ईडी के खिलाफ  ऐसी अराजकता क्यों ?

पश्चिम बंगाल के उत्तर 24 परगना ज़िले के संदेशखली में 5 जनवरी को प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) जब कथित राशन वितरण घोटाले के सिलसिले में कई स्थानों पर छापेमारी करने गयी तब टीएमसी के कार्यकर्ता एवं गांव के लोगों ने टीम पर हमला बोल दिया, जो न केवल शर्मनाक बल्कि कानून-व्यवस्था को तार-तार करने की दुर्भाग्यपूर्ण घटना है। राशन घोटाले के आरोपी टीएमसी नेता शाहजहां शेख के घर पर लगे ताले को तोड़ने की ईडी कार्रवाई के दौरान उन पर हमला किया गया। ईडी के अधिकारियों पर तृणमूल कांग्रेस के इस नेता के समर्थकों ने जिस तरह हमला करने के साथ उनके वाहनों में तोड़फोड़ की, वह इस केंद्रीय एजेंसी के खिलाफ खुली अराजकता के साथ दुस्साहस का भी परिचायक है। ईडी अधिकारियों पर हमला करने वाले कितने बेखौफ  थे, इसका पता इससे चलता है कि उन्होंने इन अधिकारियों की सुरक्षा के लिए साथ गए केंद्रीय बल के जवानों पर भी हमला कर दिया। आखिर जांच दल को बिना कार्रवाई के वापस लौटना पड़ा। हालांकि पश्चिम बंगाल में यह पहली अराजक, उन्मादी, गैर-कानूनी घटना नहीं है। इससे पहले भी कई बार जांच कार्यों में बाधा डालने, जांच दल को रोकने हेतु हिंसक कार्रवाई होती रही है। स्पष्ट है कि ममता शासन में तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता कानून अपने हाथ में लेने से तनिक नहीं हिचकते, बल्कि ममता बनर्जी खुद अपने समर्थकों-कार्यकर्ताओं का बचाव करने उतर आती हैं। इससे संवैधानिक संस्थाओं का अस्तित्व एवं अस्मिता कैसे सुरक्षित रह पायेगी? 
आजकल देश में कहीं भी विपक्षी दलों एवं उनकी सरकारों से जुड़े घोटालों एवं अनियमितताओं पर सरकारी एजेंसियों की कार्रवाई को राजनीतिक बदले की कार्रवाई बताते हुए उसका विरोध शुरु हो जाता है। ईडी के लिए इस तरह के आरोप नए नहीं हैं, बल्कि आजकल तो जैसे ही वह किसी मामले की जांच शुरू करती है, तुरंत ही आरोप लगने शुरू हो जाते हैं कि यह काम राजनीतिक बदले की भावना से किया जा रहा है। ऐसी संस्था कैसे निष्पक्ष दिखाई दे एवं कैसे स्वतंत्र होकर अपना काम करे? पश्चिम बंगाल में जो हुआ, वह आपत्तिजनक और आपराधिक है। ममता की कथित तानाशाही का ही परिणाम है कि उनके कार्यकर्ता बेखौफ  हर चीज का फैसला अपने ढंग से करना-कराना चाहते और इसके लिये खुलेआम हिंसा एवं अराजकता का सहारा लेते हैं। पश्चिम बंगाल के लिए यह नई बात नहीं है, चुनावी हिंसा एवं प्रतिहिंसा तो वहां लगातार चलती रहती है। अगर कोई व्यक्ति अंगुली उठाता है या विरोध करता है तो उसकी जान पर बन आती है। ममता खुद मुख्यमंत्री होकर अपने एक कार्यकर्ता छुडाने एक बार थाने पहुंच गयी थी, स्वाभाविक ही है कि वह अपने कार्यकर्ताओं का गलत एवं अलोकतांत्रिक तरीके से समर्थन एवं सहयोग करती है जिससे उनका मनोबल बढ़ा है। ऐसे ममता समर्थक एवं कार्यकर्ता न केवल कानून की धज्जियां उड़ाते हैं बल्कि सरकारी कल्याणकारी योजनाओं का भी दुरुपयोग करते हैं। गरीबों को बांटे जाने वाले राशन का करीब तीस प्रतिशत खुले बाज़ार में बेच दिया जाता है और उसका लाभ बिचौलिये एवं टीएमसी कार्यकर्ता आपस में बांट लेते है। इस तरह का भ्रष्टाचार वहां आम है। वहां ऐसे मामलों में भी राजनीति सड़कों पर की जाती है, जो अक्सर हिंसक एवं अराजक हो जाती है। ईडी को लेकर राजनीति करने के आरोप अनेक जगहों पर लगाए गए हैं, लेकिन बंगाल जैसे दुखद व शर्मनाक दृश्य कहीं और देखने को नहीं मिलते। 
ईडी के अधिकारी तृणमूल कांग्रेस के जिस नेता के घर छापेमारी करने गए थे, वह करोड़ों रुपये के राशन घोटाले में गिरफ्तार राज्य मंत्री ज्योतिप्रिय मल्लिक का करीबी है। यदि ईडी अधिकारियों का यह कथन सही है तो बेहद गंभीर बात है। पश्चिम बंगाल में आर्थिक अपराध एवं घोटाले बड़े पैमाने पर हो रहे हैं, इन्हीं में से कुछ की ईडी और सीबीआई जांच कर रही है। इन मामलों में तृणमूल कांग्रेस के विधायक और मंत्री भी आरोपित हैं। हालांकि इनमें से कई मामलों की जांच कलकत्ता उच्च न्यायालय के आदेश पर हो रही है, फिर भी ममता सरकार का यही आरोप रहता है कि केंद्रीय जांच एजेंसियां उनके नेताओं के खिलाफ  राजनीतिक बदले की भावना के तहत कार्रवाई कर रही है। यदि उसे वास्तव में ऐसा लगता है कि वह बेदाग है, तो फिर घपले-घोटालों के गंभीर आरोपों से घिरे उसके नेताओं को अदालत का दरवाज़ा खटखटाना चाहिए, अपने पक्ष में सबूत और तर्क पेश करने चाहिए। इस तरह लाठी-डंडे के जोर पर वे कब तक हकीकत एवं सच्चाई पर पर्दा डालने में कामयाब हो सकते हैं। आये दिन ऐसे लोग, विषवमन करते हैं, प्रहार करते रहते हैं, चरित्र-हनन् करते रहते हैं, सद्भावना और शांति को भंग करते रहते हैं। उन्हें प्रांत में शांति, आदर्श-निष्पक्ष शासन-व्यवस्था, भाईचारे और एकता से कोई वास्ता नहीं होता।
यह बिल्कुल ठीक नहीं है कि गैर-भाजपा शासित राज्यों में ईडी और सीबीआई जैसी एजेंसियों को अपनी सुरक्षा के लिए केंद्रीय बलों पर निर्भर रहना पड़े। बंगाल में उन्हें ऐसा ही करना पड़ा। ऐसी ही स्थितियां अन्य गैर-भाजपा राज्यों में है। दिल्ली में मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल और झारखण्ड में हेमंत सोरेन दोनों ही मुख्यमंत्रियों को ईडी बार-बार समन भेज रहा है, लेकिन कोई भी पेश नहीं हो रहा। केन्द्रीय एजेंसियों की इस तरह की अवमानना और वह भी मुख्यमंत्रियों द्वारा, आश्चर्यकारी है एवं असंवैधानिक है। केन्द्रीय एजेंसियों के लिये काम करना आसान नहीं, बल्कि चुनौती एवं संकटपूर्ण होता रहा है।  

      
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