिए कोई दूसरा दोषी नहीं होगा।

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