टपकेश्वर मंदिर में होते हैं भगवान शिव के साक्षात दर्शन

हालांकि मेरी बड़ी इच्छा थी कि देहरादून में शिवरात्रि के पर्व पर जो मेला आयोजित किया जाता है उसे मैं देखूं। लेकिन कुछ निजी कारणों के कारण मैं देवभूमि उत्तराखंड की यात्रा उस समय नहीं कर सका था। इसलिए जब एक सप्ताह पहले मैं देहरादून सिटी बस स्टैंड पर उतरा तो सबसे पहले मैंने टपकेश्वर मंदिर जाने का फैसला किया। यहां शिवरात्रि के अवसर पर मेला आयोजित किया जाता है, मैं यहां इसलिए भी विशेषकर जाना चाहता था कि मेरी यात्रा भगवान के दर्शन से आरंभ होगी। दरअसल मान्यता यह है कि टपकेश्वर मंदिर में सावन माह में जलाभिषेक करने से भक्तों की मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं।  बस स्टैंड से मैं एक थ्री व्हीलर में बैठ गया और लगभग 5.5 किमी का सफर करने के बाद गढ़ी कैंट में एक छोटी सी नदी के पास पहुंचा, जिसके किनारे पर टपकेश्वर मंदिर स्थित है। बस स्टैंड से यह दूरी कुछ खास नहीं है, पैदल भी इसे तय किया जा सकता था कि मोर्निंग वाक ही हो जाती, लेकिन दिल्ली से देहरादून तक के बस में सफर ने मेरे शरीर को तोड़कर रख दिया था और शिवलिंग के दर्शन से ही दिमाग व शरीर को सुकून मिलता, इसलिए थ्री व्हीलर की सवारी मजबूरी हो गई थी। भोलेनाथ के अनेक ऐसे प्राचीन मंदिर हैं, जिनका इतिहास रामायण व महाभारत काल से जा मिलता है। लेकिन इनमें टपकेश्वर मंदिर का इतिहास, महत्व व रहस्य विशेष है। संभवत: यही कारण है कि यह देहरादून का सबसे प्रसिद्ध मंदिर है।
मंदिर के मेहराबदार प्रवेश द्वार में कदम रखते ही मैं सोचने लगा कि इसका अजीब सा नाम टपकेश्वर मंदिर क्यों है? जल्द ही मुझे इसका उत्तर भी मिल गया। दरअसल, यह एक गुफा मंदिर है और इसके मुख्य गर्भगृह तक पहुंचने के लिए मुझे एक गुफा में प्रवेश करना पड़ा। सामने क्या देखता हूं कि गुफा में स्थापित शिवलिंग पर पानी की बूंदें टप टप करती हुई निरंतर गिर रही हैं। टपक का अर्थ है बूंद-बूंद गिरना। इसलिए इस मंदिर का नाम टपकेश्वर मंदिर रखा गया। वैसे मंदिर के नाम के पीछे एक पौराणिक कथा भी है। टोंस नदी (जो द्वापर युग में तमसा नदी के नाम से विख्यात थी) के किनारे पर बने इस मंदिर के बारे में, वहां मौजूद एक साधु ने मुझे बताया कि महाभारत काल में यह गुफा पांडवों व कौरवों के गुरु द्रोणाचार्य का निवास स्थान थी। इसी गुफा में उनके बेटे अश्वत्थामा का जन्म हुआ था। लेकिन नवजात शिशु को उसकी मां स्तनपान नहीं करा पा रही थीं, उनकी छाती से दूध ही नहीं उतर रहा था। द्रोणाचार्य ने भोलेनाथ से प्रार्थना की। भोले शंकर ने देवेश्वर के रूप में गुफा में दर्शन दिए और गुफा की छत पर गऊ थन बना दिया और दूध की धारा शिवलिंग पर बहने लगी। 
इसी वजह से भगवान शिव का नाम दूधेश्वर पड़ा। कलयुग में गुफा की छत से दूध की जगह पानी की बूंदें टपकने लगीं, इसलिए मंदिर का नाम टपकेश्वर मंदिर पड़ गया। अब इस मंदिर में भगवान शिव टपकेश्वर के नाम से जाने जाते हैं। टपकेश्वर मंदिर में दो शिवलिंग हैं। बताया जाता है कि दोनों शिवलिंग गुफा के अंदर स्वयं प्रकट हुए थे। मान्यता यह है कि गुफा में द्रोणाचार्य की 12 वर्ष की तपस्या से प्रसन्न होकर शिवजी ने उन्हें दर्शन दिए और द्रोणाचार्य के अनुरोध पर ही लिंग के रूप में शिव गुफा में स्थापित हुए। इसी गुफा में भगवान शिव ने द्रोणाचार्य को अस्त्र-शस्त्र व धनुर्विद्या दी थी (इसका उल्लेख महाभारत में भी है)। शिवलिंग को ढंकने के लिए 5151 रुद्राक्ष का इस्तेमाल किया गया है। इस मंदिर के पास में ही मां संतोषी की गुफा भी है। टपकेश्वर मंदिर का अपना धार्मिक व ऐतिहासिक महत्व तो है ही, लेकिन साथ ही यह जिस जगह स्तिथ है, उस स्थान को प्राकृतिक सौंदर्य का स्वर्ग भी कहा जा सकता है। मंदिर परिसर के पास अनेक झरने हैं जो इसकी खूबसूरती में चार चांद लगा देते हैं। टपकेश्वर मंदिर में शाम को जब भगवान का श्रृंगार किया जाता है तो श्रद्धालुओं की भीड़ जमा हो जाती है। 
टपकेश्वर मंदिर की एक विशेषता, जो मेरी समझ में आयी, यह है कि इसकी वास्तुकला प्राकृतिक भी है और मानव निर्मित भी। इस संगम ने इसकी सुंदरता में वृद्धि कर दी है। दो पहाड़ियों के बीच में स्थित टपकेश्वर मंदिर का द्वार सुबह 9 बजे से दोपहर 1 बजे तक और फिर 1:30 से शाम 5:30 तक खुला रहता है। तप और भक्ति की कहानी सुनाने वाला टपकेश्वर मंदिर भगवान शिव की महिमा का गुणगान स्वयं करता है। इस संदर्भ में मैंने न जाने इतना भी कैसे लिख दिया क्योंकि टपकेश्वर मंदिर के दर्शन करते समय जो मुझे अलौकिक आनंद की अनुभूति हुई उसे मेरे लिए शब्दों में व्यक्त करना लगभग असंभव है। शिवलिंग के दर्शन करते हुए मुझे लगा कि सामने साक्षात भगवान शिव हैं और मैं द्रोणाचार्य हूं। उस अनुभव का एहसास अभी तक मेरी आत्मा को प्रफुल्लित किये हुए है। 
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर