मोदी बनाम खड़गे : क्या यही होगी अंतिम मुकाबले की तस्वीर ?

कहते हैं इतिहास के सबसे बड़े निर्णय सबसे कम समय में, कई बार तो पलक झपकने जितने समय में लिए जाते हैं, तो क्या 2024 के लोकसभा चुनावों को लेकर विपक्ष यानी ‘इंडिया’ गठबंधन भी इसी अंदाज में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को ‘प्रधानमंत्री का चेहरा’ बनाने का फैसला कर चुका है? ऐसा इसलिए सोचा जा सकता है, क्योंकि पांच विधानसभा चुनावों में आशा के विपरीत करारी हार के बाद जब ‘इंडिया’ गठबंधन की प्रस्तावित 6 दिसम्बर, 2023 की बैठक टल गई तो लगा कि शायद यह एकता दरक रही है। लेकिन 19 दिसम्बर, 2023 को गठबंधन की सम्पन्न चौथी बैठक, जो तीन घंटों से भी ज्यादा समय तक चली, उसमें दूर-दूर तक लोकसभा चुनाव के लिए प्रधानमंत्री का चेहरा पेश करने जैसी कोई बात नहीं थी। लेकिन बैठक के बाद जब चाय का दौर चल रहा था, तो अचानक पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा कि आगामी लोकसभा चुनाव के लिए ‘इंडिया’ गठबंधन की तरफ से मल्लिकार्जुन खड़गे प्रधानमंत्री का चेहरा हो सकते हैं। 
उनके इस प्रस्ताव को एक क्षण के लिए दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अचंभे और हैरानी की भाव भंगिमाओं के साथ जांचा परखा और फिर जैसे उन्हें महसूस हुआ हो कि दीदी ने तो बहुत पते की बात कह दी, केजरीवाल ने खुशी में लगभग ‘यूरेका... यूरेका’ अंदाज में इसका समर्थन किया। देर रात तक सूत्रों के हवालों से जो खबरें राजधानी दिल्ली के राजनीति गलियारों में तेज़ रफ्तार से घूमने लगीं, वो यह थीं कि कुछ ही घंटों के भीतर ‘इंडिया’ गठबंधन में शामिल 12 अन्य दलों ने भी इसकी पुष्टि कर दी है। इस तरह देखते ही देखते ममता बनर्जी का यह प्रस्ताव विस्फोट की रणनीति के तौर पर हिट हो चुका है। 
हालांकि अब तक की स्थितियों के मुताबिक कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने विनम्रता से ममता बनर्जी के इस प्रस्ताव को फिलहाल यह कहकर ठंडे बस्ते में डाल दिया है या कहें कि ठुकरा दिया है कि पहले आगामी लोकसभा चुनाव में विपक्ष को एकजुट होकर ताकतवर भाजपा को करारी शिकस्त देनी है, इसके बाद प्रधानमंत्री कौन बनेगा, इसका फैसला सर्वसम्मति से हो जायेगा। लेकिन इस पूरे एपीसोड को अगर गौर से देखें तो भले यह अचानक हुए विस्फोट के रूप में सामने आया हो, लेकिन इसमें क्षेत्रीय राजनीति की खिलाड़ी ममता बनर्जी का काफी करीने से किया गया होमवर्क दिखता है। दरअसल पिछले लोकसभा चुनाव के बाद से ही भाजपा, पश्चिम बंगाल में 17.4 प्रतिशत वाले मतुआ दलित समुदाय को पटाने में लगी हुई है। प्रधानमंत्री मोदी खुद जब दो साल पहले बांग्लादेश की यात्रा पर गये थे, तो वहां इस समुदाय के एक मंदिर में भी गये थे और पश्चिम बंगाल के सबसे ज्यादा मतुआ आबादी वाले नादिया ज़िले में गृहमंत्री अमित शाह कई बड़ी बड़ी रैलियां कर चुके हैं, जिसमें मतुआ समुदाय को फोकस में रखकर अनेक घोषणाएं की गई हैं।
इसलिए अगर कहा जाए कि प्रधानमंत्री पद के चेहरे के लिए ममता बनर्जी ने बहुत सोच समझकर अपने यहां भाजपा को दलित समुदाय से दूर करने की रणनीति के चलते खड़गे का नाम आगे किया है, तो यह गलत नहीं होगा। लेकिन अकेले ममता बनर्जी के लिए ही क्यों इस रणनीति को मुफीद समझा जाए? जिस तरह से इस प्रस्ताव पर औचक खुशी दर्शाते हुए अरविंद केजरीवाल ने बिना एक पल गंवाए समर्थन किया है, उसे भी समझा जा सकता है। पंजाब में 30 प्रतिशत से ज्यादा और दिल्ली में करीब 20 प्रतिशत दलित मतदाताओं की मौजूदगी का ध्यान आते ही अरविंद केजरीवाल को यह प्रस्ताव सोने में सुहागा लगना स्वाभाविक है। यही बात उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव के लिए भी मायने रखती है। दरअसल उत्तर प्रदेश आज की तारीख में भाजपा की ताकत का नाभि केंद्र है। 80 में से 74 लोकसभा सीटें जीतना किसी चमत्कार से कम नहीं है।
विपक्ष के लिए उत्तर प्रदेश में भाजपा के नज़दीक से दलित मतदाताओं को दूर करना इसलिए भी ज़रूरी है, क्योंकि 21 प्रतिशत दलित मतदाताओं वाले इस प्रदेश में भाजपा ने ज्यादातर वो सीटें जीती हैं, जहां दलित मतदाता प्रभावशाली स्थिति में है। गौरतलब है कि साल 2011 की जनगणना के मुताबिक हिंदुस्तान में अनुसूचित जाति की आबादी 20.14 करोड़ या 16.6 प्रतिशत है, जबकि देश में अनुसूचित जनजाति की आबादी साल 2011 की जनगणना के मुताबिक 10.4 करोड़ या कुल आबादी के 8.6 प्रतिशत है। इन दोनों ही समुदायों के लिए देश में 131 लोकसभा सीटें आरक्षित हैं, इनमें 84 सीटें अनुसूचित जाति के लिए और 47 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए हैं। साल 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने इन आरक्षित सीटों में से अकेले 77 लोकसभा सीटें हासिल की थीं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का कितना बड़ा राजनीतिक प्रभाव है। देश की आरक्षित सीटों से इतर भी कई महत्वपूर्ण लोकसभा सीटों में दलित मतदाता जीत और हार तय करने की स्थिति में है। 
राजनीतिक आंकलन के मुताबिक देशभर में 150 से ज्यादा लोकसभा सीटें हैं, जहां दलित मतदाता निर्णायक रूप से जीत और हार तय करने की स्थिति में हैं। भाजपा पिछली बार से उल्ट इस बार देश की सभी 84 अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित लोकसभा सीटों पर जीत हासिल करना चाहती है। जिस तरह से भाजपा और उसके अनुषांगिक दलों ने हाल के सालों में इस समुदाय के बीच रहकर जबरदस्त सोशल इंजीनियरिंग की है, उससे यह असंभव लक्ष्य भी नहीं लगता। ऐसे में ममता बनर्जी का लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद के चेहरे के वास्ते मल्लिकार्जुन खड़गे का अनुमोदन बहुत चिंतन मनन के बाद लिया गया एक ठोस राजनीतिक फैसला है। इस फैसले से भले कांग्रेस पार्टी को उतना ज्यादा फायदा न हो, जितना फिलहाल अनुमान लगाया जा रहा है, लेकिन इससे ‘इंडिया’ गठबंधन के दूसरी सहयोगी पार्टियों को जबरदस्त फायदा हो सकता है।
कांग्रेस के लिए भी इस फैसले में कई तरह के चमकदार अनुमान सोचे ही जा सकते हैं। निश्चित रूप से मल्लिकार्जुन खड़गे की जो साफ सुथरी राजनीतिक छवि है और 50 सालों से ज्यादा का उनका जमीनी राजनीति का अनुभव है, जिसमें वह 10 बार विधानसभा सदस्य, 2 बार लोकसभा सदस्य और 1 बार राज्यसभा सदस्य रहे हैं, ऐसा अनुभवी नेता दूसरी पार्टियों के पास ढूढ़े से भी कोई नहीं मिलेगा। पिछले कनार्टक विधानसभा चुनाव में स्पष्ट रूप से देखा गया है कि मल्लिकार्जुन खड़गे की कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर हुई ताजपोशी का फायदा मिला है। लेकिन कांग्रेस के लिए यह अल्टीमेट फैसला नहीं हो सकता, क्योंकि अभी यह अनुमान संदिग्ध है कि मल्लिकार्जुन खड़गे का उत्तर भारत की दलित राजनीति में भी वैसा ही चुबंकीय प्रभाव पड़ेगा, जैसा कनार्टक में देखा गया है?
यह इसलिए भी किन्तु परन्तु से जुड़ा हुआ है, क्योंकि भले मल्लिकार्जुन खड़गे दक्षिण भारत के दूसरे राजनेताओं के मुकाबले हिंदी ठीक बोल लेते हों और वह उस समुदाय से आते हों, जो आज की राजनीति के किसी भी नैरेटिव का सबसे वजनदार पहलू है, फिर भी देखने वाली बात यह है कि उत्तर और मध्य भारत में कांग्रेस को दलित और आदिवासियों का वोट आज भी काफी ठीकठाक मिल रहा है। उसकी असली समस्या इस राजनीतिक टेरेटरी में ओबीसी के वोटों का है और अगर मल्लिकार्जुन खड़गे को दिए गये अतिरिक्त महत्व के चलते नितीश कुमार बिदकते हैं तो यह लेने की जगह देनी बन सकती है। शायद इसीलिए कांग्रेस ने अभी इसमें अतिरिक्त उत्साह का प्रदर्शन नहीं किया और खुद खड़गे ने तो विनम्रता से इसको नकारा ही दिया है। फिर भी अगर यह अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव की निर्णायक तस्वीर है तो मुकाबला दिलचस्प हो सकता है।

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर