चुनावी घोषणा-पत्र और भोर का सपना

कवि तो दिन में भी सपने देखता है। कवि आम जन भी होता है, इसलिए उसको दिन के सपने न फलीभूत होने का कोई गम नहीं होता। दिमाग और सपनों का सामंजस्य बिठाना एक टेढ़ी खीर है। भोर का सपना किसी चुनावी घोषणा-पत्र जैसा हो सकता है। आम जनता की तरह कभी-कभी कवि भी भोर का सपना देख लेता है। वैसे सपने आने का कोई निश्चित समय नहीं होता और सपना भी सुहावना हो, इसकी कोई निश्चितता नहीं होती। वैसे भी किसी भी जमाने में कुछ भी निश्चित नहीं रहा, क्योंकि समय को बांधकर रखा नहीं जा सकता। फिर भी कुछ सनकी किस्म के लोग समय को अपनी पकड़ में रखने का दावा करते हैं। बड़ी-बड़ी दलीलें उनके दिमाग की गुल्लक में समायी रहती हैं। इसे वे अपनी अनुभूतियों और अभिव्यक्तियों का विस्तार मानते हैं।
चुनावी घोषणा-पत्र दूर के ढोल सुहावने जैसा होता है, ऐसा कुछ खुराफाती लोग मानते हैं। उधर चुनावी घोषणा-पत्रों के सौदागर इसे क्रांति की संज्ञा देते हैं। कहा जाता है कि आजकल क्रांति में तकनीकी तौर पर नैतिक होना अनिवार्य नहीं होता। राजनीति को तो इस दुनिया को बनाने और चलाने वाला भी समझ नहीं पाया। ऐसा माना जाता है कि प्रभु ने जब यह दुनिया बनाई, तो उन्होंने आदमी को दी जाने वाली सभी वस्तुओं और अन्य सुख-सुविधाओं के साथ ‘किन्तु’, ‘परन्तु’ भी लगा दिया, क्योंकि मनुष्य की सभी इच्छाएं पूर्ण करना उनके बस की बात नहीं थी। लेकिन आजकल की चुनावी घोषणाओं से लगता है कि नेता लोग अब सुपरगॉड बन चुके हैं। चुनाव हो जाने तक उम्मीद की सोन-चिड़िया हर वोटर के नाम लिख रहे हैं। 
चुनाव में विजय की आकांक्षा सभी पाल रहे हैं। स्वार्थ और घृणा से कलुषित अपनी आत्माओं के भीतर झांकने का उपक्रम उन्हें अच्छा नहीं लगता। वोटर उनके मनपसंद खिलौने बन गये हैं और वे उनसे खेल रहे हैं। कभी वे स्वयं ‘हो-हो’ करते हैं और कभी जनता को हंसाने का कोई नया ढंग खोज लेते हैं। छल-कपट और षड्यंत्रों को लाक्षागृह बनाने में उन्हें महारत है। बुद्धिजीवियों तक की खोपड़ी हिल जाती है और उन्हें कोई समझ नहीं पाता।
घोषणा-पत्रों का मंत्रोच्चार बड़ी श्रद्धा से किया जा रहा है और सभी अंतर्विरोधों की नदी में डुबकी का आनन्द ले रहे हैं। भोर का सपना फलदायी ही हो, घोषणा-पत्रों की नैतिकता की तरह, यह यक्ष-प्रश्न सदा अधर में लटकता रहता है। भोर का सपना प्राय: छलावा ही निकलता है जगने पर!
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