देश के लिए संकट बनते खर्चीले चुनाव

केंद्र सरकार में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 2024 का लोकसभा चुनाव लड़ने से इन्कार कर दिया है। उन्होंने कहा कि उनके पास चुनाव लड़ने के लिए धन नहीं है। यह भी कहा कि उन्हें इस बात को लेकर भी मलाल है कि चुनाव में समुदाय व धर्म जैसी चीज़ों को जीत तय करने का आधार बनाना पड़ता है। इसलिए मैंने चुनाव लड़ने से मना कर दिया है। सीतारमण कई बार लोकसभा का चुनाव लड़ने के अनुभव से गुजर चुकी हैं। इसलिए वह जो कह रही हैं, उसमें सच्चाई है। हम देख भी रहे हैं कि अनैतिक रूप से कमाए गए धन और बेहिसाब पूंजी ने चुनावी खर्च इतना बढ़ा दिया है कि आम आदमी तो छोड़िए मध्यम वर्गीय व्यक्ति का भी चुनाव लड़ना मुश्किल है। वैसे चुनाव आयोग ने लोकसभा उम्मीदवार को 95 लाख रुपये तक खर्च करने की छूट दी हुई है, लेकिन हम सब जानते हैं कि करीब आठ विधानसभाओं में लड़े जाने वाले इस चुनाव में यह राशि ऊंट के मुंह में ज़ीरे के बराबर है। वास्तविक खर्च इससे कई गुना अधिक होता है। प्रत्याशी और दल तो चुनाव में धन खर्च करते ही हैं, सरकार को भी चुनाव कराने में बड़ी धनराशि खर्च करनी पड़ती है। इसलिए खर्च के इस छुटकारे का उपाय एक साथ चुनाव बनाम संयुक्त चुनाव में देखे जा रहे हैं। संभव है 2029 का चुनाव इसी प्रणाली से हो?   
यदि लोकसभा, विधानसभा, नगरीय निकायों और पंचायतों के चुनाव एक साथ होते हैं तो मौजूदा लम्बी चुनाव प्रक्रिया के चलते मतदाता में जो उदासीनता छा जाती है, वह दूर होगी। एक साथ चुनाव में वोट डालने के लिए मतदाता को एक ही बार घर से निकलकर मतदान केंद्र तक पहुंचना होगा। अतएव मतदान का प्रतिशत बढ़ जाएगा। यदि यह स्थिति बनती है तो चुनाव में होने वाले सरकारी धन का खर्च कम होगा। 2019 के आम चुनाव में करीब 60,000 करोड़ रुपये खर्च हुए थे, जबकि 2014 में इसके आधे 30 हजार करोड़ रुपये खर्च हुए थे। 2024 के चुनाव में एक लाख करोड़ रुपए से अधिक खर्च होने की उम्मीद है। गैर-लाभकारी संगठन सेंटर फॉर मीडिया स्टेडीज (सीएमएस) के अध्ययन के अनुसार 2019 का आम चुनाव दुनिया में सबसे महंगा चुनाव रहा है। इस चुनाव में औसतन प्रति लोकसभा क्षेत्र 100 करोड़ रुपये खर्च हुए। एक तरह से यह खर्च एक मत के लिए 700 रुपये बैठता है। यह खर्च केवल चुनाव कार्यक्रम की घोशणा होने के बाद का है। कई उम्मीदवार जिनका लड़ना तय होता हैए वह साल-छह माह पहले से ही चुनाव की तैयारियों में लग जाते हैं। इस खर्च को अध्ययन में शामिल नहीं किया गया है। यदि लोकसभा क्षेत्र की बात करें तो 75 से 80 सीटें ऐसी थीं, जहां प्रत्याशी विशेष ने 40 करोड़ रुपये से भी अधिक खर्च किए। यह चुनाव आयोग द्वारा प्रत्याशी के लिए तय की गई खर्च की अधिकतम सीमा से 50 गुना से भी अधिक है। 2019 में खर्च की अधिकतम सीमा 70 लाख रुपये थी।  यदि एक साथ चुनाव होते हैं तो राजनीतिक दल और प्रत्याशी को भी कम धन खर्च करना पड़ेगी। दरअसल अलग-अलग चुनाव होने पर हारने वाले कई प्रत्याशी एक बार फिर किस्मत आजमाने के मूड में आ जाते हैं। विधायकों को भी लोकसभा चुनाव लड़ा दिया जाता है। ऐसी स्थिति में जो सीट खाली होती है, उसे फिर से छह माह के भीतर भरने की संवैधानिक बाध्यता के चलते चुनाव कराना पड़ता है। नतीजतन जनता के साथ-साथ प्रत्याशी को भी चुनाव प्रक्रिया से जुड़ी उदासीनता झेलनी पड़ती है। इस कारण सरकारी मशीनरी की जहां कार्य संस्कृति प्रभावित होती है, वहीं मानव संसाधन का भी हृस होता है। 
भारत की भौगोलिक स्थिति के अनुरूप चुनाव को देखें तो इनमें अनेक मतदान केंद्र ऐसे होते हैं, जहां मतदानकर्मियों को पालतू मवेशियों और नावों में चुनाव सामग्री लाद कर ले जानी पड़ती है। ऐसे में प्रति मतदाता चुनाव का औसत खर्च 700 रुपये तक बैठता है जबकि देश की साठ फीसदी आबादी बमुश्किल औसत 250 रुपये प्रतिदिन कमा पाती है। ऐसे में बार-बार चुनाव में खर्च निश्चित ही एक चिंता का विषय है। सरकारी खर्च के अलावा प्रत्याशियों को टीवी, रेडियो, सोशल मीडिया और अखबारों में विज्ञापन पर बड़ा खर्च करना पड़ता हैं। वाहन, भोजन, पोस्टर-बैनर और नेताओं के लिए जुलूस व आम सभाओं पर भी बड़ा खर्च होता है। यदि इन प्रत्यक्ष खर्चों के अलावा अप्रत्यक्ष खर्चों को देखें तो शराब, वोट के बदले नोट और उपहार के रूप में कोई वस्तु देने पर भी बड़ा खर्च प्रत्याशियों को उठाना पड़ता है। चुनाव में होने वाली खर्च की बड़ी राशि को सार्वजनिक नहीं किया जाता क्योंकि तय राशि से अधिक खर्च आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन होगा। इसके बावजूद उम्मीदवार और दल बेहिसाब धन खर्च करते हैं। निर्वाचन आयोग में पंजीबद्ध दलों के प्रत्याशी चुनावी सुविधाओं के लिए डमी उम्मीदवार निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में खड़े करते हैं। 
आगामी लोकसभा चुनाव में उम्मीदवार के लिए यह राशि 95 लाख रुपये के लिए कर दी गई है। इसी तरह विधानसभा चुनाव के लिए प्रत्याशी अधिकतम चालीस लाख रुपये खर्च कर सकता है। वहीं छोटे राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों में लोकसभा उम्मीदवार के लिए खर्च की सीमा 75 लाख रुपये और विधानसभा उम्मीदवार के लिए 28 लाख रुपये है।   
ऐसे में एक साथ सभी चुनावों को संयुक्त रूप में करा दिया जाए तो एक प्रत्याशी को कई सीटों पर या बार-बार चुनाव लड़ने के विकल्प समाप्त हो जाएंगे और धन की बर्बादी नहीं होगी। 

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