दहेज कुप्रथा का अंत कब और कैसे?

दहेज का मतलब होता है बेटी को शादी के समय अपनी खुशी से कोई उपहार देना, भारत में ये प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही है, लेकिन आधुनिक और भौतिकवाद के समय में आज कुछ लालची, नाकाम लोगों ने इसे कुप्रथा बना दिया है। हमारे देश में दहेज कुप्रथा अभी भी पैर पसारे हुए हैं। हिमाचल प्रदेश में भी यह कुप्रथा का चलन कोई कम नहीं है। यहां भी दहेज लेने देने की परंपरा गरीबों के लिए अभिशाप बनी हुई है। दहेज के बहुत से रूप हैं, सोना, चांदी, गाड़ी, इलेक्ट्रॉनिक सामान और भी न जाने क्या कुछ।
समाज के तानों या निंदा से बचने के लिए गरीब और मध्यम वर्गीय परिवार के लोगों को लड़कियों की शादी के लिए चादर से बाहर पैर मजबूर होकर पसारने पड़ते हैं और कुछ तो कर्ज के दलदल में भी फंस जाते हैं। दहेज प्रथा की बलि न जाने आज तक कितनी ही नवविवाहितों को चढ़ाया गया है और जब तक दहेज लोभियों को कड़ी सजा मिलना शुरु नहीं होती तब तक दहेज लोभियों की पुंछ सीधी नहीं होने वाली। दहेज कुप्रथा पर नकेल कसने के लिए सरकार ने कानून तो बनाया है, लेकिन वो भी लचर अवस्था में दिखता है। दहेज लोभियों को सख्त सजा मिलनी चाहिए लेकिन जो दहेज विरोधी कानून का दुरूपयोग करे उनके लिए भी सख्त सजा का प्रावधान ज़रुरी है। दहेज विरोधी कानून की आढ़ में किसी का शोषण भी किया जा सकता है। कुछ बिगड़ैल लड़कियां अपने ससुराल में अपनी मनमर्जी न चलता देख अपने ससुराल में रोज लड़ाई झगड़ा करती है जब इससे भी बात नहीं बनती तो ससुराल वालों पर झूठा दहेज का आरोप लगाकर उन्हें जेल की हवा खिला देती हैं शायद। ऐसे में ससुराल वाले बिना कसुर ही सजा पा जाते हैं।

राजेश कुमार चौहान
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