‘महाभारत’ सीरियल के असल नायक राही मासूम रज़ा
‘मैं समय हूं ...’ पौराणिक महाकाव्य पर बने कालजयी धारावाहिक ‘महाभारत’ के इस डॉयलॉग को कौन भूल सकता है। लेकिन यह डॉयलॉग शायद कभी न लिखा जाता क्योंकि इसके रचयिता ने इस धारावाहिक को लिखने से मना कर दिया था। निर्माता बी.आर. चोपड़ा ‘महाभारत’ की पटकथा व डॉयलाग लिखवाने के लिए डा. राही मासूम रज़ा के पास गये थे, लेकिन अपनी अत्यधिक व्यस्तता के चलते राही ने उनके साथ काम करने से इंकार कर दिया था। चोपड़ा कुशल निर्माता निर्देशक थे, इसलिए अच्छी तरह से जानते थे कि किस आदमी से कैसे काम निकलवाया जा सकता है। इस अदा में उनका अपना पत्रकारिता का अनुभव भी खूब काम आता था। उन्होंने एक तरकीब निकाली। प्रेस कांफ्रैंस का आयोजन करके घोषणा कर दी कि ‘महाभारत’ को डा. राही मासूम रज़ा लिख रहे हैं। फिर क्या था, चोपड़ा के पास देशभर से पत्रों का अम्बार लग गया, जिनका सार था- ‘सारे हिन्दू मर गये हैं क्या, जो आप एक मुस्लिम से महाभारत लिखवा रहे हैं।’
चोपड़ा ने इन सभी पत्रों को एकत्र किया और राही के घर जाकर उनकी मेज़ पर पटक दिया। राही की इस कमज़ोर नस को चोपड़ा खूब समझते थे कि वह भारतीय संस्कृति व सभ्यता के बड़े पैरोकार हैं और इस संदर्भ में अपने से बड़ा ज्ञानी किसी को नहीं समझते हैं। पत्र पढ़ते ही राही भड़क गये और बोले, ‘चोपड़ा साहब, महाभारत तो अब मैं ही लिखूंगा। मैं गंगा का बेटा हूं ... मुझसे ज्यादा भारत की संस्कृति व सभ्यता को कौन जानता है।’ चोपड़ा का तीर निशाने पर लगा। राही ने अपनी कलम से जादू कर दिया और अतीत को वर्तमान से ऐसा जोड़ा कि ‘महाभारत’ धारावाहिक की सफलता के असल नायक खुद ही बन गये।
राही हमेशा से ही विद्रोही तेवर के थे। 1975 में जब देश में इमरजेंसी लगी तो कुछ अपवादों को छोड़कर सारे पत्रकार व लेखक उस समय की सरकार की जी हुजूरी में लग गये थे। फिल्म राइटर्स एसोसिएशन पर भी इमरजेंसी के पक्ष में प्रस्ताव पारित करने का दबाव था। राही अकेले फिल्मी लेखक थे जिन्होंने इस प्रस्ताव का विरोध किया और उससे मानने से साफ इंकार कर दिया। जो अन्य लेखक प्रस्ताव से सहमत नहीं थे वह या तो खामोश रहे या बैठक से ग़ैर-हाज़िर। राही को भी सुझाव दिया गया कि वह बैठक से वाकआउट कर जाएं ताकि प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हुआ दिखाया जा सके। लेकिन राही ने ज़ोर दिया कि उनके विरोध को बाकायदा दर्ज किया जाये। राही पर गिरफ्तारी का खतरा बढ़ गया था, लेकिन न जाने क्यों पुलिस उनके दरवाज़े पर कभी नहीं आयी।
राही का विद्रोही स्वभाव तो ऐसा था कि उन्होंने अपने पिता बशीर हसन आब्दी के विरुद्ध ही चुनाव प्रचार किया क्योंकि वह कांग्रेस के टिकट पर थे और वामपंथी होने के कारण राही कामरेड पब्बर राम का समर्थन कर रहे थे। राही ने अपना सामान उठाया और कम्युनिस्ट पार्टी के ऑफिस में रहने चले गये। भूमिहीन पब्बर राम ने ज़िले के सबसे मशहूर वकील को भारी मतों से पराजित कर दिया था। राही का जन्म 1 अगस्त, 1927 को गाज़ीपुर के गांव गंगौली में हुआ था, जिसके पास से गंगा नदी निकलती है। इसलिए वह ख़ुद को गंगापुत्र कहते थे। जब वह 11 वर्ष के थे तो उन्हें टीबी हो गई थी, जिसका उस ज़माने में कोई खास इलाज न था। इसलिए स्वच्छ हवा के लिए उनका अपने कमरे तक सीमित रहना मजबूरी थी। उस समय का राही ने सदुपयोग किया और घर में रखी सब किताबें पढ़ डालीं। राही की सेवा के लिए कल्लू काका नामक एक सेवक को रखा गया था, जो उन्हें कहानियां सुनाया करते थे। राही ने एक इंटरव्यू में बताया कि अगर कल्लू काका न होते तो वह शायद कोई कहानी या उपन्यास न लिख पाते। राही को पढ़ाने के लिए मौलवी मुनव्वर को रखा गया था, जो पढ़ाते कम व पीटते ज्यादा थे। इस पिटाई से बचने के लिए राही अपना जेब खर्च मौलवी मुनव्वर को दे देते थे। इससे राही को पैसा तुरंत खर्च करने की आदत पड़ गई- ‘मैं डरता हूं कि अगर पैसा खर्च न किया गया तो मौलवी साहब झपट लेंगे।’
राही की एक टांग में पोलियो का असर था। इसलिए वह थोड़ा लंगड़ाकर चलते थे। नफीस उर्दू और अच्छी भोजपुरी बोलने वाले राही की खास अदा थी कि वह घर में कुर्ता पायजामा पहनते, लेकिन घर से बाहर कदम रखने पर हमेशा क्रीम कलर की शेरवानी, अलीगढ़ कट पायजामा व काला चश्मा में निकलते। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने के कारण उन्होंने यह वेशभूषा अपनायी हुई थी। सैंकड़ों कहानियां, दर्जनों उपन्यास लिखने व 300 से अधिक फिल्मों में अपने कलम से योगदान देने वाले राही एक साथ कई पटकथाओं पर काम करते थे। शायर मजाज़ के बाद राही अलीगढ़ विश्वविद्यालय की सबसे लोकप्रिय शख्सियत रहे, विशेषकर लड़कियों में। इन्हीं लड़कियों में एक नैय्यरा भी थीं, जिनसे राही ने शादी की। हालांकि राही का उपन्यास ‘आधा गांव’ अधिक चर्चित है। तीन मांओं- नफीसा बेगम, अलीगढ़ विश्वविद्यालय व गंगा- के बेटे राही का 15 मार्च 1992 को मुंबई में निधन हो गया।
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