हमारे अनमोल रत्न

आज दादा-दादी, नाना-नानी दिवस पर विशेष

जिंदगी में इन्सान के जन्म लेते ही रिश्ते उससे जुड़ जाते हैं, रिश्तों की गरिमा, उनकी गहराई, उनकी अहमियत बड़े होते-होते और निभाते-निभाते समझ आती रहती है। 
हमारी संस्कृति, हमारा सभ्याचार हमें अपने रिश्ते मां-बाप, मासी, भूआ, मामा आदि यह सूचि जोकि बहुत लम्बी है, के साथ शुरू से अपनी जड़ों की तरह जुड़ने और ज़िंदगी भर दु:ख-सुख में साथ देने की प्रक्रिया सिखाता है। सबसे महत्वपूर्ण रिश्ता मां-बाप का होता है। इन्सान बड़े होने तक माता-पिता रूपी वट-वृक्ष की छांव तले पलता है और ज़िंदगी चलती रहती है।
‘मूल नालों ब्याज प्यारा’ यह कहावत हम सभी सुनते आए हैं। इस कहावत का वास्तव में तब पता चलता है, जब जिस रिश्ते पर यह कहावत बनी है, उस रिश्ते में प्रवेश होते हैं। जी हां, हम बात कर रहे हैं दादा-दादी और नाना-नानी की।
आज जो हमारे माता-पिता, सास-ससुर हैं, वे समय के साथ दादा-दादी और नाना-नानी बन जाते हैं। इस रिश्ते की तरक्की की खुशी मां-बाप से ज्यादा दादा-दादी और नाना-नानी को होती है।
बच्चे से लेकर बड़े होने तक इन्सान का दादा-दादी और नाना-नानी के साथ अलग और अनोखा लगाव होता है। जो बच्चे संयुक्त परिवार की छत के नीचे बड़े होते हैं, उनकी शख्सियत पर बड़े होने तक दादा-दादी और नाना-नानी की शिक्षाओं का प्रभाव कुदरती रूप में पड़ता रहता है और इसी प्रभाव तले वे दुनिया को देखते हैं। भाव बच्चों की बुद्धि और मानसिकता के विकास पर दादा-दादी और नाना-नानी का सकारात्मक प्रभाव होता है।
यह रिश्ता खून और इतिहास का होता है। एक परिवार की परम्परा, उनकी संस्कृति की परवरिश से दादा-दादी और नाना-नानी बच्चों को अवगत करवाने का अहम काम करते हैं। उनकी ज़िंदगी के अनुभव, सूझ-बूझ, ज्ञान का भण्डार, जो बच्चों के साथ सांझा करते हैं, वह बच्चे के भविष्य के लिए हमेशा के लिए छाप छोड़ जाता है। जो प्यार, मेल-मिलाप और ध्यान दादा-दादी और नाना-नानी द्वारा बच्चों को मिलता है, उससे बच्चा सुरक्षित महसूस करता है।
आजकल ज्यादातर माएं भी नौकरी करती हैं, खारतौर पर बड़े शहरों में, जहां मां-बाप रोज़ी-रोटी कमाने में लगे हुए हैं। मां-बाप तनाव-मुक्त होकर तभी काम कर सकते हैं जब उनको पता हो कि पीछे बच्चा सुरक्षित हाथों में है। अकेले सहायकों के पास भी बच्चों को छोड़ना आसान नहीं होता। ऐसे घरों में दादी-नानी की भूमिका और भी महत्वपूर्ण बन जाती है। मां-बाप से भी ज्यादा दादी और नानी बच्चों का ध्यान रखती हैं।
हमारा सभ्याचार, पुरातन चीज़ें, गांवों का जीवन आदि, इन सब बातों की जानकारी आजकल की पीढ़ी मां-बाप से नहीं, दादा-दादी या नाना-नानी से लेती है।
दादा-दादी, नाना-नानी वे हैं जो पिछले समय की पीढ़ी के होने के बावजूद भी अपने आधुनिक युग के पौत्र-पौत्री, नाती-नातिन के साथ आधुनिक बन जाते हैं। नई पीढ़ी द्वारा दिए जाते आधुनिक और नये सुझावों को अपनाते हैं। चाहे फैशन के साथ संबंधित हों, चाहे यंत्रों के साथ संबंधित हों।
वे अपने आप को इसलिए ढालते हैं ताकि वे अपनी नई सोच वाले पौत्र-पौत्री, नाती-नातिन से दूर नहीं होना चाहते और उनके साथ हमेशा घुल-मिल कर रहना चाहते हैं।
जो बच्चे दादा-दादी और नाना-नानी के साये में बड़े होते हैं, वे ज़िंदगी की चुनौतियों और अविश्वासों का इस लगाव के सहारे मुकाबला करना सीखते हैं। मां-बाप के अलावा जब बच्चों को भी ज़िंदगी के किसी मोड़ पर दिशा-निर्देश की ज़रूरत होती है, तो वे दादा-दादी और नाना-नानी के पास सुख और रहनुमाई के लिए पहुंचते हैं। वे अपनी ज़िंदगी के अलग अनुभवों के साथ बच्चों का मार्ग-दर्शन करते हैं और बच्चों में जागरूकता पैदा करते हैं।
विशेषज्ञों के अनुसार जो बच्चे अपने दादा-दादी या नाना-नानी के करीब होते हैं, उनके भावनात्मक विचार ज्यादा अच्छे होते हैं, जिससे बच्चों के सामाजिक और अकादमिक परिणाम अच्छे होते हैं।
प्रतिदिन की कहानियां सुन कर, अनुभव सांझे करके दादा-दादी और नाना-नानी की प्रतिदिन की ज़िंदगी की कुर्बानियों, त्याग के बारे जान कर कि कैसे वे अपने ज़माने की पिछड़ी दुनिया में भी पैदल चल कर मंज़िल तक पहुंचे, यह सुन कर और अनुभव करके वे बच्चों के रोल माडल बन जाते हैं और सूझ-बूझ के स्तम्भ और सहारे का सूत्र बन जाते हैं।
क्योंकि वे अपने बच्चों की ज़िंदगी से वाक़िफ होते हैं, इसलिए वे मां-बाप का स्वभाव, उनके प्रतिदिन का काम, उनके हालात मन में रख कर पौत्र-पौत्री, नाती-नातिन के साथ उसी के अनुसार व्यवहार करते हैं।
जो भूमिका दादा-दादी और नाना-नानी बच्चों की ज़िंदगी में अदा करते हैं, वह मां-बाप भी कर नहीं सकते। कई बार मां-बाप छोटी-छोटी बात पर दादा-दादी या नाना-नानी को टोकने लग जाते हैं, मसलन हमारे बच्चों को यह क्यों दिया, इस भाषा में बात कैसे की, बच्चा गेम क्यों खेल रहा है, आदि। मां-बाप को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि यदि दादा-दादी या नाना-नानी हमारे बच्चों की परवरिश पर ध्यान रखते हैं तो थोड़-बहुत बच्चों को अधिक लाड-प्यार करना उनका अधिकार भी है। बच्चों के दादा-दादी या नाना-नानी को बच्चों के मामले में कभी भी टोकना नहीं चाहिए, क्योंकि उनको मां-बाप बने बहुत लम्बा समय हो गया होता है, उनका अनुभव बोलता है।
आज जो व्यवहार हम बच्चों के दादा-दादी या नाना-नानी के साथ करेंगे, जिस तरह का मेल-मिलाप उनके साथ रखेंगे, उनका बुढ़ापे की अवस्था में जितना ध्यान रखेंगे, वही सब हमारे बच्चे सीखते हैं और कल उसी तरह का व्यवहार मां-बाप के साथ दोहरा सकते हैं।
किसी ज्ञानवान ने कहा है, ‘हमारा अपने मां-बाप के साथ किया गया व्यवहार हमारे द्वारा लिखी वह किताब होता है जो हमारे बच्चे हमें पढ़ कर सुनाते हैं।’
अक्सर बच्चे मां-बाप की डांट से बचते हुए बातें छुपा कर दादा-दादी या नाना-नानी की बुक्कल का सहारा लेते हैं, उनको अपनी ढाल बनाते हैं, बच्चों के कोमल मन में दादा-दादी या नाना-नानी के लिए जो विश्वास होता है, उसकी मां-बाप को कद्र करनी चाहिए। एक सर्वेक्षण के अनुसार जो बुजुर्ग अपने पौत्र-पौत्री, नाती-नातिन के साथ व्यस्त रहते हैं, उनकी आयु लम्बी, ज्यादा तसल्ली वाली होती है और इस आयु में भी वे ज्यादा स्वस्थ रहते हैं। मन में चुस्ती और फुर्ती रहती है।
किस्मत वाले हैं वे बच्चे जिनको दादा-दादी, नाना-नानी से प्यार मिलता है, जो इनकी छत्रछाया में बड़े होते हैं, चाहे वे दूर भी रहते हों, उनके पास जाने की, मिलने की इच्छा बच्चों को हमेशा रहती है। बच्चों को कभी भी उनके प्यार से दूर न करो, बल्कि खुल कर साझ बना लेने दें। यह ज़िंदगी का तेज़ रफ्तार समय कब व्यतीत होता है, पता नहीं चलता। फिर सिर्फ दादा-दादी और नाना-नानी के घर की, कमरे की, उनकी चीज़ों, उनकी कहानियों की यादें ही रह जाती हैं।
परमात्मा के आगे हमेशा अरदास करें कि यह ज़िंदगी के हमारे ये खज़ाने दादा-दादी और नाना-नानी हमेशा स्वस्थ रहें और अपने बच्चों को भी हमेशा यह शिक्षा दें कि दादा-दादी और नाना-नानी को हमेशा मां-बाप से भी पहल देनी है। इस अनमोल खज़ाने को, प्यार-सम्मान के साथ संभालें, जिन्होंने अपने बच्चों को दुनिया में खड़े होना सिखाया। अब मां-बाप, पौत्र-पौत्री और नाती-नातिन की बारी है कि जो खुशियां दादा-दादी, नाना-नानी चाहते हैं, वे उनको उपलब्ध कराई जाएं।