नया परिवार
(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)
जैसा तुमने गेट पर नाम देखा था, यह बंगला किसी बड़े सेठ धनपतराय का है जिसके बारे में बाद में पता चला कि उसके कई शहरों में बंगले हैं, वैसे रहता इन दिनों मुंबई में है। पिछले छ: महीनों से तो यहां न वह आया न उसने किसी को भेजा।
-लगता है पिछली बार जाते समय वाशरूम के दरवाजे पर ताला लगाना भूल गया। इसी से हमें एंट्री मिल गई।
यह कहकर जोसफ हंसने लगा और इस पूरी स्थिति के अजूबेपन पर सुरेश को भी हंसी आ गई।
-इसी वजह से मैं बिजली की रोशनी करता नहीं हूं व बैटरी से चलने वाले टेबल लैंप व पंखे से काम चला लेता हूं। कूड़े को पेड़ के नीचे चुपके से गड्डे में दबा देता हूं।
-आप काम कहां करते हो?
-अरे भाई पटरी पर ही छोटा-मोटा सामान बेचता हूं, जिसे रात को एक दुकानदार के पास रखवा देता हूं। अकेले कई बार मुश्किल होती है, तुम भी थोड़ी बहुत मदद कर दिया करो। अकेला ही हूं, अत: ज्यादा खर्च भी नहीं है। बंगला वैसे ही फ्री में मिला हुआ है।
वह दोनों फिर हंसने लगे और फिर सो गए।
अगले दिन से सुरेश ने घर और पटरी की दुकान, दोनों जगह जोसफ की मदद शुरू कर दी। दोनों एक साथ निकलते और एक साथ लौटते। पटरी के काम से जैसे ही फुरसत मिलती, सुरेश कुछ होटलों में काम की तलाश भी करता रहता। परिवार में उसने फोन कर बता दिया था कि वह ठीक-ठाक है, पर अपना पता बाद में भेजेगा।
उनकी दुकान पर छोटा-मोटा सामान खरीदने एक आकर्षक युवती आती थी जिसका नाम स्टेला था। जोसफ को पहले से अंकल कहती थी, अब सुरेश से भी अच्छा परिचय हो गया था। वह जब भी दुकान पर आती थी, सुरेश को बहुत सुहावना सा लगता था।
फिर अचानक उसका आना बंद हो गया। कोई दो महीने तक वह नज़र ही नहीं आई। जोसफ ने तो कोई विशेष ध्यान नहीं दिया, पर सुरेश की नज़र तो इंतजार में जैसे पथरा सी गई।
फिर एक दिन वह आई तो बहुत घबराई हुई, व वह भी लंगड़ा कर चलते हुए।
-अंकल, आप हमें पॉलीथीन शीट उधार पर दे सकते हैं। जल्दी से जल्दी मैं पैसे चुका दूंगी।
-हां, हां बेटी क्यों नहीं। पर तुम इतनी घबराई हुई क्यों हो?
-उफ क्या बताऊं अंकल मेरे पांव में फ्रैक्चर हो जाने से मैं जिस होटल में डांस के लिए जाती थी, वहां जा नहीं सकी। मकान मालिक को किराया नहीं दे सके, तो उसने हमें बाहर कर दिया। अब मम्मी वहां धूप में बैठी हैं, मैं कुछ पॉलीथीन ढूंढने निकली हूं ताकि पेड़ों के बीच हम थोड़ी सी छाया कर एक-दो दिन तो काट सकें, फिर शायद कोई और इंतजाम हो सके।
-पर बेटी, एडवांस किराए के बिना कमरा मिलेगा नहीं, और बाहर तो एक दिन भी रहना खतरनाक है।
-पर करें क्या अंकल, मजबूरी है।
जोसफ ने दो मिनट सोचा, फिर कहा आप अपनी मम्मी से सलाह कर बताओ कि क्या जब तक दूसरा इंतजाम न हो, तब तक हमारे साथ रह सकती हैं।
-ओह अंकल यह तो बहुत ही अच्छा होगा। इसमें मम्मी से क्या पूछना है? वे तो मुझसे भी ज्यादा परेशान हैं। उन्हें तो बहुत रिलीफ ही मिलेगी।
खैर, यही तय हुआ कि अपना थोड़ा सा ज़रूरी सामान लेकर 2-4 दिनों के लिए यह दोनों महिलाएं भी जोसफ और सुरेश के साथ रहने को चलें, शेष सामान आस-पड़ोस में कहीं रखवा दें। फिर जैसे ही नया कमरा किराए पर मिल जाएगा, तो वह शिफ्ट हो जाएंगी। इस सारी बातचीत से सुरेश बहुत खुश था।
सब तय होने पर स्टेला ने पूछा- आप दोनों कहां रहते हैं अंकल? हमारे आने से आपको कोई मुश्किल तो नहीं होगी।
-बेटी, हमारे रहने की जगह कुछ अजीब तो है, पर 2-4 दिन वहां गुजारने में तुम्हें कोई मुश्किल नहीं होगी और हमें तो खैर बिल्कुल नहीं होगी।
फिर स्टेला और उसकी मां मारिया को जोसफ ने पूरी स्थिति समझा दी। उन्हें हैरानी तो बहुत हुई, पर अब उनके पास वहां जाने के अतिरिक्त कोई विकल्प भी नहीं था।
खैर, अब चारों उसी बंगले में पहुंच गए व मां-बेटी के लिए जोसफ ने एक नया कमरा खोल दिया। अगले दिन जब जोसफ और सुरेश लौटे तो उन्हें मारिया का बनाया हुआ गर्मागर्म, कहीं अधिक स्वादिष्ट खाना तैयार मिला।
मारिया और स्टेला को थोड़ा बहुत प्रयास करने पर नया घर नहीं मिला, और ज्यादा प्रयास तो उन्होंने किया भी नहीं।
पहले मारिया और स्टेला अपने कमरे में बने रहते थे व जोसफ और सुरेश अपने कमरे में। पर कुछ समय बाद जैसे ही मौका मिलता सुरेश और स्टेला किसी कोने में जाकर बैठ जाते और न जाने क्या-क्या बातें आपस में देर तक करते रहते। बस ऐसे ही मारिया और जोसफ भी एक-दूसरे से अधिक बातें करने लगे और फिर ऐसा सिलसिला जमा कि उनकी बातें भी खत्म ही नहीं होती थीं।
अब इस बंगले में पहले जैसी वीरानी नहीं रही अपितु उनमें बहुत रौनक, नई बहार आ गई थी। सुरेश और जोसफ दोनों घड़ी देख-देख कर बेताबी से जल्दी ही दुकान पटरी से हटा देते थे क्योंकि उन्हें किसी से मिलने की बेताबी होती थी और घर पर भी कोई उनका इंतजार कर रहा होता था।
एक दिन छुट्टी के दिन चारों पिकनिक मनाने बड़े बाग चले गए। शाम तक मौज-मस्ती की। वे गप-शप कर रहे थे कि अचानक जोसफ की नज़र बेंच पर बैठी एक वृद्ध महिला पर पड़ गई। वह बहुत उदास, चुपचाप देर से बैठी थी, फिर अचानक जाने क्या हुआ कि उसकी आंखों से आंसू बहने लगे और वह उन्हें पोंछने लगी, पर आंसू आसानी से रुकते नहीं थे। (क्रमश:)