अर्थ-व्यवस्था विकास के पथ पर, लेकिन नई नौकरियां नहीं

आजकल अर्थव्यवस्था पर एक घिसा-पिटा बयान दिया जाता है  कि भारत की अर्थव्यवस्था काफी अच्छी स्थिति में है जबकि कई अन्य देश लड़खड़ा रहे हैं और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था धीमी हो रही है और भू-राजनीति स्थिति को बदतर बना रही है। यह सच है कि भारतीय अर्थव्यवस्था अब सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है और यह यूरोप, मध्य-पूर्व और चीन के तुलना में अधिक  तेज़ी से बढ़ रही है। पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार और विश्व बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री कौशिक बसु का कहना है कि इसमें संदेह करने की कोई बात नहीं है और भारत अब उचित रूप से एक उज्ज्वल स्थान पर है। इसका मतलब यह है कि अर्थव्यवस्था के अच्छा प्रदर्शन करने और तथाकथित जनसांख्यिकीय लाभांश का लाभ उठाने की संभावना है। इसलिए सवाल यह है कि क्या नीति निर्माता इस लाभ को भुनाने के लिए पर्याप्त प्रयास कर रहे हैं। उत्तर निश्चित रूप से नहीं में है। वृहत-आर्थिक बुनियादी सिद्धांतों के साथ कुछ मुद्दे हैं। इसके अलावा पर्याप्त नौकरियां पैदा नहीं हो रही हैं, खासकर युवाओं के बीच।
बसु भारतीय अर्थव्यवस्था में एक अंतर्निहित कमज़ोरी की ओर इशारा करते हैं और बताते हैं कि हाल के वर्षों में बचत और निवेश दरों में लगातार गिरावट आयी है। बसु का मानना है कि मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाले संप्रग (संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन) शासन के दौरान बचत और निवेश दरें सकल घरेलू उत्पाद 38 से 39 प्रतिशत तक पहुंच गय था। इससे भारत को इस शताब्दी के पहले दशक में स्थिर मूल्य आधार वर्ष पर लगभग 9 प्रतिशत की उच्च विकास दर प्राप्त हुई थी। विशेष रूप से घरेलू बचत की उच्च बचत दर ने यह सुनिश्चित किया कि निवेश भी तदनुसार अधिक था जिसके परिणामस्वरूप कम वृद्धिशील पूंजी उत्पादन अनुपात हुआ।
दुर्भाग्य से बचत और निवेश दरें दोनों विशेष रूप से मोदी युग के दौरान गिर रही हैं और कोविड के वर्षों में 28 या 29 प्रतिशत के निचले स्तर तक गिर गयी थीं, लेकिन अब अर्थव्यवस्था के पुनरुद्धार के साथ थोड़ी तेजी आ रही है, जो स्वागत योग्य है। हालांकि, बसु बताते हैं कि यह अब 30 प्रतिशत के आसपास है। इसलिए निवेश दर की भी ऐसी ही स्थिति है, जो अर्थव्यवस्था के लिए पर्याप्त नहीं है। यह सुनिश्चित करने के लिए कि देश में बड़े पैमाने पर रोज़गार पैदा हो, विशेष रूप से श्रम प्रधान उद्योगों में भारी निवेश की आवश्यकता है, लेकिन किसी तरह ऐसा नहीं हो रहा है। तथाकथित स्व-रोज़गार के माध्यम से अल्प-रोज़गार भी बढ़ रहा है। 35 साल से कम उम्र की आबादी के बड़े अनुपात वाले भारत के लिए यह अच्छी खबर नहीं है। सीएमआईई डेटा से संकेत मिलता है कि बेरोज़गारी जो 5.6 प्रतिशत तक कम हो गयी थी, अब फिर से बढ़ रही है। नवीनतम आंकड़ों से पता चलता है कि यह अब 10 प्रतिशत के आस-पास है।
कौशिक बसु के अनुसार अधिक चिंताजनक बात यह है कि 15-22 वर्ष के आयु वर्ग में बेरोज़गारी 22 प्रतिशत तक है। मध्य-पूर्व में भी 15-22 वर्ष आयु वर्ग में बेरोज़गारी की संख्या भी इतनी थी। अर्थव्यवस्था और समाज के स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने के लिए रोज़गार सृजन पर ज़ोर देना बहुत महत्वपूर्ण है। रोज़गार बढ़ाने के लिए बुनियादी ढांचे में वित्त पोषण बढ़ाना महत्वपूर्ण है और सरकार साल दर साल सार्वजनिक व्यय बढ़ाकर अपना काम कर रही है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इस साल के बजट में सार्वजनिक व्यय को 2022-23 के 7.5 लाख करोड़ रुपये से बढ़ा कर 10 लाख करोड़ रुपये से थोड़ा अधिक कर दिया है। यह एक स्वागत योग्य घटनाक्रम है। (संवाद)