बल से श्रेष्ठ बुद्धि

महाराजा प्रहलाद के पुत्र थे विरोचन। उनकी सुधन्वा नामक एक विद्वान ब्राम्हण से मित्रता थी। एक दिन उन दोनों में वाद-विवाद छिड़ गया। विरोचन कहते कि बलवान श्रेष्ठ है। सुधन्वा बुद्धिमान को श्रेष्ठ मान रहे थे। 
विवाद काफी बढ़ गया, तो विरोचन ने कहा, ‘चलो, महाराज से निर्णय करवाते हैं।’ 
वह बोले, ‘इसमें जो भी जीतेगा, वह हारने वाले का सिर काट देगा।’ सुधन्वा ने यह शर्त भी मान ली। 
दोनों महाराजा प्रहलाद के पास पहुंचे। उन्हें अपने विवाद तथा साथ ही शर्त की बात भी बता दी। 
मंत्रियों ने विरोचन के प्राण बचाने की गरज से कहा, ‘महाराज, बल ही श्रेष्ठ है। आप महाबली हैं। इसलिए संसार में आपका सम्मान है।’ 
प्रहलाद समझ गए, मंत्री और सभासद ऐसा क्यों कह रहे हैं? उन्हें तो सही फैसला करना था। बोले, ‘नहीं, मेरा निर्णय इसके विपरीत है। बुद्धि ही श्रेष्ठ है। बल का सही उपयोग बुद्धि ही सिखाती है।’ 
महाराजा प्रहलाद ने विरोचन से कहा, ‘अब शर्त के अनुसार तुम प्राण देने के लिए तैयार हो जाओ।’ 
उन्होंने सुधन्वा के हाथ में तलवार पकड़ा दी। सुधन्वा ने तलवार तान ली। फिर कहा, ‘महाराज, मैं ब्राह्मण का बेटा हूं। मेरे हाथ में तलवार नहीं, पुस्तक अच्छी लगती है। फिर भी अपने प्राणों से प्यारे मित्र का वध करने के लिए मैंने तलवार उठा ली। मैं किसी भी कीमत पर मित्र के प्राण नहीं ले सकता। मेरी प्रार्थना स्वीकार की जाए।’ 
सुनकर महाराजा प्रहलाद मुस्कुराए। दरबारियों से कहने लगे, ‘देखो, मेरा यह निर्णय सही सिद्ध हुआ। बल से बुद्धि ही श्रेष्ठ है। सुधन्वा की जगह मेरा पुत्र विरोचन होता तो बल के घमंड में अब तक अपने मित्र की जान ले ही लेता।’ (उर्वशी)