कैसे होता है तारों का जन्म

आकाश में टिमटिमाते तारे वे आकाशीय पदार्थ है, जिनके पास खुद की रोशनी है और जो बहुत अधिक मात्र में गर्मी पैदा करते हैं। यों तो आकाश में अरबों-खरबों तारे हैं, पर नंगी आंखों से हम दो-तीन हजार को ही देख पाते हैं। हमारी पृथ्वी के सबसे निकट रहने वाला तारा है सूर्य। यह पृथ्वी से लगभग 15 करोड़ किलोमीटर दूर है और इसकी रोशनी हम तक आने में 8 मिनट का समय लेती है। 
तारों के जन्म की कहानी भी बड़ी अजीबो-गरीब है। पहले पहल तो यह माना जाता था कि तारों का न तो जन्म होता है और न ही मृत्यु पर खगोलशास्त्रियों ने अपनी खोजों के आधार पर यह सिद्ध कर दिया है कि तारों का भी जन्म, विकास और मृत्यु होती है। जिस तरह मानव जीवन में चार अवस्थाएं बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था होती हैं, उसी तरह तारों का जीवनकाल भी पांच विभिन्न अवस्थाओं में पूरा होता है। यह सभी जानते हैं कि अंतरिक्ष में हाइड्रोजन (एच 2) और हीलियम (ही) गैसें अन्य गैसों की तुलना में बहुत ज्यादा होती हैं। गैसें ही क्यों, अंतरिक्ष में धूल के कण भी होते हैं। ये गैसें और धूल के कण अंतरिक्ष में यहां-वहां बिखरे होते हैं। ठीक वैसे ही जैसे लंच की छुट्टी में स्कूली बच्चे मैदान में झुंड बनाकर इधर-उधर बैठे होते हैं, कहीं कम तो कहीं ज्यादा। इन गैसों की अपनी गर्मी बहुत कम होती है जिससे ये बहुत पास-पास होती हैं। जहां ये गैसें बहुत ज्यादा होती हैं यानी घनत्व ज्यादा होता है, वह स्थान ‘गैसमेघ’ कहलाता है। 
ये गैसमेघ बहुत बड़े-बड़े होते हैं, जिससे ये गैसें एक-दूसरी को अपनी ओर खींचती हैं यानी इन पर अपना स्वयं का गुरूत्वाकर्षण बल काम करता है। जैसे-जैसे ये गैसें पास-पास आती जाती हैं, वैसे-वैसे गैसमेघ सिकुड़ते चले जाते हैं। यह प्रक्रिया ठीक वैसे ही होती है जैसे किसी फूले हुए गुब्बारे की हवा निकालने पर वह धीरे-धीरे सिकुड़ता चला जाता है। इस क्रिया के फलस्वरूप ये गैसमेघ अर्द्धठोस और गोल आकार ले लेते हैं। अब इन गैसमेघों को ‘प्रोटोस्टार’ कहा जाता है। यह प्रोटोस्टार न तो रोशनी देता है और न ही गर्मी। 
इसके बाद प्रोटोस्टार तारे में बदलना शुरू होता है। प्रोटोस्टार आकार में गैसमेघ की अपेक्षा काफी छोटे होते हैं। अत: इसमें उपस्थित हाइड्रोजन गैस के अणु स्वतंत्र रूप से न घूम पाने की वजह से आपस में टकराने लगते हैं। आपने गौर किया होगा कि जब लोहे पर चोट की जाती है तो वह गर्म हो जाता है। इसी तरह ये गैस के अणु जब आपस में टकराते हैं तो काफी गर्मी पैदा होती है। इसी वजह से प्रोटोस्टार का तापमान बहुत अधिक बढ़ जाता है, लगभग 10 लाख डिग्री सेल्सियस। इतने अधिक तापमान पर प्रोटोस्टार में नाभिकीय क्रियाएं शुरू हो जाती हैं। इस क्रिया में हाइड्रोजन हीलियम में बदलने लगती है और बहुत गर्मी पैदा होती है। धीरे-धीरे इस क्रिया के तेज़ होने से प्रोटोस्टार गर्मी व रोशनी फैलाने लगता है। यही तारा है। 
हम दीवाली पर दीयों की कतारबद्ध पंक्ति देखते ही हैं। दूर से देखने पर ये कैसे तारों की तरह टिमटिमाते हुए दिखाई देते हैं लेकिन दीए की बत्ती कब तक जलती है? दीए में तेल रहता है, तब तक ही न। तेल खत्म खेल खत्म। ठीक ऐसा ही तारों के मामलों में भी है। करोड़ों वर्षों तक टिमटिमाते तारों के लिए हाइड्रोजन ईंधन का काम करती है। जब यह तारे के अंदर के भाग में खत्म हो जाती है, तब वहां केवल हीलियम ही शेष रहती है। इस तरह तारे के इस भाग में ईंधन यानी हाइड्रोजन के खत्म होते ही नाभिकीय क्रियाएं भी रूक जाती हैं। 
नाभिकीय क्रियाओं के रूकते ही गर्मी का पैदा होना बंद हो जाता है। गर्मी के कम होने से तारे का यह भाग सिकुड़ने लगता है पर अभी तारे के बाहरी भाग में हाइड्रोजन उपस्थित होती है जिससे उसके बाहरी भाग में नाभिकीय क्रियाएं जारी रहती हैं और पैदा होने वाली गर्मी से यह भाग फैलने लगता है। फैलते-फैलते तारा बहुत बड़ा आकार धारण कर लेता है, एकदम लाल रंग का। तारे की यह अवस्था ‘लाल राक्षसी रूप’ कहलाती है। 
लाल राक्षसी तारे के अंदर के भाग में केवल हीलियम ही शेष रहती है। अब इस लाल राक्षसी तारे में एक आश्चर्यजनक परिवर्तन होता है। जिस किसी भी राक्षसी तारे का भार सूर्य के भार के लगभग बराबर होता है, उसकी बाहरी परत या बाहरी भाग उसके अंदर वाले भाग से अलग हो जाता है, ठीक वैसे ही जैसे संतरे से छिलकों का अलग होना। फिर अंदर के भाग में उपस्थित हीलियम आपसी खींचतान की वजह से सिकुड़कर बौना रूप धर लेती है। साथ ही, बंद हो चुकी नाभिकीय क्रियाएं फिर से शुरू हो जाती हैं और हीलियम कार्बन जैसे भारी पदार्थों में बदलने लगती हैं। इस क्रिया में गर्मी तो पैदा होती ही है, बाद में यह बौना तारा सफेद रोशनी देने लगता है। तारों की यह अवस्था सफेद बौना या श्वेतवामन तारा निर्माण अवस्था कहलाती है। ऐसे तारों को ‘श्वेतवामन तारे’ कहते हैं।
लेकिन जिन लाल राक्षसी तारों का भार सूर्य के भार से चौथाई ज्यादा होता है, उनके अंदर के भाग में हीलियम लगातार सिकुड़ती जाती है और बहुत अधिक गर्मी पैदा करती है। यह गर्मी इतनी अधिक होती है कि विस्फोटों के रूप में बाहर निकलने लगती है। अब यह तारा ‘सुपरनोवा’ कहलाता है। लगातार होने वाले विस्फोटों से तारे की बाहरी परत टूटकर गैसमेघ के रूप में अंतरिक्ष में दूर चली जाती है। बाद में इन्हीं से प्रोटोस्टार का जन्म होता है। 
इन तारों के आंतरिक भाग में विस्फोटों के बाद केवल न्यूट्रान के कण शेष रहते हैं। धीरे-धीरे यह न्यूट्रान ठोस रूप ग्रहण करता है और फिर ‘न्यूट्रान तारा’ कहलाता है। अब जिन न्यूट्रान तारों का जन्म ऐसे लाल राक्षसी तारों से होता है जिनका भार सूर्य के भार से लगभग 10 गुना ज्यादा होता है। वे लगातार सिकुड़ते जाते हैं और फिर एक काले छिद्र में बदल जाते हैं। इस काले छिद्र को ‘कृष्ण विवर’ या ‘ब्लैक होल’ भी कहा जाता है। ये ब्लैक होल भक्षक होते हैं यानी ये अपने आसपास के आकाशीय पदार्थों को अपने में समा लेते हैं या कह सकते हैं, खा जाते हैं। 
ये ब्लैक होल अंतरिक्ष में भ्रमण करते हुए जब आपस में टकराते हैं तो ये वाष्प, धूल और गैस के मेघ बन जाते हैं। बाद में इनसे फिर नए तारों का जन्म होता है। इस तरह तारों की यह सृष्टि बनती और मिटती रहती है पर एक या दो दिनों में नहीं, करोड़ों वर्षों में। तारों की आयु करोड़ों वर्ष होती है। (उर्वशी)