कृषि लागत, समर्थन मूल्य व स्वामीनाथन

किसानी का मामला किसी किनारे नहीं लग रहा। वर्तमान सरकार द्वारा कार्पोरेट संस्थाओं को दिए प्रोत्साहन ने इसे और भी जटिल बना दिया है। खरीदने वालों की बदनीयती तथा हस्तक्षेप न्यूनतम समर्थन मूल्य को गारंटीशुदा बनने की राह में बाधा बने हुए हैं।  किसानों के सिर पर ऋण तेज़ी से बढ़ रहा है जो सितम्बर 2016 तक 1260 लाख करोड़ रुपये हो चुका था। 1996 से 2013 तक तीन लाख से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके थे। विश्व के हज़ारों वर्षों के कृषि इतिहास में महामारियां  या अकालों से किसान मरते तो सुने थे परन्तु इतने बड़े स्तर पर आत्महत्याओं से मरते नहीं। 
केन्द्र सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य निश्चित करने के लिए कृषि लागत तथा मूल्य आयोग भी बनाया हुआ है, परन्तु इसकी भी पेश नहीं जाती। शुरू-शुरू में इसे कानूनी रूप देने के लिए व्यापक स्तर पर राजनीतिक समर्थन मिला था, परन्तु बाद की सरकारें इसे यह रूप देने में विफल रही हैं और इसी कारण कृषि क्षेत्र आज भी असमंजस वाले हालात में से गुज़र रहा है। निश्चय ही अब दशकों पुरानी न्यूनतम समर्थन मूल्य नीति को कमज़ोर करने वाले कारणों को दूर करने, इसके कानून की जटिलताओं को हटाने तथा देश की रीढ़ की हड्डी कृषि को मज़बूत बनाने की ज़रूरत है। इसमें  आ रही बाधा को समझना आवश्यक है। वह यह कि न्यूनतम समर्थन मूल्य 23 फसलों का ऐसा मूल्य है, जो प्रशासन की सलाह से तय किया जाता है। यह कार्य कृषि लागत तथा मूल्य आयोग ने करना होता है, जो प्रत्येक वर्ष बदलता रहता है। होता यह है कि बाज़ार में अनाज की कीमतें गिरते ही न्यूनतम समर्थन मूल्य नीचे चला जाता है। नीति आयोग के ताज़ा आंकड़े बताते हैं कि इसका लाभ सिर्फ 6 प्रतिशत किसानों को ही मिलता है। सरकार कृषि उपज का सिर्फ 11 प्रतिशत किसानों से खरीद करने के योग्य होती है। परिणामस्वरूप 90 प्रतिशत से अधिक फसलें निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य से 20 से 30 प्रतिशत कम कीमत पर बेचीं जाती हैं। किसानों को एक खेत की पैदावार पर लगभग 20 हज़ार रुपये का नुकसान होता है, जिसका वार्षिक आकलन करें तो यह नुकसान लगभग 10 लाख करोड़ का हो जाता है। भारतीय अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंध अनुसंधान कौंसिल (सीआरआईई) तथा आर्थिक सहयोग और विकास संगठन द्वारा किए गए एक अध्ययन से भी यही पता चला है कि अप्रभावी नीति के कारण भारतीय किसानों को वर्ष 2000 से लगातार नुकसान हो रहा है। याद रहे कि 2017-18 में फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा के अनुसार नरमे की लागत 43 प्रतिशत रुपये प्रति क्ंिवटल, रागी की 2001 रुपये तथा ज्वार की 2000 प्रति क्ंिवटल थी। इसके बावजूद नरमे का न्यूनतम समर्थन मूल्य 4020 रुपये, रागी का 1900 रुपये तथा ज्वार का 1700 रुपये प्रति क्ंिवटल घोषित किया गया। इस प्रकार किसानों की फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य से अधिक बिकने पर भी नरमे पर 306 रुपये, रागी पर 451 रुपये तथा ज्वार पर 300 रुपये क्ंिवटल का घाटा पड़ा था। यह प्रचलन 2017-18 तक ही सीमित नहीं रहा। डा. स्वामीनाथन ने फसलों की लागत पर 50 प्रतिशत मुनाफे की सिफारिश की थी। संप्रग सरकार ने स्वयं स्वामीनाथन आयोग बना कर इसकी सिफारिशें लागू नहीं कीं। तब स्वामीनाथन ने कृषि उपज की अधिक कीमतें मिलने की सिफारिशों बारे पूछने पर कहा था, ‘मैंने सिर्फ 50 प्रतिशत की ही सिफारिश की है, परन्तु दवा कम्पनियां 500 प्रतिशत से अधिक मुनाफा लेती हैं। कोई भी कारोबार 50 प्रतिशत मुनाफे से कम पर चल नहीं सकता। इसलिए पूरा कष्ट किसान क्यों सहन करें?’ 
किसान परिवारों को महंगाई के दौर में भोजन, कपड़े, घर, घर की मुरम्मत, कृषि व्यवसाय विकसित करने तथा सामाजिक जीवन जीने के लिए फसलों का लाभदायक मूल्य चाहिए। इन सभी खर्चों हेतु किसानों के लिए 50 प्रतिशत आय में वृद्धि उचित है, परन्तु बदल-बदल कर बन रही सरकारें कार्पोरेट पक्षीय नीतियों पर चल रही हैं। इन नीतियों पर चल कर ये कार्पोरेटों पक्षीय नीतियां अपना रही हैं। ये नीतियां किसानों के विपरीत जा रही हैं। 
हालांकि सरकार ने किसानों के सामने कपास, मक्की,तूर, माह तथा मसुर की फसलें पांच वर्ष के लिए उनसे न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदने का प्रस्ताव रखा है, परन्तु उसकी मात्रा निर्धारित नहीं की। विशेष बात यह भी है कि ये सभी फसलें पंजाब तथा हरियाणा से बाहर पैदा होती हैं। फिर भी इनके न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए पंजाब तथा हरियाणा के किसान ही घरों से बाहर निकल कर सड़कों पर बैठे हुए हैं। इसलिए कि विभिन्न किस्मों की फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी रूप देने से कीमतों की स्थिरता का लाभ किसी विशेष किसान वर्ग तक ही सीमित नहीं रहेगा। 
विधानकार किसानों के भ्रमों व चिंताओं को दूर करके उनके लिए अधिक सुरक्षित तथा खुशहाल भविष्य का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं। अप्रभावी न्यूनतम समर्थन मूल्य नीति को कानूनी गारंटी देने से कृषि क्षेत्र को दरपेश चुनौतियों का व्यापक स्तर पर समाधान निकलेगा तथा इससे न सिर्फ किसानों की उलझनों को दूर किया जा सकेगा, अपितु यह फसली विभिन्नता के साथ-साथ वित्तीय लचीलेपन को भी उत्साहित कर सकता है और इससे उन किसानों का कल्याण हो सकेगा जो ग्रामीण आर्थिकता की खुशहाली में अपनी अहम भूमिका अदा करते हैं। 
2023 के किसान आन्दोलन ने देश में किसानों में जागरूकता ला दी है। दिल्ली किसान आन्दोलन पूरे भारत के किसानों के लिए अपनी मांगें मनवाने के लिए मॉडल बन चुका है। किसानों को अपनी मांगों के लिए इसी पैट्रन पर एकजुट होना पड़ेगा। इसी आन्दोलन से मार्गदर्शन लेकर किसान फिर आन्दोलन करने के लिए उतरे हैं। 
पंजाबी साहित्य अकादमी लुधियाना के 68 वर्ष
3 मार्च को पंजाबी साहित्य अकादमी लुधियाना के चुनाव ने दूरवर्ती स्थानों से पहुंचे कवियों, कहानीकारों तथा बुद्धिजीवियों को मिलाया ही नहीं, अपितु इसे स्थापित करने वाली प्रमुख हस्तियां भी याद करवा दीं। डा. भाई सोध सिंह, डा. महिन्दर सिंह रंधावा, प्रो. मोहन सिंह तथा ज्ञानी लाल सिंह, डा. दलीप कौर टिवाणा आदि। सात दशक पहले बनी यह संस्था पूरी तरह कायम है और इसके शुभ चिन्तकों में लुधियाना निवासी डा. सरदारा सिंह जौहल ही नहीं सात समुद्र पार के सुरेन्द्र सिंह सुन्नड़ा तथा अनेक प्रसिद्ध प्रकाशक भी शामिल हैं। गुरदासपुर, अमृतसर, दिल्ली, सरसा तथा अलीगढ़ तक के सहकर्मी उत्साह से पहुंचे हुए थे। इसकी बागडोर का डा. सरबजीत सिंह जैसे उद्यमशील साहसिक लोगों के हाथ चले जाना अपेक्षित बदलाव एवं उज्जवल भविष्य का भी परिचायक है।