रसातल की ओर जाते पंजाब को कौन बचाएगा ?

़खुदा ने आज तक उस कौम की हालत नहीं बदली,
न हो जिसको ़ख्याल आप अपनी हालत के बदलने का।
ज़़फर अली का यह शे’अर पंजाबी कौम पर पूरी तरह चरितार्थ होता है। आज मैं धर्म की बात नहीं कर रहा, अपितु  पंजाबीयत तथा पंजाबी कौम की बात कर रहा हूं। वैसे तो पंजाबीयत उस दिन ही टुकड़े-टुकड़े और रक्त-रंजित हो गई थी, जब 1947 में दो धर्मों के विचार (थ्यूरी) के अधीन पंजाब को विभाजित कर दिया गया था। नि:संदेह विभाजन तो धर्म के आधार पर बंगाल का भी हुआ था, परन्तु फिर भी बंगालियों ने भारतीय बंगाल में भी और बंगलादेश (उस समय का पूर्वी पाकिस्तान) में भी बंगाली भाषा तथा संस्कृति के साथ प्यार कम नहीं किया, परन्तु अफसोस है कि पंजाबी कौम दो धर्मों में ही नहीं विभाजित हुई, अपितु धीरे-धीरे एक प्रकार से बेहोशी की नींद में सोती चली गई। पाकिस्तानी पंजाब में चाहे पंजाबी हावी हैं परन्तु पंजाबी भाषा, साहित्य तथा कौमियत की हालत वहां भी कोई बहुत अच्छी नहीं। वहां के हालात अलग हैं, परन्तु भारतीय पंजाब में तो हम पंजाबी रहे ही नहीं, सिख हो गए, हिन्दू हो गए, ईसाई हो गए, मुसलमान हो गए। धर्म के अलगाव के आधार पर पंजाबी सिर्फ सिखों की भाषा बना दी गई। इसमें दोष सिर्फ सिखों का नहीं और न ही सिर्फ हिन्दुओं का है। हमारे नेताओं ने गद्दी के लालच में, धर्म के नशे में हमें बांटा, परन्तु हमने स्वयं भी एक पंजाबी कौम के रूप में सोचना बंद कर दिया है। हमारे भीतर पंजाबीयत ही खत्म हो गई हो जैसे। नहीं तो महाराजा रणजीत सिंह के शासन में सिख तो सिर्फ 6 प्रतिशत थे। मुसलमान 69 प्रतिशत और हिन्दू 24 प्रतिशत थे, परन्तु हम मुसलमान, हिन्दू, सिख होते हुए भी पहले पंजाबी थे। शाह मुहम्मद अंग्रेज़ों के पंजाब पर हमले के समय लिखता है—
राज़ी बहुत रहिंदे मुसलमान हिन्दू,
सिर दोहां दे उत्ते आ़फत आई।
शाह मुहम्मदा विच्च पंजाब दे जी,
कोई नहीं सी तीसरी जात आई। 
परन्तु स्वतंत्रता के बाद तो हम पंजाबी होने से ही मुन्कर हो गये। परिणामस्वरूप पंजाब फिर टुकड़े-टुकड़े हो गया, परन्तु आश्चर्यजनक बात है कि स्वयं को पंजाबी मानने वाले छोटे से पंजाब में भी अब हम पंजाबी नहीं हैं, सिख हैं, हिन्दू हैं, मुसलमान हैं, ईसाई हैं।
परन्तु विगत इतिहास को छोड़ कर आज की बात करें तो प्रतीत होता है कि पंजाब बर्बादी तथा तबाही के कगार पर खड़ा है। इस समय हम संवादहीनता तथा असमंजस के दौर से गुज़र रहे हैं। राजसत्ता प्राप्त करना तथा राजसत्ता से लाभ लेना हमारा एकमात्र लक्ष्य है। पंजाब जो पांच पानियों की धरती है, से पानी ही खत्म हो रहा है, परन्तु हम कुछ नहीं कर रहे, सिर्फ बातों तथा नारों तक सीमित हैं। सरकार भी सिर्फ वोटों के ख्याल में ही डूबी हुई है और विपक्षी पार्टियां भी सच नहीं बोलतीं, नहीं विचार करतीं, नहीं स्वीकार करतीं। पंजाब की राजनीतिक पार्टियों के नेताओं के लिए राजसत्ता कितनी आवश्यक है, इसका सबूत यह है कि पार्टियां बदलते हुए नेताओं के लिए किसी विचारधारा की कोई कीमत नहीं, जितनी बेशर्मी से दल-बदली अब हो रही है, शायद इतनी बेशर्मी से इतिहास के किसी दौर में भी नहीं हुई होगी। कोई भी राजनीतिक पार्टी पंजाब के भविष्य के लिए कोई विस्तृत एजेंडा पेश नहीं कर रही। लोग भी इस स्थिति से निजात पाने के लिए प्रतिदिन नये नायकों की तलाश में रहते हैं। ये नायक कभी पंजाबियों के होते हैं और कभी सिखों या हिन्दुओं के। 1984 के दुखांत के बाद पंजाब जैसे विचारधारक तौर पर पटरी से ही उतर गया है। पंजाबियों ने बार-बार नये नायक तलाशने की कोशिश की है। कभी पी.पी.पी. के गठन समय पंजाबियों को मनप्रीत सिंह बादल नायक लगे, कभी किसान मोर्चे के उभार के समय बलबीर सिंह राजेवाल, कभी दीप सिद्धू, कभी नवजोत सिंह सिद्धू, कभी सुखपाल सिंह खैहरा, कभी भगवंत मान, कभी अमृतपाल सिंह तथा यहां तक कि कुछ पंजाबियों को भाना सिद्धू, लक्खा सिधाना भी नायक प्रतीत होते हैं, परन्तु हर बार पंजाब तथा पंजाबियों को निराशा ही मिल रही है। कभी-कभी तो जब इन नायकों का मुलम्मा उतरता है तो प्रतीत होता है जैसे सरकारें स्वयं ही इन नायकों को उभार रही हों। कई उदाहरण हमारे सामने हैं कि ऐसे नायक सरकार विरोधी वोट बांटने का हथियार भी बनते रहे हैं। 
लोकसभा चुनाव में मुद्दाविहीन हैं पार्टियां 
लोकसभा चुनाव सिर पर हैं। पंजाब की कोई भी प्रमुख पार्टी पंजाबियों के समक्ष पंजाब की बर्बादी से बचने के रास्तों के बारे कोई कार्यक्रम रखना तो दूर, सोचती भी दिखाई नहीं दे रही। चर्चा है तो सिर्फ इस बात की कि कांग्रेस तथा ‘आप’ में समझौता हो या न, अकाली दल तथा भाजपा में समझौता क्यों नहीं हो रहा? पंजाब में  ‘आप’ की सरकार मुफ्त की सुविधाओं के लालच में तथा स्थापित पार्टियों के पंजाबियों की आशाओं पर पूरा न उतर सकने के कारण ही बनी थी। अब भी सरकार मुफ्तखोरी की योजनाओं के लालच तथा भय का माहौल बना कर ही जीतने की कोशिश में है। पंजाब के भविष्य बारे, पंजाब की वास्तविक ज़रूरतों की ओर उसका भी कोई ध्यान नहीं है। पंजाब सरकार के अपने आंकड़े ही बताते हैं कि पंजाब में ऋण बढ़ कर 3.20 लाख करोड़ पर पहुंच गया है। पंजाब सरकार ने सिर्फ 21 माह में ही 31,153 करोड़ रुपये का ब्याज ही दिया है। सबसे अधिक घाटा बिजली सब्सिडी में पड़ रहा है। जब पंजाब में रेता 24 रुपये फुट बिकती थी तो ‘आप’ प्रमुख अरविंद केजरीवाल ने कहा था कि रेता के कारोबार से माफिया को निकाल कर पंजाब सरकार प्रत्येक वर्ष 20 हज़ार करोड़ रुपये कमाएगी, परन्तु अब रेता तो 34 से 40 रुपये फुट तक मिलती है। सो, यह 20 हज़ार करोड़ रुपये अब किस माफिया की जेब में जा रहे हैं? पंजाब का राजस्व घाटा खतरनाक सीमा तक बढ़ रहा है। हां, पंजाब सरकार की आय आबकारी (शराब) में अवश्य बढ़ी है। यह भी कोई अच्छा शगुन नहीं है। पंजाब में चाहे गैंगस्टरों के पुलिस मुकाबले बढ़ रहे हैं, चाहे 1984-90 के दौर की भांति पुलिस को फिर बुलेट प्रूफ ट्रैक्टर दिये जा रहे हैं, परन्तु पंजाब पुलिस का दबदबा नहीं बढ़ रहा। यह स्थिति कोई अच्छी नहीं है। इसमें झूठे पुलिस मुकाबले, राजनीतिक तथा निजी बदले के लिए पुलिस के इस्तेमाल का भय बढ़ेगा, न्याय मिलना कठिन होता जाएगा। पुलिस राज का खतरा बढ़ेगा। मुकाबलों की इजाज़त देना तथा ट्रैक्टर तक उपलब्ध करवाने सभ्य समाज की निशानी नहीं कही जा सकती। परन्तु पंजाब की विपक्षी पार्टियों के पास भी कोई सार्थक तथा दीर्घकालीन कोई कार्यक्रम नहीं है, नारे ही हैं। क्या कैसे करना है? किसी को नहीं पता। नवजोत सिंह सिद्धू अपने पंजाब एडेंडे की बात तो करते हैं, परन्तु वह भी मौखिक।  उन्होंने भी कोई विस्तृत एजेंडा लिखित रूप में तैयार नहीं किया। 
भारतीय किसान यूनियनों ने शानदार लड़ाई तो लड़ी और जीत भी हासिल की, परन्तु इस जीत का परिणाम क्या है? क्या फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य मिला? क्या पंजाब के पानी या अन्य मामलों का समाधान हुआ? नहीं हुआ, अपितु संघवाद के खात्मे तथा धार्मिक राज का खतरा बढ़ा है। इस लड़ाई के बाद पंजाब और गहरी अंधेरी खाई में गिरता प्रतीत हो रहा है। प्रत्येक जीत के बाद एकता होना स्वाभाविक क्रियान्वयन होता है, परन्तु बिना किसा उपलब्धि के एकता के स्थान पर 32 से 72 संगठन बन गए हैं। इस प्रकार प्रतीत होता है कि प्रत्येक संगठन के दूसरी कतार के नेताओं को प्रतीत हुआ है कि उनके नेताओं ने बहुत लाभ उठाए हैं। यदि वे स्वयं नेता होते तो वे भी लाभ उठा लेते, इसलिए उन्होंने भी अलग संगठन बना कर स्वयं को अध्यक्ष तथा नेता बना लिया है। 
बुद्धिजीवी भी बरी नहीं 
ताअज़ुब कुछ नहीं ‘दाना’ जो बाज़ार-ए-सियासत में
कलम बिक जाये तो सच बात लिखना छोड़ देते हैं।
नि:संदेह सभी नहीं परन्तु पंजाब के बहुत-से कथित बुद्धिजीवी पंजाब की इस हालत की ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकते। अधिकतर बुद्धिजीवी सिर्फ नायक उभारने में ही लगे रहते हैं। वे समय का सच नहीं लिखते। जिसके पास ताकत है, उसकी तारीफ करते हैं। खाड़कूवाद का दौर रहा या पुलिस मुकाबलों तथा सरकारी अत्याचार का, अधिकतर बुद्धिजीवी गुटों में बंटे रहे और अपने-अपने गुट के उचित-अनुचित कार्यों के पक्ष में लिखते रहे। किसी ने अपने गुट की किसी गलत सोच, गलत नीति को नहीं नकारा और किसी ने दूसरे गुट के अच्छे कार्य की प्रशंसा नहीं की। निजी लाभ अधिकतर कथित बुद्धिजीवियों की रोज़ी-रोटी बन चुके हैं। पद, ईनाम- इकराम अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं।
सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी लोगों की
वैसे नि:संदेह यह पंजाब के राजनेताओं का फज़र् है कि वे लोगों को पंजाब की वर्तमान तथा भविष्य की समस्याओं से सचेत करें तथा उनका समाधान का सुझाव दें, परन्तु लोगों का भी तो फज़र् है कि वे सिर्फ निजी तथा तुरंत लाभ के लालच में पूरी कौम का भविष्य ही खतरे में न पड़ने दें। हम पंजाब की भावी पीढ़ियों जो हमारे ही बेटे-पौत्र तथा पड़पौत्र, पड़पौत्रियां होंगे, को ऐसे गहरे रसातल की ओर धकेल रहे हैं कि पंजाब जो मौसम, धरती तथा पानी के रूप में अभी तक भी विश्व का बेहतरीन क्षेत्र है, कहीं विश्व की सबसे बुरी धरती में न बदल जाए। 
लिपट के रोने लगे मुझ से शायर-ए-मशरिक 
जब उनको कौम की हालत बता रहा था मैं।
(मोहसिन आ़फताब)
शायर-ए-मशरिक—अलामा इकबाल
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