क्या कांग्रेस की तरफ झुक चुका है हरियाणा का चुनाव ?

हरियाणा की किस्मत में क्या लिखा है? क्या यह राज्य तीसरी बार भाजपा की सरकार चुनने जा रहा है? या इस बार कांग्रेस की सरकार बनेगी? प्रारम्भ में कहा जा रहा था कि हरियाणा में इस बार भाजपा तो कांग्रेस को हरा नहीं सकती। केवल कांग्रेस ही कांग्रेस को हरा सकती है। इसका मतलब यह था कि अगर कांग्रेस ने अपनी गुटबाज़ी को काबू में नहीं किया तो वह जीताजिताया चुनाव हार सकती है। मोटे तौर पर कांग्रेस में कुल पांच गुट माने जा रहे थे। भूपेंद्र सिंह हुड्डा का गुट, रणदीप सिंह सुरजेवाला का गुट, कुमारी शैलजा का गुट, किरण चौधरी का गुट और कुलदीप बिश्नोई का गुट। किरण और कुलदीप ने भाजपा का दामन थाम लिया। यानी, अब कांग्रेस में कुल जमा तीन गुट रह गये। शैलजा (लोकसभा) और सुरजेवाला (राज्यसभा) सांसद हैं। चुनाव घोषित होते ही इन दोनों ने विधानसभा चुनाव लड़ने की दावेदारी कर दी। यानी, वे भी मुख्यमंत्री बनने की दौड़ में शामिल हो गए, लेकिन कांग्रेस आलाकमान ने उनकी महत्वाकांक्षाओं पर उस समय पानी फेर दिया जब सांसदों को चुनाव लड़ने की इजाज़त देने से इंकार कर दिया गया। कांग्रेस की जो टिकट बंटे, उनके नब्बे प्रतिशत पर हुड्डा की पसंद की छाप लगी है। एक तरह से कांग्रेस की गुटबाज़ी इस समय को चुनाव को प्रभावित करने की स्थिति में नहीं रह गई है। 
इसी के साथ-साथ हरियाणा चुनाव के सिलसिले में इस समय एक दिलचस्प बहस भी चल रही है। इसका एक पहलू यह सवाल है कि आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच समझौता टूट जाने के कारण क्या भाजपा सरकार के खिलाफ एंटीइनकम्बेंसी (सरकार विरोधी भावनाएं) बिखर कर कमज़ोर हो जाएगी? कुछ लोग इस सवाल का विस्तार भी कर रहे हैं। वे एंटीइनकम्बेंसी के सम्भावित बिखराव में चौटाली परिवार की दो पार्टियों के दो दलित-आधारित पार्टियों से गठजोड़ को भी जोड़ कर दिखा रहे हैं कि ये सभी राजनीतिक ताकतें वोट काटेंगी, और इससे भाजपा को फायदा हो सकता है। इसका दूसरा पहलू है चुनावी लड़ाई में बड़े पैमाने पर बागी उम्मीदवारों की मौजूदगी। कांग्रेस और भाजपा दोनों के ही 70-70 से ज्यादा बागी मैदान में हैं, और उनमें से कई स्थानीय स्तर पर शक्तिशाली भी माने जाते हैं। अंदेशा जताया जा रहा है कि इनके कारण लड़ाई सीधे-सीधे भाजपा और कांग्रेस के बीच न होकर इतनी अधिक बहुकोणीय हो जाएगी कि एंटीइनकम्बेंसी का फेक्टर उतना प्रभावी नहीं रह जाएगा जितना समझा जा रहा है। 
इस चर्चा के केंद्र में हर तरह से ‘एंटीइनकम्बेंसी’ नामक शब्द है। यह भारतीय चुनावी राजनीति का अंग्रेज़ी भाषा में विशेष योगदान है। वरना डिक्शनरी में ‘इनकम्बेंट’ शब्द ही मिलता है न कि ‘एंटीइनकम्बेंसी’ या ‘प्रोइनकम्बेंसी’। एक तरह से अब यह विशिष्ट भारतीय अभिव्यक्ति अंग्रेज़ी की ही नहीं रह गयी है। हिंदी में होने वाली राजनीतिक चर्चाओं में भी इसका खूब प्रचलन हो चुका है। बहरहाल, सब लोग मान रहे हैं कि भाजपा सरकार के खिलाफ अच्छी-खासी ‘एंटीइनकम्बेंसी’ है। भले ही साफ तौर पर न कहा जाए पर इसका एक मतलब यह भी है कि सरकार विरोधी भावनाएं मंद या नरम न हो कर तीखी और तेज़ हवा के रूप में हैं। किसी भी समीक्षक को यह कहते नहीं सुना गया है कि यह दस साल के शासन में स्वाभाविक रूप से जमा हो जाने वाली नाराज़गी से अधिक कुछ नहीं है। स्पष्ट है कि अगर यह नाराज़गी सरकार बदलने की व्यापक भावना की हद तक चली गयी है तो भाजपा को चुनाव बचाने में दिक्कत हो सकती है। अगर ऐसी स्थिति न होती तो साढ़े नौ साल से मुख्यमंत्री चले आ रहे मनोहर लाल खट्टर को महज छह महीने पहले न हटाया जाता। आलाकमान खट्टर से नाराज़ नहीं था, वरना वह उन्हें सांसद चुनाव कर केंद्र में मंत्री न बनाता। ज़ाहिर है कि भाजपा के रणनीतिकारों ने खट्ट को हटा कर दोहरा दांव खेला। एक अलोकप्रिय चेहरा नज़रों से ओझल हो गया, और उसकी जगह एक ओबीसी चेहरे को दी गई ताकि हरियाणा को पहली बार पिछड़े वर्ग का मुख्यमंत्री देने का श्रेय लेकर इन समुदायों के वोट हासिल किये जा सकें। 
जो भी हो, यह निर्विवाद प्रतीत होता है कि हरियाणा में भाजपा ज़बरदस्त एंटीइनकम्बेंसी का सामना कर रही है। ़खराब शासन-प्रशान की आम शिकायत के साथ-साथ ‘जवान-किसान-पहलवान’ की त्रिकोणात्मक समस्या ने इसे और मुश्किल बना दिया है। जवान यानी फौज की नौकरी को बेहद प्राथमिकता देने वाले राज्य में अग्निपथ योजना से पैदा हुई गहरी कुंठा है। किसान यानी खरीद मूल्यों को कानूनी जामा पहनाने की मांग न माने जाने के खिलाफ लम्बे समय से चल रहे आंदोलन का असर है। और, राज्य की ‘पहलवान पट्टी’ (जिसमें 12 से ज्यादा निर्वाचन-क्षेत्र आते हैं) में पहलवान बेटियों के यौनशोषण के कारण हुए जंतर-मंतर आंदोलन से पैदा हुई विक्षोभ की आग जिसमें विनेश फोगट के ओलम्पिक प्रकरण ने घी डाल दिया है। जब ऐसी राजनीतिक स्थिति बनती है तो आम मतदाता सरकार के परिवर्तन के लिए वोट डालने के बारे में सोचने लगता है। फिर वह यह नहीं देखता कि पार्टी कौन सी है। वह ऐसा उम्मीदवार तलाश करता है जो सत्तारूढ़ दल को हरा सके। 
हरियाणा कांग्रेस बनाम भाजपा की द्वि-दलीय टक्कर के लिए जाना जाता है। इसलिए ऐसे उम्मीदवारों की 90 प्रतिशत संख्या कांग्रेस की तरफ से पेश किये जाने की संभावना है। परिणामस्वरूप, अगर कोई ज़ोरदार एंटीइनकम्बेंसी है, तो उससे प्रभावित वोट कांग्रेस के ध्रुव पर ही गोलबंद होंगे। कांग्रेस का कोई त़ाकतवर बागी, दलित प्रधान इलाकों में दोनों दलित-आधारित पार्टियों का स्थानीय स्तर पर लोकप्रिय कोई उम्मीदवार या आम आदमी पार्टी का कोई ऐसा ही प्रत्याशी भी ब़ाकी दस प्रतिशत निर्वाचन क्षेत्रों में ही सरकार विरोधी भावनाओं से लाभान्वित हो सकता है, लेकिन इसका लाभ भाजपा को मिले, स्थानीय स्तर की किसी पेचीदगी को छोड़कर इसकी संभावना कम से कम है। भाजपा को तो यह आकलन करना होगा कि वोटरों के जिस हिस्से को वह अपने आधार का हिस्सा मानती है उसमें इस नाराज़गी के कारण कहां-कहां क्षय हो रहा है। 
लेकिन भले ही एंटीइनकम्बेंसी परिस्थितिवश बिखराव का शिकार न बने, लेकिन प्रश्न यह है कि क्या उसे पलटा नहीं जा सकता? क्या कोई ऐसी प्रबल घटना नहीं हो सकती जिससे वोटर सरकार की खामियों को नज़रंदाज़ करके भाजपा को तीसरी बार जिता दें? भाजपा ने पिछले दस साल में ़गैरजाट वोटरों को साधने की कोशिश की है। क्या एक बार फिर वह कांग्रेस को जाटों की पार्टी करार देकर ़गैरजाट वोटों की दम पर चुनाव में वापिसी नहीं कर सकती? चुनाव में हो तो सब-कुछ हो सकता है। लेकिन आज की तारीख में उसकी संभावना नहीं दिखती। उसके बागियों में अधिकतर वही नेता हैं जिनकी दम पर गैरजाट जनाधार तैयार किया गया था। जिस तरह से टिकट बांटे गये हैं उससे नहीं लगता कि भाजपा अब उस रणनीति का लाभ उठाने की स्थिति में भी है।
 
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।