जांच एजेंसियों को मुंह चिढ़ाते दो मुख्यमंत्री

इन दिनों देश में दो मुख्यमंत्री कानून और जांच एजेंसियों को मुंह चिढ़ा रहे हैं। इनमें पहले मुख्यमंत्री दिल्ली के अरविंद केजरीवाल और दूसरे झारखंड के हेमन्त सोरेन हैं। दोनों मुख्यमंत्रियों को भ्रष्टाचार से जुड़े अलग-अलग मामलों में प्रवर्तन निदेशालय यानी ई.डी. कई दफा नोटिस भेज कर पूछताछ के लिए बुला चुकी है, लेकिन दोनों ई.डी. के सामने पेश न होने के बहाने बना रहे हैं। झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत को ई.डी. सात बार और केजरीवाल को तीन बार समन भेज चुकी है, लेकिन दोनों इस मामले में पॉलिटिकल विक्टिम कार्ड का जमकर इस्तेमाल कर रहे हैं। दोनों ई.डी. की कार्रवाई को राजनीति से प्रेरित बताते हैं और केंद्र की मोदी सरकार पर अपने विरोधियों को दबाने के लिए जांच एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगाते हैं। असल में राजनीतिक आरोपों की आढ़ में ये दोनों खुले तौर पर कानून और जांच एजेंसियों का मज़ाक उड़ा रहे हैं।
बीती 3 जनवरी को अरविंद केजरीवाल को दिल्ली शराब नीति में कथित घोटाला केस में ई.डी. ने तीसरा नोटिस देकर बुलाया था लेकिन केजरीवाल ने ई.डी. के सामने पेश होने से इन्कार कर दिया। उन्होंने ई.डी. को जवाब भेज कर समन को अवैध करार दिया। जिस शराब घोटाले में केजरीवाल से पूछताछ होनी है, उस मामले में उनके दो बड़े नेता मनीष सिसोदिया और संजय सिंह महीनों से तिहाड़ जेल में बंद हैं। मामला गंभीर है। जांच में केजरीवाल का नाम सामने आने के बाद से यह साफ  है कि एजेंसी के पास उनके खिलाफ  ठोस सुबूत होंगे। इस मामले में सीबीआई उनसे पूछताछ कर चुकी है। केजरीवाल अक्सर मीडिया और सार्वजनिक मंचों से छाती ठोककर खुद को ईमानदारी का प्रमाण पत्र देते हैं। दस साल पुरानी आम आदमी पार्टी के दिल्ली और पंजाब के लगभग 20 नेता विभिन्न मामलों में जेल की सैर कर चुके हैं। इन दोनों राज्यों में ‘आप’ की सरकार है।
झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन से ई.डी. को ज़मीन घोटाले और अवैध खनन मामले में पूछताछ करनी है। ई.डी. उन्हें सात समन भेज चुकी है, लेकिन हेमंत लगातार पूछताछ से भाग रहे हैं। ई.डी. ने अपने सातवें समन में मुख्यमंत्री से यह पूछा था कि वह स्वयं पूछताछ के लिए जगह तिथि व समय बता दें ताकि पूछताछ की जा सके, लेकिन मुख्यमंत्री ने जो जवाब भेजा है, उसमें जगह तिथि व समय का ज़िक्र नहीं है।
केजरीवाल और सोरेन ही नहीं, विपक्ष के जिस नेता के यहां जांच एजेंसियां पहुंचती हैं, वह इसे राजनीति से प्रेरित बताकर राजनीतिक ड्रामा करने लगता है। बीते दिनों झारखंड से कांग्रेस के राज्यसभा सांसद धीरज साहू के ठिकानों से इन्कम टैक्स की छापेमारी के दौरान 353 करोड़ से ज्यादा की नगदी बरामद हुई थी। इस मामले पर भी जमकर राजनीति हुई। पश्चिम बंगाल में गत जुलाई में टीएमसी नेता एवं राज्य के पूर्व मंत्री पार्थ चटर्जी को स्कूल नौकरी घोटाले से जुड़े एक मामले में ई.डी. ने गिरफ्तार किया था। इस साल की शुरुआत में टीएमसी सांसद और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी से पश्चिम बंगाल स्कूल सेवा आयोग भर्ती और कोयला तस्करी मामलों के संबंध में पूछताछ की गई थी। राशन वितरण घोटाले में ममता सरकार के राज्य मंत्री मलिक को ई.डी. ने गिरफ्तार किया था।
फरवरी 2019 में सीबीआई की एक टीम कोलकाता के पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार से शारदा चिट फंड घोटाले में पूछताछ करने आई तो मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने केंद्र की मोदी सरकार पर सीबीआई का दुरुपयोग करने का आरोप लगाया और धरने पर बैठ गई थी। शारदा समूह ने पश्चिम बंगाल में कई पोंजी योजनाओं के जरिये कथित तौर पर लाखों लोगों को ठगा। इसमें तृणमूल कांग्रेस नेताओं के नाम सामने आए थे। सीबीआई उसकी जांच कर रही है तो राज्य सरकार ने राजनीतिक कारणों से उसे रोकने का काम किया।
बिहार में लालू यादव और उनके परिवार के सदस्य भ्रष्टाचार के मामले में जांच का सामना कर रहे हैं। भ्रष्टाचार और अपराध में लिप्त पक्ष और विपक्ष के सभी नेता जांच एजेंसियों के राडार पर हैं। कई नेता जेल की सज़ा भी काट रहे हैं। सीधी बात है अगर किसी का दामन पाक-साफ  है तो उसे जांच एजेंसी पूछताछ के लिए क्यों बुलाएगी? अगर कोई बेगुनाह है तो उसे अदालत सज़ा क्यों देगी? अदालत या जज किसी पार्टी के कार्यकर्ता या नेता नहीं हैं।
दिल्ली शराब घोटाले में सिसोदिया और संजय सिंह को कोर्ट ज़मानत नहीं दे रहा। मतलब अदालत यह समझती है कि इन दोनों के खिलाफ  पर्याप्त सबूत हैं, अगर इनको ज़मानत दी गई तो ये लोग जांच को प्रभावित कर सकते हैं। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के पूर्व मंत्री आजम खां, उनकी पत्नी और बेटा जेल में बंद हैं। लालू प्रसाद यादव चारा घोटाले में सज़ा प्राप्त हैं। क्या बिना किसी कसूर के अदालत ने उन्हें सज़ा सुनाई है?
सवाल यह है कि क्या इन नेताओं को अदालत से मिली सज़ा राजनीति से प्रेरित है? वास्तव में राजनीतिक भ्रष्टाचार पर राजनीतिक दलों के बीच गजब का आपसी तालमेल और सहमति का इतिहास रहा है। सार्वजनिक मंचों से एक-दूसरे के खिलाफ  चाहे कितना भी कीचड़ उछाला जाए, लेकिन चुनाव के बाद भ्रष्टाचार की बात नहीं होती थी, लेकिन 2014 में केंद्र की मोदी सरकार आने के बाद से भ्रष्टाचार खासकर राजनीतिक भ्रष्टाचार के खिलाफ  चली आ रही सहमति और तालमेल पर ज़ोरदार प्रहार किया गया। परिणाणस्वरूप आज कई भ्रष्ट नेता और प्रभावशाली लोग जेल की रोटियां खा रहे हैं।
राजनीतिक दल और नेता अपनी गिरेबां में झांकने की बजाय सत्ता पक्ष पर जांच एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगाते हैं। एजेंसियां का दुरुपयोग हर दल की सरकार करती है, यह कड़वी हकीकत है। 
केजरीवाल और सोरेन का ई.डी. के सामने पेश न होना उन्हें संदेह के घेरे में खड़ा करता है। अगर वे पाक-साफ  हैं तो उन्हें ई.डी. के समाने अपना पक्ष रखना चाहिए। ये दोनों एजेंसी के सामने पेश होने की बजाय इस बात की तैयारी कर रहे हैं कि गिरफ्तारी के बाद वे अपने परिवार के किसी सदस्य को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर कैसे बिठा सकते हैं। फिलहाल केजरीवाल और सोरेन की राजनीति और बयानबाजी इस ओर इशारा कर रही है कि उन्हें अपने भविष्यफल का ज्ञान है। ई.डी. को इस मामले में उचित कार्रवाई करके मिसाल स्थापित करनी चाहिए। कानून के शासन की स्थापना के लिए भी यह ज़रूरी है। (युवराज)