आखिर इतनी खराब कैसे हो गयी धरती की आबो-हवा

धरती बीमार है। यह शब्द हम पिछले दो दशकों से सुन रहे हैं। लेकिन अब यह शब्द धरती की सेहत का हाल नहीं बताता। क्योंकि धरती अब बीमार नहीं, आईसीयू में हैं। किसी भी दिन ब्रह्मांड के इस सबसे खूबसूरत ग्रह की मौत हो सकती है। लेकिन सवाल ये है कि आखिर लगातार पर्यावरण वैज्ञानिकों की चेतावनियों और हर गुजरते दिन के साथ बिगड़ती आबोहवा के बावजूद आखिर हम धरतीवासियों ने इसकी इतनी उपेक्षा क्यों की? धरती एक दो नहीं पर्यावरण सुरक्षा के 7 बिंदुओं को पार कर चुकी है। दूसरे शब्दों में हम खतरे के 7 बैरियर्स तोड़ चुके हैं और खतरनाक तरीके से 8वें के तोड़ने के नज़दीक पहुंच गए हैं। यहां तक पहुंचने के बाद ज्यादातर पर्यावरण वैज्ञानिकों को उम्मीद नहीं बची कि फिर से हम उस साफ और शुद्ध वातावरण का कभी एहसास कर सकते हैं, जो कभी धरती की खूबी थी। दुनिया के 40 वरिष्ठ पर्यावरण वैज्ञानिकों की मानें तो धरती में करीब 5 लाख से ज्यादा जीव प्रजातियां पिछले कुछ दशकों में लुप्त हो चुकी हैं। हजारों वनस्पतियां गायब हो चुकी हैं। धरती का समूचा मौसम पैटर्न बदल चुका है। सबसे भयावह बात यह है कि इतनी खराब स्थिति के बावजूद हर साल आज भी पृथ्वी में 15 अरब से ज्यादा पेड़ काटे जा रहे हैं।
सवाल है आखिर हम सब कुछ जानते हुए भी इतने निष्ठुर कैसे हो गए? सब कुछ देखने समझने के बावजूद आखिर हमने धरती को बचाने की ईमानदार कोशिश क्यों नहीं की? धरती आखिर इतनी बीमार कैसे पड़ गई जबकि पर्यावरण वैज्ञानिक लगातार चीख चीखकर धरती की सेहत का हाल हमें बता रहे थे? पर्यावरण पर काम करने वाले संगठन यूरो न्यूज की मानें तो हम मनुष्यों ने अपने छोटे-छोटे फायदों के लिए मनुष्य जाति के साझे भविष्य को भयानक संकट के हवाले कर दिया है। धरती में इंसान का जीवन अब खतरे से घिर गया है। यूरो न्यूज की वैज्ञानिक टीम द्वारा किये गये एक विश्लेषण के मुताबिक, ‘पिछले दो दशकों से लगातार आगाह किए जाने वाले के बावजूद हम नियमित रूप से गर्म से गर्मतर हो रहे तापमान की तरफ बढ़ रहे हैं।’ इस पर 40 अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के वैज्ञानिकों की एक टीम ने पर्यावरण के मसौदे पर दुनिया के सभी देशों की चालाक रणनीतियों से क्षुब्ध होकर पहली बार अपने अध्ययन निष्कर्ष को धरती के स्वस्थ जीवन के संबंध में इस इंसानी हरकत को न्याय की कसौटी पर कसने और परिभाषित करने की कोशिश की है। मतलब यह कि वैज्ञानिक कह रहे हैं कि धरती के साथ अन्याय करने वाले देशों को इसकी सजा मिलनी चाहिए। क्योंकि अपने निजी हितों की दुहाई में दुनियाभर के ताकतवर देशों ने धरती की विभिन्न जातियों, समुदायों, लिंगों को प्रलय के दरवाजे पर ला खड़ा किया है।
हालांकि यह शोध पिछले साल का है और वैज्ञानिकों के इस अंतर्राष्ट्रीय समूह ने अपनी यह तीखी टिप्पणी नेचर जर्नल में प्रकाशित भी करवाया था। वैज्ञानिकों के मुताबिक धरती के सहन करने की जो 7 सीमाएं थीं, वो थीं- बिगड़ती जलवायु, जहरीली होती वायु, रासायनिक उर्वरकों का अंधाधुंध इस्तेमाल, पानी का फास्फोरस और नाइट्रोजन से प्रदूषण, भूजल का खात्मा, ताजे पानी का मनमानी दुरुपयोग और मानव निर्मित भू-वातावरण। वैज्ञानिकों के मुताबिक सबसे खतरनाक सीमा वायु प्रदूषण की थी। आखिरकार धरती जैसे संवेदनशील ग्रह की हवा के जहरीली होने की एक सीमा थी। लेकिन लगातार वैज्ञानिकों के आगाह किए जाने के बाद भी हवा को जहरीले बना रहे संगठनों, संस्थानों के कानों में जूं तक नहीं रेंगी। क्योंकि हवा को जहरीला बना रहे लोगों को राष्ट्रवाद के नाम पर ताकतवर देशों का संरक्षण हासिल था। स्वीडन स्थित वैज्ञानिकों के इस समूह ने माना है कि धरती के संयम और उसकी सहन करने की एक सीमा थी, लेकिन धरती के साथ अन्याय करने वालों, खिलवाड़ करने वालों ने इस सीमा की लाज नहीं रखी।
इन वैज्ञानिकों के मुताबिक धरती का कोई एक छोर पृथ्वी के विरूद्ध इस अत्याचार में अकेला शामिल नहीं है। हर क्षेत्र बढ़ चढ़कर धरती को लहूलुहान करने पर तुला है। चाहे वो पूर्वी यूरोप हो, दक्षिणी एशिया हो, मध्यपूर्व हो, दक्षिण पूर्व एशिया हो, मैक्सिको हो, ब्राजील, चीन और दुनिया का सबसे ताकतवर देश अमरीका ही क्यों न हो। सभी ने धरती की सेहत के साथ बेहद गंभीर खिलवाड़ किया है। आज स्थिति यह है कि पृथ्वी का लगभग दो तिहाई हिस्सा मीठे पानी के सुरक्षा मानदंडों को पूरा नहीं करता। हम सब पढ़ते हैं, सुनते हैं, देखते हैं, इस सबके बावजूद अब हममें कोई फर्क नहीं पड़ता। दिल्ली में यमुना पहले कभी कभार प्रदूषित झाग से आच्छादित रहती थी, अब साल के ज्यादातर समय न केवल यमुना का पानी बेहद प्रदूषित रहता है बल्कि यह सब बेहद घिनौने रूप में भी दिखता है, लेकिन अब किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। लोग अब भी यमुना को पवित्र मानते हुए झाग को इधर-उधर करके डुबकी लगा आते हैं। वाशिंगटन विश्वविद्यालय में जलवायु और सार्वजनिक स्वास्थ्य के प्रोफेसर और 40 वैज्ञानिकों के इस साझे अध्ययन के निकाले गये निष्कर्षों के सहलेखक क्रिस्टी एबी ने कहा है, ‘अगर इंसानी शरीर के अंगों की भाषा में समझें तो पृथ्वी के ज्यादातर अंग फेल हो चुके हैं।’
एम्स्टर्डम विश्वविद्यालय में पर्यावरण की प्रोफेसर और पृथ्वी आयोग की सह-अध्यक्ष जोइता गुप्ता मीडिया वालों के एक समूह से कहती हैं, ‘अगर धरती की सालाना जांच हो तो डॉक्टरों को आश्चर्य होगा कि इतनी बीमार धरती आखिर जिंदा कैसे है?’ सचमुच धरती बहुत बीमार है, लेकिन दुनिया को कुछ फर्क नहीं पड़ता। वैज्ञानिकों का कहना है अब बहसों का कोई फायदा नहीं। बीमार धरती की सेहत में कोई सुधार तभी हो सकता है, जब हम तुरंत कोयला, जीवाश्म ईंधन (डीजल पेट्रोल) और प्राकृतिक गैसों का उपयोग बंद कर दें, जो कि संभव नहीं लग रहा। जर्मनी के पोट्सडैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेंट इम्पैक्ट रिसर्च के निदेशक और इस अध्ययन के प्रमुख लेखक जोहान रॉक स्ट्रम कहते हैं, ‘हम मूलत: सभी मामलों में गलत दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।’ जबकि इसी क्रम में येल यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ एन्वार्यनमेंट के डीन एंडी बर्ग कहते हैं, ‘ये अध्ययन बेहद सम्मोहक और उत्तेजक है। क्योंकि यह अध्ययन धरती ग्रह की उन सीमाओं को सही से समझ रहा है, जिनकी हम सरहद पर आ गये हैं। सब कुछ बेहद डरावना है।’
धरती के इन सबसे कुशल 40 वैज्ञानिकों ने पृथ्वी ग्रह को सुरक्षित रखने और जो मौजूदा भयावह स्थिति है, इससे आगे न बढ़ने देने के लिए अब भी सरकारों को ईमानदारी से काम करने के लिए कहा है। रॉक स्ट्रम के मुताबिक, ‘एक सुरक्षा बाड़ स्थायी रूप से किसी देश के लोगों की सुरक्षा नहीं होती।’ धरती बेहद बीमार है, अंतिम सांसें गिन रही हैं, अगर अब भी धरती के लोग इसकी सेहत से चिंतित नहीं होते, तो दुनिया के पर्यावरण को बचाने का कोई भी दूसरा उपाय नहीं है।


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