लोकसभा चुनाव 2024 : बिहार, महाराष्ट्र व उत्तर प्रदेश में चल रही है गहरी राजनीतिक पैंतरेबाज़ी

22 जनवरी को अयोध्या में रामलला के मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा हो चुकी है। धार्मिक कार्यक्रम के साथ-साथ यह एक राजनीतिक कार्यक्रम भी है। इसका म़कसद मई में होने वाले लोकसभा चुनाव में भाजपा को उसके प्रभाव क्षेत्र में 2019 की ही भांति 90 प्रतिशत से ज्यादा सीटें जितवाने का है। इस लिहाज़ से यह के मनोवैज्ञानिक युद्ध भी है, जिसके तहत देश के ज्यादातर हिस्सों में राममय माहौल बनाने के साथ-साथ राम और मोदी को एक-दूसरे का पर्यायवाची दिखाने की कोशिश की जा रही है। एक बार अगर जनता की निगाह में यह स्थापित हो गया कि राम और मोदी एक-दूसरे में समाये हुए हैं, फिर लोगों के वोट लेने में भाजपा को कोई दिक्कत नहीं होगी। इस मनोवैज्ञानिक युद्ध के कुछ दूसरे पहलू भी हैं। दरअसल, विपक्ष के गठबंधन (इंडिया) और भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठजोड़ (एन.डी.ए.) के बीच रणनीतिक (घात-प्रतिघात) इस समय अपने चरम पर है। लोकसभा चुनाव से पहले ऐसा होना स्वाभाविक ही था। लेकिन, इस बार यह पैंतरेबाज़ी एक नये स्तर तक चली गई है। 
इस युद्ध में उठाया गया प्रत्येक ़कदम और बोली गई हर बात के पीछे विपक्षी की कमज़ोर कड़ियों को तोड़ने का योजनाबद्ध मनसूबा देखा जा सकता है। इस मनोवैज्ञानिक युद्ध के दो आयाम अगर देखने हों तो यह बिहार (40 सीटें) और महाराष्ट्र (48 सीटें) में देखे जा सकते हैं। इन दोनों प्रदेशों का महत्व इसलिए है कि इन्हें उन 11 राज्यों में गिना जाता है, जहां 2019 में भाजपा की चुनाव जीतने की दर क्रमश: 99 और 88 प्रतिशत रही थी। इस बार यह माना जा रहा है कि इन दोनों ही राज्यों में भाजपा के लिए पिछला नतीजा दोहराना मुश्किल है। ‘इंडिया’ गठबंधन बनने से पहले ही इन दोनों राज्यों में कुछ ऐसा राजनीतिक घटनाक्रम चला कि भाजपा के खिलाफ शक्तिशाली गठबंधन तैयार हो गए। बिहार में महागठबंधन और महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी को वे त़ाकतें मज़बूत कर रही हैं, जो 2019 में भाजपा के साथ थीं। भाजपा के रणनीतिकार सारा ज़ोर यहीं लगा रहे हैं। वे जानते हैं कि अगर इन प्रांतों में सीटें कम हुईं तो उनकी भरपाई दूसरे प्रांतों से होने की उम्मीद बहुत कम है, क्योंकि वहां पहले से ही भाजपा तकरीबन सौ प्रतिशत नतीजे निकाल चुकी है। भाजपा पहले अघाड़ी और महागठबंधन को तोड़ने का उद्यम कर चुकी है। अघाड़ी की दोनों प्रमुख पार्टियों, शिव सेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस को तोड़ा जा चुका है। उधर महागठबंधन से जीतनराम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा और मुकेश सहनी को छीन कर एन.डी.ए. में मिलाया जा चुका है। यह अलग बात है कि इतनी तोड़-फोड़ करने के बावजूद भाजपा को बिहार और महाराष्ट्र में अपनी 2019 जैसी जीत का य़कीन नहीं है।  
बिहार में भाजपा के रणनीतिकारों का विशेष ज़ोर बिहार में नितीश कुमार को कमज़ोर कड़ी मानने पर है। वे चाहते हैं कि या तो नितीश की साख गिरा दी जाए, या उन्हें ‘इंडिया’ से छीन कर राजग में मिला लिया जाए। इसके लिए पिछले कुछ महीनों से दो तरह की चालें चली जा रही हैं। पहली, नितीश को बीमार बताने के साथ-साथ इसको लालू-तेजस्वी की साज़िश का शिकार करार देना। दूसरी, लगातार इस तरह की अ़फवाहें उड़ाना कि वे ‘इंडिया’ गठबंधन में अपनी उपेक्षा से दुखी हो कर फिर से पलटी मार कर एन.डी.ए. में आने की कगार पर पहुँच चुके हैं। इस मनोवैज्ञानिक युद्ध में चतुराईपूर्वक गृहमंत्री अमित शाह से लेकर गिरिराज सिंह, सुशील मोदी और जीतन राम मांझी अपना-अपना पार्ट खेल रहे हैं। मांझी कह रहे हैं कि नितीश को साज़िशन एक खुफिया दवा दी जा रही है ताकि वे अपना मानसिक संतुलन खो दें। साथ में यह भी कहा जा रहा है कि लालू-तेजस्वी नितीश के नीचे से कुर्सी खींचने की योजना पर कभी भी अमल कर सकते हैं ताकि तेजस्वी को उस पर बैठाया जा सके। उधर अमित शाह ने जैसे ही अर्थपूर्ण ढंग से कहा कि अगर (नितीश की तरफ से) कोई प्रस्ताव आये तो उस पर विचार किया जा सकता है, वैसे ही मांझी से कहलवा दिया गया कि नितीश अगर एन.डी.ए. में आते हैं तो उन्हें उस पर आपत्ति नहीं होगी। बिहार में ‘इंडिया’ गठबंधन के सामने चुनौती यह है कि भाजपा के इस मनोवैज्ञानिक आक्रमण को किसी भी प्रकार कामयाब न होने दिया जाए। अभी तक तो नितीश, तेजस्वी और लालू इससे बचते हुए दिखाई दे रहे हैं। 
महाराष्ट्र में विधानसभा अध्यक्ष राहुल नारवेकर द्वारा शिव सेना के दलबदली करने वाले विधायकों संबंधी दिया गया लम्बा फैसला दरअसल इस मनोवैज्ञानिक युद्ध का एक औज़ार बन गया है। नारवेकर ने चतुराईपूर्वक शिव सेना के दोनों धड़ों में से किसी के भी विधायकों को अयोग्य नहीं ठहराया, पर ऐसी परिस्थिति बना दी, जिसके तहत उद्धव ठाकरे के विधायकों को भी एकनाथ शिंदे के आदेशों को ही नहीं मानना होगा, बल्कि उनकी पार्टी लाइन पर भी चलना होगा। वरना, उनके खिलाफ कार्रवाई हो जाएगी। इस तरह इस अनूठे फैसले ने विधानसभा चुनाव तक लगातार अनिच्छापूर्वक ही सही उद्धव के विधायकों को शिंदे के साथ जोड़ दिया है। इस प्रक्रिया में इन विधायकों की अनिच्छा कभी भी इच्छा में बदल सकती है। यानी, यह फैसला उद्धव की राजनीतिक ताकत तो धीरे-धीरे घटाने और एकनाथ शिंदे की शिव सेना को मज़बूत करने की भूमिका निभाता हुआ दिखेगा। महाराष्ट्र की राजनीति में उद्धव के कमज़ोर होते जाने और भाजपा पर निर्भर रहने वाले शिंदे का मतलब यह होगा कि उत्तर प्रदेश के बाद सबसे ज्यादा सीटों वाले इस प्रांत में भाजपा का वर्चस्व बढ़ता चला जाएगा। भाजपा ने राष्ट्रवादी कांग्रेस को भी विभाजित कर दिया है। नारवेकर को अजित पवार के विधायकों के बारे में भी फैसला देना है। लेकिन, अजित पवार का एक पैर हमेशा अपने चाचा (शरद पवार) की नाव में रहता है। इसलिए ऐसा नहीं कहा जा सकता कि ऐसा मनोवैज्ञानिक युद्ध वहां उसी तरह कामयाब हो पाएगा।  
उत्तर प्रदेश में यह मनोवैज्ञानिक युद्ध दोनों पक्षों द्वारा मायावती की राजनीति के प्रबंधन पर टिका है। अभी तक तो यही दिखाई पड़ रहा है कि इसमें भाजपा कामयाब होते दिखाई पड़ रही है। मायावती के अलग लड़ने का व्यावहारिक नतीजा भाजपा की 10 से 12 सीटें बढ़ने में हो सकता है, और ‘इंडिया’ गठबंधन के साथ जाने का परिणाम भाजपा से 30-35 सीटें छिनने में निकल सकता है। लेकिन यह भी हो सकता है कि मायावती ऐन म़ौके पर यानी मार्च से ठीक पहले पलटी मार जाएं और ‘इंडिया’ गठबंधन के साथ चली जाएं। कांग्रेस की उनके साथ पर्दे के पीछे चल रही बातचीत के पीछे यही उम्मीद है। कांग्रेस उन्हें यह समझाने का यत्न कर रही है कि मायावती के अलग लड़ने का नतीजा उन्हें केवल पांच से 10 प्रतिशत वोट और न के बराबर सीटें मिलने में निकल सकता है। मायावती की राजनीति पर ऐसा नतीजा एक मरणांतक प्रहार होगा। 

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।