गिरमिटिया संस्कृति के आभूषण

जिन्हें भाषा का ज्ञान नहीं, वे नई भाषा के सृजन का श्रेय लेते हैं। गालियों की भरमार भरी अपनी नई रचना से नये युग का दरवाज़ा खोल देते हैं। फूहड़ता को अपना बल और आपकी विनम्रता को कमज़ोर बताते हैं। कभी क्रांतिवाद युग धर्म था। आज क्रांति परिसर तो रियायती सेलों के हवाले कर दिये गये। खुद अपने आप को जंगल बेले से लौट कर अध्यात्म का सरताज बता एक नया रास्ता निकाल लिया।
वे दिन गये जब मियां खलील फाख्ता उड़ाया करते थे। अब तो इन्हें कबूतर और फाख्ता का अन्तर समझाना पड़ता है। फिर भी नयी उम्र के ये नये बूढ़े परिन्दे समझा देते हैं, ‘देखो बंधु, सफलता का उत्सव प्रदर्शन नकली जवानियों के गिर्द मंडरा रहा है। तुम्हारे लिये तो समय-समय पर अपना नया झण्डा फहरा देना काफी है। पहले कैलेण्डर बदलने के साथ शौकीन लोग नये प्रेम का घण्टा बजाते थे। आजकल प्रेम से लेकर शृंगार रस की कोई बात कोई नहीं करता। आजकल तो अपने भूतपूर्व की गिनती बढ़ा कर तू ‘नहीं और सही’ का नया बसन्त पेश कर दिया जाता है।  
केवल प्रेम ही क्यों, राजनीति के श्री चार सौ बीस के पीपली नगर ने यह पहचान हासिल कर ली है, कि उसके इस पीपली नगर में कोट ही कोट भरे नज़र आते हैं। आजकल कोट की तरह पार्टी बदलने का रिवाज़ हो गया है। यहां कोट बदलते ही उम्मीदवार कुर्सी की ओर दौड़ लगाते हैं। इसे हथिया लेना ही उनके लिये अकाट्य सच है। कई बार कुर्सी दौड़ का मार्ग तय करते हुए कई पार्टियां भी नये कोट की तरह बदल जाये तो चिन्ता नहीं। अब तो कोट बदलने को पार्टी बदल जाने का मौसमी मिजाज़ भी नहीं कहा जाता। पहले पार्टी बदलते हुए क्रांति और बदलाव का हवाला दे दिया जाता था। अब जब पार्टियां बदलने का रिवाज़ मौसमी बुखार हो गया है, तो ऐसी हालत में यह बुखार चढ़ा उतरा क्यों? इसकी भला क्या सफाई। हां, अपने चेले चांटों का भी थोक में स्थानांतरण इस पार्टी बदलाव का राजघोष हो गया है। भला ऐसी हालत में जो जितनी भीड़ एक पार्टी से भगा कर दूसरी में लाये, उतनी ही बड़ी कुर्सी पाये। चुनावों के करीब यह मौसमी बुखार हर उस नेता को हो जाता है, जिसे पिछली पार्टी ने टिकट नहीं दी, और नई ने यह उपहार दे उसके गले में हार पहना दिया।
लेकिन केवल टिकट से वंचित हो जाना ही समुचित कारण नहीं। अब तो टिकट मिलने के बावजूद नेता लोग पार्टियां बदलते नज़र आते हैं, कि नया सौ दिन, पुराना चार दिन। उनसे यह न पूछ लेना कि आपने किस नये चिन्तन के दबाव में पार्टी छोड़ी? यहां चिन्तन नहीं, अपने परिवार के लिए भविष्य का रास्ता हमवार करने की चिन्ता है। ‘आया राम गया राम’ कह उन्हें न कोई नकारता है, न उनका खण्डन मण्डन करता है। बस ग्लोबल वार्मिंग और पर्यावरण प्रदूषण से जैसे आजकल मौसम में अकल्पनीय परिवर्तन होते हैं, वैसे ही नेताओं का पार्टीनुमा हुलिया भी बदलता रहता है। जन-सेवा के मुखौटे के बीच स्व-सेवा छिपी है। सबकी गरीबी दूर करने के स्थान पर अपनी गरीबी दूर करने का भागीरथ प्रयास है। अपने इलाके में अपना दबदबा दिखाने का अर्थ है, किसने अपने हक में कितना बड़ा हुल्लड़ करवाया। हुल्लड़, अगर दंगे में तबदील हो जाये तो यह आपके महा-बली हो जाने की सूचना है।
महाबलियों की इस दुनिया में जनता वह बूढ़ा घोड़ा है, जिसका जीवन बदल देने के नाम पर हर दल-बदलू अपनी सवारी गांठ लेता है। न गांठ सके तो अपनी पराजय को ‘गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ए-जंग में ’ कह कर आत्म-स्वीकृति कोई नहीं देता। बस शत्रु की विजय धांधलियों की उपज है, भ्रष्टाचार का उपहार है, धोखाधड़ी का बाज़ार है। हम इससे बड़ा बाज़ार सजा कर दिखायेंगे कि घोषणा के साथ कल का पराजित आज का विजेता हो जाता है। मैदान-ए-जंग से जो हारता नज़र आता है, वह परम भ्रष्टाचारी है, उसकी जगह सलाखों के पीछे है। वे सलाखें कि जिनके पीछे कल के महामना को बन्द करने की न कोई अपील है, न दलील है। आपने अपने सतयुग में जिस व्यक्ति को महाकलयुगी घोषित किया था, वही आज अपना वक्त आ जाने पर आपके सतयुगी चेहरे पर कालिख पोत युग बदल जाने का दावा पेश करता नज़र आता है। 
यहां सत्ता की लड़ाई किसी जन-संघर्ष से नहीं उपजती। यह तो इस चातुर्य में निहित है कि आप कितनी जल्दी विपक्षी की चौसर उलटा सकते हैं। कुर्सी की दौड़ ‘म्यूज़िकल चेयर’ का खेल हो गया। हर चक्कर के बाद एक कुर्सी उठा दी गई। जीत कर वही सिकन्दर हुआ, जो अपने आगे चलते व्यक्ति को लंगड़ी मार कर उसकी कुर्सी पर जा बैठा।
कुर्सियों की छीन झपट केवल राजनीति तक ही सीमित न मानना। आज तो यह कला क्षेत्र से लेकर धर्म क्षेत्र तक का शृंगार भी हो गई है। जो अपने लिये जितना ऊंचा चिल्ला सके, उसकी शोभा उतनी ही ज्यादा है। केवल राजनीति और समाज विजय की धक्कमपेल में ही नहीं, साहित्य और कलाक्षेत्र का मील पत्थर बनने में भी।
लोगों ने अपने-अपने कन्धों पर अपना-अपना मील पत्थर उठा रखा है। जहां अवसर मिला, उसे जमा कर विजय गर्व से मदमाने लगे। इसमें उनकी जन-सेवा उपकार सेवा हो गई है। विद्धत्ता छद्म डिग्रियों की बांदी हो गई है, और माथे का चंदन गले का अभिनंदन और पुष्पित सम्मान सिफारिशी हो गया है। इस नये तंत्र में पुस्तक संस्कृति की मौत हो गई है। ललित कलायें एब्सर्ड हो गई हैं। संगीत भोथरा और बेसुरा हो गया है। तो क्या? अरे भाई इसे ही तो ज़माने के साथ बदल जाना कहते हैं। इस गिरगिटिया संस्कृति के सरताज आज उपलब्धियों का उत्सव मना रहे हैं, और सदी-दर-सदी वंचित प्रवंचित लोगों की भीड़ से हमदर्दी जता अपना इहलोक सुधारते हैं, परलोक को अपना मित्र बताते हैं।