वीर हकीकत के बलिदान का त्यौहार है बसन्त पंचमी

मां गौरां और भागमल का लाल वीर हकीकत हिंदू धर्म पर बलिदान हुआ। उम्र थी 15 साल। अपने रक्त से भारत माता का अभिषेक किया किन्तु मुगलों के सामने झुका नहीं, सिर कटवा चाहे दिया। उसकी बलिदान की गाथा कहती है बसन्त पंचमी। 
बसन्त ऋतुराज है। सारी प्रकृति मानो शृंगार कर रही होती है। शीत ऋतु के धुंध-कोहरे और भयानक सर्दी से त्रस्त, ग्रस्त प्रकृति मानो एक बार फिर अंगड़ाई लेकर खिल पड़ती है। रंग बिरंगे फूलों से सज जाती है। वैसे बसन्त ऋतु बलिदानों का त्यौहार है। इस मौसम में देश कि कितने ही स्वतंत्रता के दीवाने फांसी पर चढ़े और भारत का गौरव बना रहे। शहीद चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु भी बांसती ऋतु में ही भारत माता के लिए बलिवेदी पर अर्पित हुए। महाकवि माखन लाल चतुर्वेदी जैसी पुष्प की अभिलाषा इन शहीदों की भी थी— 
मुझे तोड़ लेना वन माली,
उस पथ पर तुम देना फेंक, 
मातृभूमि हित शीश चढ़ाने,
जिस पथ जावें वीर अनेक। 
बसन्त ऋतु के साथ ही उस बलिदानी की अमिट गाथा भी जुड़ी है जिसे मुगलों ने लाहौर के भरे दरबार में शहीद कर दिया। यह शहादत की गाथा वीर हकीकत राय की है, जो सन् 1719 में पैदा हुआ और 1734 की बसन्त पंचमी के दिन उसने अपने पवित्र रक्त से हिंदुत्व को मानो श्रद्धांजलि दी किन्तु आज पूरे देश की क्या बात करें, हिंदू समाज भी हकीकत की हकीकत को भूल गया। देश के विभाजन सन् 1947 से पहले पंजाब के हर हिंदू और सिख परिवार में वीर हकीकत राय एक जाना पहचाना नाम था। बसन्त पंचमी हकीकत राय के बलिदान दिवस के रूप में मनाई जाती थी। लाहौर में जहां हकीकत राय की समाधि बनाई गई, वहां बसन्त के दिन बहुत बड़ा मेला लगता था। हजारों लोग इकट्ठे होकर इस वीर बालक को अपने श्रद्धासुमन अर्पित भेंट करते थे। देश विभाजन के पश्चात भी बसन्त पंचमी का त्यौहार भारत में बड़े उत्साह और श्रद्धा के साथ मनाया जाता रहा है और उसमें वीर हकीकत के बलिदान को भी याद किया जाता था। स्कूलों की पाठ्य पुस्तकों में विद्यार्थियों को हकीकत की जीवनी पढ़ाई जाती थी किन्तु धीरे-धीरे वीर हकीकत राय तथा अन्य वीरों की बलिदान गाथाओं को स्वतंत्र भारत की सरकारों ने पाठ्यक्रम से निकाल दिया। शायद यह एक सोची समझी नीति के तहत किया गया, जिससे नई पीढ़ी को अपने वीरों की शौर्य गाथाओं से अनभिज्ञ रखा जाए। 
पंजाब के स्यालकोट जो अब पाकिस्तान में है, में 1719 में हकीकत राय का जन्म हुआ। हकीकत की माता गौरां और पिता भागमल व्यापारी थे। ईश्वर भक्त, बड़े ही नेक व्यक्ति और धार्मिक जीवन जीने वाले। हकीकत के पिता ने उसकी प्रतिभा को परखते हुए उसे फारसी पढ़ने के लिए मदरसे में भेजा। उन दिनों शिक्षा का प्रबंध मदरसों में ही किया जाता था। एक दिन अनवर और रशीद नामक दो सहपाठियों ने हकीकत के साथ झगड़ा किया और मां भवानी का नाम लेकर उनका अपमान किया। इतिहासकार श्री गणेशदास वढेरा की ऐतिहासिक पुस्तक ‘चार बाग-ए-पंजाब’ के आधार पर यह जानकारी मिलती है कि बालक हकीकत ने जब इसका विरोध किया तो उन्होंने शोर मचाया कि हकीकत ने इस्लाम के विरुद्ध अपशब्द कहे हैं। काजी ने एक ही बात कही— हकीकत इस्लाम स्वीकार करे या मौत के लिए तैयार रहे। 
एक बार तो बेबस भागमल और मां गौरां ने हकीकत को यह समझाया कि वह मुसलमान बन जाए, जिंदा तो रहेगा पर हकीकत ने जो उत्तर दिया, वह इतिहास में हमेशा अमर रहेगा। हकीकत ने बड़ी दृढ़ता से जवाब दिया, धर्म पर मर-मिटूंगा मैं, क्योंकि धर्म मुझको प्यारा है। आखिर बसंत के दिन 1734 में हकीकत को शहीद कर दिया गया। एक इतिहासकार के अनुसार हकीकत का आधा शरीर जमीन में दबाया गया और उसे चारों ओर से पत्थर मारे गए। जब वह पूरी तरह से क्षत विक्षत हो गया तो फिर जल्लाद ने उसका सिर काटा। गुलामी के राज की विडम्बना देखिए कि पूरे लाहौर के हिंदू इकट्ठे होकर निजाम के पास आज्ञा मांगने गए।
प्रश्न आज यह भी है कि हम अपने उन वीरों को क्यों भूल गए जिनके कारण आज भी हम गर्व से सिर को ऊंचा कर सकते हैं? मदनलाल ढींगरा, वीर ऊधम सिंह और भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, खुदीराम बोस और वीर नारी झलकारी, वीर बालिका मैना, कनकलता जैसे असंख्य वीरों का बलिदान हमें राष्ट्रहित सर्वस्व अर्पण की प्रेरणा देता रहेगा। केवल पीली पतंगें, पीला हलवा, पीली पगड़ी या दुपट्टा और गीत भंगड़े यही बसंत नहीं है। बसंत को बनाए रखने के लिए बसंत के बलिदानियों को याद करना भी ज़रूरी है।