जम्मू-कश्मीर में बेहद उत्साहित हैं मतदाता !

चनापोरा श्रीनगर का एक विधानसभा क्षेत्र है। शाम के सात बज चुके हैं। आसमान में अंधेरा छाने लगा है। लोग अपने काम से लौट आये हैं। संभवत: रात्रिभोज से भी फारिग हो गये हैं; क्योंकि कश्मीर घाटी में जल्दी खाना खाने का चलन है। दो-दो, चार-चार की टोलियों में लोग सड़क के किनारे बैठे या खड़े हुए हैं। बातचीत का मुख्य विषय जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव ही है, विशेषकर इसलिए भी कि दस साल बाद ये चुनाव हो रहे हैं। लोगों में चुनाव को लेकर जो उत्साह व जोश दिखायी दे रहा है, वह दशकों बाद उनके चेहरे पर लौटा है। यही वजह है कि ‘जम्मू-कश्मीर अपनी पार्टी’ के प्रमुख अल्ताफ बुखारी घर-घर जाकर चुनाव प्रचार कर रहे हैं, लोगों से मिल रहे हैं, उन्हें अपनी पार्टी के उद्देश्यों व कार्यक्रमों के बारे में बता रहे हैं। घर-घर मतदाताओं से मुलाकात करने का यह सिलसिला बुखारी आधी रात तक जारी रखेंगे। यह सिर्फ चनापोरा की चुनावी तस्वीर नहीं है बल्कि पूरे जम्मू-कश्मीर में यही नज़ारा देखने को मिल रहा है। हद तो यह है कि स्वतंत्र प्रत्याशी भी चुनाव प्रचार की यही रणनीति अपनाये हुए हैं। मसलन, कुलगाम में आज़ाद उम्मीदवार सयार अहमद रेअशी को घर-घर जाकर चुनाव प्रचार करते हुए देखा जा सकता है। 
जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनावों में शाम के प्रचार व घर-घर जाकर प्रत्याशियों का मतदाताओं से मिलना, इस सबकी 1987 के चुनावों के बाद वापसी हुई है, जो जम्मू-कश्मीर के बदले हुए हालात की कहानी बयां कर रहा है। बावजूद इसके कि आतंकी गतिविधियों में कोई कमी नहीं आयी है। लगता है कि अवाम हालात में बदलाव चाहता है, अमन और अपनी चुनी हुई सरकार चाहता है। अवाम के इस विश्वास से कोई खिलवाड़ नहीं होना चाहिए, उसे ईमानदारी से अपनी सरकार चुनने देनी चाहिए यानी ऊपर से उस पर कुछ थोपा न जाये, तब ही जम्मू-कश्मीर में स्थायी शांति की संभावनाएं बढ़ सकती हैं। गौरतलब है कि 1987 में फारूक अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रैंस की सरकार बनाने के लिए चुनावी नतीजों में धांधली की गई थी। लगभग सभी विपक्षी नेताओं को ‘अलगाववादी’ घोषित करके जेल में डाल दिया गया था, जिसका नतीजा यह निकला कि सरकार व अवाम के बीच फासला बढ़ गया और नवम्बर 1987 में आतंकवादियों की बंदूक से पहली गोली निकली जिसका सिलसिला कई दशक बाद भी जारी है। 
बहरहाल, इस बार मतदान (18 व 25 सितम्बर, 1 अक्तूबर 2024) से पहले मतदाताओं में जो शांति की चाहत व चुनावों के प्रति उत्साह है, वह जम्मू-कश्मीर में कदम रखते ही एकदम साफ महसूस किया जा सकता है। अब वह स्थिति नहीं है कि जब एक प्रत्याशी को ज़बरदस्त सुरक्षा उपलब्ध करानी पड़ती थी और वह फासले से वोटर्स को संबोधित करता था। अब तो प्रत्याशी मतदाताओं से हाथ मिला रहे हैं, अपने समर्थकों से गले मिल रहे हैं और डाउन टाउन घाटी के चुनावी क्षेत्रों में भी देर रात तक घर-घर जाकर अपना चुनाव प्रचार कर रहे हैं, जबकि यह क्षेत्र कभी बंदूकों के साये में रहा करता था। पूर्व एमएलसी व श्रीनगर ईदगाह सीट से पीडीपी के उम्मीदवार खुर्शीद आलम कहते हैं, ‘पहले तो हम सूरज डूबने से पहले ही घर लौट आते थे। तब बहुत खतरा था। अब तो रात 12 बजे तक प्रचार का सिलसिला चलता है।’
इस परिवर्तन का एक प्रमुख कारण यह भी है कि इस बार किसी भी संगठन ने चुनाव के बायकाट की घोषणा नहीं की है। बायकाट की धमकी होती थी तो डर व्याप्त हो जाता था। बदला हुआ मूड वोटर्स की बातों से भी ज़ाहिर हो रहा है। कुलगाम में गफ्फार गनी कहते हैं, ‘जिन लोगों में पहले संकोच व डर था, अब वे खुल कर नेताओं का अपने घरों में स्वागत कर रहे हैं। ये लोग उन्हें कहवा पेश कर रहे हैं और आशीर्वाद भी दे रहे हैं। पिछले लगभग चार दशकों के दौरान इस स्तर का चुनावी उत्साह अप्रत्याशित है।’ दोनों समय के अंतर को उजागर करते हुए गनी कहते हैं, ‘प्रत्याशी पहले घर-घर जाकर चुनाव प्रचार करने से डरते थे कि कहीं उन पर पथराव न हो जाये; क्योंकि आतंकी संगठन ही नहीं बल्कि हुर्रियत की तरफ से भी चुनाव बायकाट की घोषणा की जाती थी। अब लोग घर से बाहर निकल रहे हैं, अपने मुद्दे व परेशानियां सीधे प्रत्याशियों को बता रहे हैं।’
कश्मीर घाटी में घूमते हुए, लोगों के जोश को देखते व महसूस करते हुए ऐसा लगता है कि इस बार ज़बरदस्त मतदान होगा। पिछले लगभग चार दशकों के दौरान तो मतदान केंद्रों पर बमुश्किल ही वोटर देखने को मिलते थे। परिवर्तन की यह लहर 2024 लोकसभा चुनाव में भी दिखायी देने लगी थी, जब श्रीनगर सीट पर 38.5 प्रतिशत मतदान हुआ था, जोकि 1987 के बाद सर्वाधिक था। इस चुनाव का एक अन्य नुमायां पहलू है— नये चेहरों की उपस्थिति। जम्मू-कश्मीर का 2019 में विशेष दर्जा समाप्त होने के बाद पहली बार प्रतिबंधित जमात-ए-इस्लामी के समर्थन से 90 सीटों में से 7 पर आज़ाद उम्मीदवार मैदान में हैं। जमात-ए-इस्लामी का कहना है कि वह ‘चुनावी धांधली’ की वजह से चुनाव से अलग रहती थी। चूंकि जमात-ए-इस्लामी का कैडर चुनाव लड़ रहा है, इसलिए उस पर से प्रतिबंध हटाने की मांग तेज़ होती जा रही है, विशेषकर पीडीपी की तरफ से। लेकिन केंद्र सरकार के सूत्रों का कहना है कि ये दोनों अलग मुद्दे हैं— ‘जमात-ए-इस्लामी पर प्रतिबंध उसके अलगाववादी एजेंडा के कारण है ...और प्रतिबंध जारी रहेगा।’ 
बहरहाल, अन्य नये उम्मीदवारों में शामिल हैं एजाज़ अहमद गुरु, जोकि मुहम्मद अफज़ल गुरु के भाई हैं, जिन्हें 2013 में संसद पर हमला करने के आरोप में फांसी दी गई थी। एजाज़ सोपोर से आज़ाद उम्मीदवार हैं और अपने प्रचार अभियान में स्थानीय मुद्दे उठा रहे हैं जैसे बेरोज़गारी व युवा पुनर्वास। वह सोपोर के विकास को प्राथमिकता देना चाहते हैं। नये चेहरों में बारामूला से सांसद अब्दुल राशिद शेख उर्फ इंजीनियर राशिद की पार्टी, अवामी इत्तेहाद पार्टी (एआईपी) के 19 प्रत्याशी भी मैदान में हैं। राशिद को अपनी पार्टी का चुनाव प्रचार करने के लिए हाल ही में अंतरिम ज़मानत मिली है। वह टेरर फंडिंग केस में दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद थे। चूंकि बारामूला लोकसभा चुनाव में राशिद ने पूर्व मुख्यमंत्री व एनसी के उपाध्यक्ष उमर अब्दुल्ला को पराजित किया था, इसलिए घाटी में यह आरोप भी गश्त कर रहा है कि राशिद भाजपा की ‘बी टीम’ हैं और उन्हें भाजपा से अंदरूनी सांठ-गांठ के तहत चुनाव प्रचार के लिए जेल से बाहर निकाला गया है। 
यह अनुमान इसलिए भी गश्त कर रहा है क्योंकि भाजपा के टॉप नेताओं का अनुमान यह है कि जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस सहित कोई भी पार्टी सरकार बनाने की स्थिति में नहीं होगी; क्योंकि सात स्थानीय पार्टियां व आज़ाद उम्मीदवार मज़बूत चुनावी स्थिति में हैं। जम्मू क्षेत्र में अपने दबदबे को कायम रखते हुए भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरेगी और वह दूसरी बार जम्मू-कश्मीर में सरकार बना लेगी। भाजपा का कहना है कि उसका राशिद से कोई लेना देना नहीं है। उन्हें अरविंद केजरीवाल की तरह ही अदालत ने अंतरिम ज़मानत दी है। इस पूरे विवाद पर राशिद की खामोशी ने रहस्य को अधिक गहरा दिया है, लेकिन इससे जम्मू-कश्मीर के अवाम में चुनावी उत्साह कम नहीं हुआ है, जो नतीजों के बाद भी कायम रह सकता है बशर्ते कि कोई खिलवाड़ न किया जाये।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर