बिहार में नितीश कुमार कैसे सिद्ध करेंगे बहुमत ? 

बिहार में नितीश कुमार एक बार फिर भाजपा के समर्थन के बूते नए सिरे से मुख्यमंत्री बन गए हैं, लेकिन इस बार विधानसभा में बहुमत साबित करने को लेकर टकराव हो सकता है। इसका कारण यह है कि विधानसभा स्पीकर अवध बिहारी चौधरी राष्ट्रीय जनता दल के नेता हैं। इसीलिए कहा जा रहा है कि अगर नितीश की पार्टी के कुछ विधायक विश्वास मत के खिलाफ वोट देते हैं तो स्पीकर उनको अलग गुट की मान्यता दे देंगे और उसके बाद अयोग्यता का मामला लम्बे समय तक चलता रहेगा। गौरतलब है कि बिहार में जनता दल (यू) और भाजपा की नई सरकार के पास साधारण बहुमत होगा। बिहार की 243 सदस्यों की विधानसभा में भाजपा के 78, जनता दल यू के 45 और हिन्दुस्तान आवाम मोर्चा के चार विधायक हैं। सरकार को एक निर्दलीय विधायक का समर्थन होगा। इस तरह कुल संख्या 128 की बनती है जो बहुमत से छह ज्यादा है। दूसरी ओर राजद 79 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी है और उसके साथ कांग्रेस के 19 और वामपंथी पार्टियों के 16 विधायक हैं। असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी के एक विधायक का समर्थन जोड़ें तो उनकी संख्या 115 होती है। सो, अगर नितीश की पार्टी के सात-आठ विधायक विश्वास मत के खिलाफ  वोट देते हैं तो सरकार गिर सकती है। इस बीच यह भी खबर है कि लालू प्रसाद ने हिन्दुस्तान आवाम मोर्चा के नेता जीतन राम मांझी के बेटे संतोष सुमन को उप-मुख्यमंत्री बनाने का प्रस्ताव देकर उनको तोड़ने का दांव भी चला है, लेकिन दूसरी ओर कांग्रेस के विधायकों को तोड़ने की कोशिशें भी शुरू हो गई हैं। 
मतदाताओं की भी निगरानी का इरादा था 
केन्द्र सरकार के नेतृत्व की ओर से प्रमुख विपक्षी नेताओं, अपने ही कुछ मंत्रियों, सुप्रीम कोर्ट के कुछ जजों और कुछ पत्रकारों की जासूसी कराने की खबर तो जगजाहिर है, लेकिन हैरान करने वाली यह खबर दरबारी मीडिया में नहीं आई कि केन्द्र सरकार मतदाताओं की भी निगरानी कराना चाहती थी। इसके लिए उपकरण खरीदे जाने थे और टेंडर भी जारी हो गया था, लेकिन कुछ गैर-सरकारी संगठनों की ओर से सवाल उठाने पर चुनाव आयोग को मजबूर होकर इस मामले में हस्तक्षेप करते हुए टेंडर रद्द कराना पड़ा। दरअसल केन्द्र सरकार के सूचना व प्रौद्योगिकी यानी आईटी मंत्रालय के तहत आने वाले नेशनल इंफॉर्मेटिक्स सेंटर सर्विसेज इंक  (एनआईसीएसआई) ने ऐसे उपकरणों के लिए टेंडर जारी किया था जिनसे मतदान के समय मतदाताओं की निगरानी और उनकी पहचान की जा सके। इतना ही नहीं, ड्रोन्स के लिए भी टेंडर जारी किए गए थे ताकि मतदान के दिन मतदाताओं की आवाजाही पर नज़र रखी जा सके। 
सवाल है कि केन्द्र सरकार को ऐसा कराने की क्या ज़रूरत है? बताया जा रहा है कि केन्द्र्र सरकार ने चुनाव आयोग की मंज़ूरी के बगैर इसका टेंडर जारी किया था। सवाल उठने के बाद चुनाव आयोग के प्रवक्ता ने खुद इस बात की पुष्टि की है कि टेंडर रद्द हो गया है। हालांकि इससे ज्यादा उन्होंने कुछ नहीं बताया। सवाल है कि क्या सरकार का मकसद मतदाताओं की प्रोफाइलिंग करना था? क्या सरकार देखना चाहती थी कि किस पार्टी के लिए काम कर रहे कार्यकर्ता किस मतदाता से मिल रहे हैं? यह बहुत खतरनाक और चिंताजनक बात है। 
चुनावी साल में कुछ नहीं बेचा 
राहुल गांधी और दूसरे विपक्षी नेता चाहें तो इस बात का श्रेय ले सकते हैं कि उनके दबाव में केन्द्र सरकार ने सरकारी सम्पत्तियों को बेचने का काम स्थगित कर दिया है, लेकिन हकीकत यह है कि चुनावी साल की वजह से केन्द्र्र सरकार ने वित्त वर्ष 2023-24 में सरकारी सम्पत्तियों को बेचने का काम स्थगित रखा। सरकार ने पिछले साल बजट पेश करते हुए इस वित्त वर्ष में 51 हज़ार करोड़ रुपये विनिवेश से यानी सरकारी सम्पत्तियों की बिक्री से हासिल करने का लक्ष्य तय किया था, लेकिन एक ताज़ा रिपोर्ट में बताया गया है कि चालू वित्त वर्ष में विनिवेश से सरकार को सिर्फ 15 हज़ार करोड़ रुपये ही मिले हैं।
 ज़ाहिर है कि सरकार अपने लक्ष्य का 33 फीसदी भी हासिल नहीं कर पाई है। हालांकि पहले भी विनिवेश का लक्ष्य सौ फीसदी पूरा नहीं होता था, लेकिन इस बार सरकार लक्ष्य से बहुत पीछे है। अब नए साल का अंतरिम बजट आना है। संसद के बजट सत्र की घोषणा हो गई है और जल्दी ही लोकसभा चुनाव की भी घोषणा होनी है। इसलिए माना जा रहा है कि अब शायद ही विनिवेश से जुड़ा कोई फैसला होगा। भारत सरकार एलआईसी के स्वामित्व वाले आईडीबीआई बैंक को बेचना चाहती है, लेकिन यह काम चुनाव से पहले नहीं हो पाएगा। बहरहाल, यह देखना दिलचस्प होगा कि सरकार अगले वित्त वर्ष के लिए क्या लक्ष्य तय करती है।
राहुल के साथ असम जैसा बरताव
कांग्रेस नेता राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ पश्चिम बंगाल में पहुंच गई है, लेकिन वहां भी उनके साथ वैसा ही बरताव हो रहा है, जैसा असम में हुआ। असम में मुख्यमंत्री हिमंता बिस्व सरमा पूरी तरह से उनके खिलाफ  थे और उन्होंने उनकी यात्रा में हर जगह अड़ंगेबाजी की। कई जगह भाजपा के कार्यकर्ताओं द्वारा पोस्टर, बैनर फाड़े जाने की खबर आई तो कुछ जगहों पर यात्रा पर हमला होने की भी खबरें आईं। राहुल गांधी को 22 जनवरी को वहां के एक मंदिर में जाने से रोक दिया गया। फिर उनकी यात्रा गुवाहाटी पहुंची तो शहर में यात्रा को रोका गया, जिसके बाद कांग्रेस नेताओं ने बैरिकेडिंग वगैरह तोड़ी और राज्य सरकार ने उनके ऊपर मुकद्दमा दर्ज कराया। 
लगभग इसी तरह का बरताव पश्चिम बंगाल में भी हो रहा है जबकि अकेले लड़ने का ऐलान कर चुकी ममता बनर्जी अब भी ‘इंडिया’ का हिस्सा हैं और गांधी परिवार के साथ उनके बहुत अच्छे व निजी संबंध रहे हैं। फिर भी राहुल की यात्रा को लेकर कई जगह बाधाएं डाली गईं। जब राहुल की यात्रा असम से निकल कर बिहार के रास्ते बंगाल में पहुंची तो तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने यात्रा का विरोध किया और बैनर दिखाया कि बंगाल में दीदी अकेले काफी हैं। इसके बाद खबर आई कि तृणमूल कांग्रेस की सरकार ने राहुल की रैली की अनुमति नहीं दी है। कोलकाता में राहुल का रोड शो करने की अनुमति के लिए भी कांग्रेस नेता मशक्कत कर रहे हैं।
विपक्ष एक साथ चुनाव के पक्ष में नहीं 
पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली उच्च स्तरीय समिति को ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ के मुद्दे पर 20 हज़ार से ज्यादा लोगों की राय मिली है। इनमें से करीब 80 फीसदी ने इस विचार से सहमति जताई है और कहा है कि पूरे देश में सारे चुनाव एक साथ होने चाहिए, लेकिन दूसरी ओर सभी विपक्षी पार्टियों ने इस विचार का विरोध किया है। कोविंद कमेटी ने जिन पार्टियों को पत्र लिख कर उनकी राय मांगी थी, उनमें से कांग्रेस सहित 17 पार्टियों ने अपनी राय भेजी है और सभी ने कहा है कि यह विचार देश की संवैधानिक व्यवस्था और लोकतंत्र के लिए खतरा है। एक तरफ 80 फीसदी लोगों की राय है तो दूसरी ओर देश की सभी विपक्षी पार्टियों की राय है। 
अब सवाल है कि रामनाथ कोविंद कमेटी किस आधार पर फैसला करेगी? क्या वह इस आधार पर एक साथ चुनाव कराने की सिफारिश कर सकती है कि देश के 80 फीसदी लोग चाहते हैं कि चुनाव साथ होने चाहिएं? इस बात की संभावना कम है क्योंकि राय देने वालों की संख्या 20 हज़ार है और उसमें भी सभी विपक्षी पार्टियां इसके खिलाफ  है। सो, विपक्षी पार्टियों को भरोसे में लिए बिना कैसे एक साथ चुनाव की सिफारिश की जा सकती है? इस मामले में सरकार को भी सोच समझ कर आगे बढ़ना होगा। एक तरफ  सभी विपक्षी पार्टियां ईवीएम से चुनाव का विरोध कर रही है, लेकिन सरकार ईवीएम छोड़ने को तैयार नहीं है। दूसरी ओर अगर विपक्ष की राय को दरकिनार करके एक साथ चुनाव का फैसला होता है तो विपक्षी पार्टियां सड़क पर उतर सकती हैं।