आम जन के लिए बड़ी समस्या बनते ज़हरीला धुआं व धुंध 

साधन सम्पन्न लोगों के लिये बेशक सर्दी का मौसम प्रकृति प्रदत्त एक अनमोल सौगात है क्योंकि वे अपनी सुविधानुसार गर्म कपड़ों, मंहगे कंबलों, रज़ाइयों, घरों में तापमान गर्म रखने के लिये विभिन्न प्रकार के ब्लोअर, हीटर आदि की व्यवस्था कर पाने का सामर्थ्य रखते हैं, परन्तु ठीक इसके विपरीत महंगाई के इस दौर में जबकि इन्सान का दो वक्त की रोटी का प्रबंध कर पाना भी मुश्किल हो रहा हो, ऐसे में कोई भी गरीब आदमी सर्दियों से बचने के लिये इस तरह की सुविधाओं की बात सोच भी नहीं सकता। 
किसी गरीब या बेघर व्यक्ति के लिये सर्दी से बचने का सबसे सुगम व सस्ता साधन होती है अलाव। अक्सर देखा गया है कि शीतलहरी का प्रकोप बढ़ने पर ठण्ड से अधिक प्रभावित होने वाली विभिन्न राज्य सरकारें ऐसे गरीबों व बेघर लोगों की सुविधा के लिये सार्वजनिक स्थलों पर अलाव जलाने का भी प्रबंध करती हैं। परन्तु सही मायने में भारत जैसे विशाल देश में विशेषकर उत्तर भारत के शीत लहर से प्रभावित घनी आबादी वाले राज्यों में हर गरीब व बेघर तक न तो सरकार के अलाव  की आंच पहुंचती है न ही सरकार द्वारा अलाव जलाने हेतु आवंटित पूरी धनराशि लकड़ियां खरीदने पर खर्च की जाती होंगी। 
इसी ठण्ड से बचने के लिये जब गरीबों, भिखारियों व बेघर लोगों को कुछ नहीं सूझता तो वे जगह-जगह झुण्ड के रूप में इकट्ठे होकर स्वयं आग जलाने की व्यवस्था कर लेते हैं। परन्तु इनके द्वारा जलाई गयी आग में अधिकांशत: पॉलीथिन, प्लास्टिक, पाऊच, दूध की खाली थैलियां यहां तक कि ज़हरीला धुआं छोड़ने वाली वस्तुयें जलाई जाती हैं। इसके दुष्प्रभाव से अनजान इस वर्ग को इस बात का ज्ञान ही नहीं कि उनके द्वारा जलाई गयी सामग्री से उठने वाला जानलेवा धुआं न केवल उनके अपने लिये धीमे ज़हर का काम कर रहा है बल्कि यह आस-पास के पूरे वातावरण को भी प्रदूषित कर रहा है और राहगीरों या उस क्षेत्र के निवासियों के स्वास्थ के लिये भी समस्या खड़ी कर रहा है। यह स्थिति उन दिनों में और भी ज़्यादा भयावह हो जाती है जब सर्दियों के दिन और रातें घने कोहरे और धुंध की चादरों में लिपटी होती हैं। इस मौसम में प्राय: हवा भी नहीं चलती और उसी धुंध में यह ज़हरीला धुआं मिलकर वातावरण को इतना दुर्गन्धयुक्त, ज़हरीला व प्रदूषित बना देता है कि आम लोगों का सांस लेना भी मुश्किल हो जाता है। 
अक्सर यह भी देखा गया है कि स्थानीय नगर पालिकाओं के सफाई कर्मचारी भी झाड़ू से कूड़ा इकठ्ठा कर जगह-जगह उसकी ढेरियां बना कर उसे आग लगा देते हैं। उस कूड़े के ढेर में भी अधिकांशत: प्लास्टिक, पॉलीथिन, पन्नी व रबड़ आदि ही होता है जोकि ज़हरीला धुआं छोड़ता है। मज़े की बात तो यह है कि एक बेघर या गरीब व्यक्ति तो केवल सर्दियों में अपने को शीतलहरी से बचाने के लिये प्लास्टिक, रबड़ आदि जलाता है परन्तु सफाई कर्मचारी और कबाड़ का काम करने वाले लोग जो तारों को जलाकर उसमें से तांबे के तार निकालते हैं, वे तो वर्ष भर  प्रदूषण फैलाने में लगे रहते हैं।  और जब इसी धुंध और धुएं में धूल भी शामिल हो जाये फिर तो सरकारें और डॉक्टर्स सभी यही सलाह देने लगते हैं कि अनावश्यक रूप से घरों से बाहर न निकलें। ऐसे ही अत्यंत प्रदूषित व स्वास्थ के लिये खतरनाक वातावरण में सरकारें स्कूलों में छुट्टियां घोषित कर देती हैं। निर्माण कार्य बंद कर दिए जाते हैं। रेत, मिट्टी, बजरी आदि गृह निर्माण की ऐसे सामग्री जिसके आवागमन से मार्ग में प्रदूषण फैलता हो, उन्हें प्रतिबंधित कर दिया जाता है। दिल्ली जैसे घने राज्य में तो सम-विषम नम्बरों के आधार पर यातायात को इसलिए नियंत्रित करने का प्रयास किया जाता है ताकि वातावरण में धुआं नियंत्रित किया जा सके। किसानों को अपने खेतों में पराली तथा फसलों के अवशेष जलाने से रोका जाता है। इसके लिये कानून भी बनाये गये हैं।
ठीक इसके विपरीत दुनिया में अनेक जागरूक देश ऐसे भी हैं जहां किसी भी प्रकार का धुआं फैलाना अपराध की श्रेणी में गिना जाता है। यह कहने की ज़रुरत नहीं कि ऐसे देश शिक्षित, जागरूक, अन्धविश्वास से दूर और आर्थिक रूप से संपन्न भी हैं। ऐसे देशों की सरकारें अपने नागरिकों के लिये हर प्रकार की सुविधाएं मुहैया कराती हैं। बेशक गरीबी वहां भी है परन्तु उनकी स्थिति ऐसी दयनीय भी नहीं कि उन्हें सड़कों से पॉलीथिन, प्लास्टिक. रबड़ या प्लास्टिक की बोतलें चुनकर आग जलानी पड़े और इस तरह सर्दियों में अपनी जान बचानी पड़े। न ही वहां का कबाड़ी या सरकारी स्टाफ कूड़े इकठ्ठा कर उसे आग लगाकर प्रदूषण फैलता है। बजाये इसके ऐसे देश वृक्षारोपण पर ज़्यादा ध्यान देते हैं। 
लिहाज़ा यह सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वह अपने नागरिकों की सुविधा व स्वास्थ की पूरी ईमानदारी से  चिंता करे। ग्राम पंचायत स्तर से लेकर शहरी वार्ड स्तर तक रेलवे स्टेशन पार्क व अन्य सभी सार्वजनिक स्थलों पर रहने वाले गरीबों, भिखारियों व बेघर लोगों को शीत लहर से बचाने की प्रभावी व्यवस्था करे। चाहे उनके लिये समुचित आश्रय स्थल बनाकर या लकड़ियों के अलाव जलाकर। इसके अतिरिक्त सफाई कर्मियों द्वारा कूड़ा इकट्ठा कर जलाये जाने की प्रवृति पर भी अंकुश लगाया जाये। साथ ही एक निगरानी तंत्र विकसित किया जाये जो अनावश्यक रूप से उठने वाले धुंए पर नज़र रख सके। साथ ही अकारण व अवांछित धुआं करने वालों के विरुद्ध कार्रवाई की जाये क्योंकि प्रत्येक वर्ष शीत लहर के दैरान में  ‘धुआं, धुंध और धूल’ आम लोगों के स्वास्थ के लिये एक बड़ी समस्या बन जाते हैं।