हाईकमान के पास ही रहेगी पावर भले आतिशी मुख्यमंत्री हों !

जैसा कि अनुमान था आम आदमी पार्टी के विधायक दल ने 17 सितंबर 2024 को सर्वसम्मति से 43 वर्षीय आतिशी को दिल्ली के 8वें मुख्यमंत्री के रूप में चुन लिया। सुषमा स्वराज व शीला दीक्षित के बाद आतिशी दिल्ली की तीसरी महिला मुख्यमंत्री हैं। शराब घोटाले में ज़मानत पर रिहा होने के बाद अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने की घोषणा की थी और उन्होंने 17 सितंबर को अपना त्यागपत्र लेफ्टिनेंट गवर्नर वीके सक्सेना को सौंप भी दिया। केजरीवाल का कहना है कि वह अब मुख्यमंत्री की कुर्सी पर उसी समय बैठेंगे जब दिल्ली के मतदाता विधानसभा चुनावों में उनकी पार्टी को जिताकर उन्हें ईमानदारी का सर्टिफिकेट दे देंगे। दिल्ली में अगले साल फरवरी तक विधानसभा चुनाव संभावित हैं। 
इस पृष्ठभूमि में यह अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है कि दिल्ली की नई मुख्यमंत्री को हाई-प्रोफाइल जॉब अवश्य मिला है, लेकिन अति सीमित अवधि के लिए। अगर आप दिल्ली चुनाव जीत जाती है, तो केजरीवाल ही मुख्यमंत्री की कुर्सी में होंगे। आतिशी केजरीवाल को अपना राजनीतिक गुरु मानती हैं। इसलिए केजरीवाल को सलाखों के पीछे से बाहर लाने के लिए वह ही सबसे अधिक संघर्ष/आंदोलन करते हुए दिखायी दे रही थीं। केजरीवाल भी आतिशी पर बहुत अधिक विश्वास करते हैं, इसलिए उन्हें शिक्षा व वित्त सहित काबिना में सबसे अधिक पोर्टफोलियो दे रखे थे। आतिशी की छवि भी एकदम साफ सुथरी है कि वह जनहित के लिए पूर्णत: समर्पित हैं, जो इस बात से स्पष्ट है कि ऑक्सफोर्ड से शिक्षा ग्रहण करने के बावजूद उन्होंने किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में मोटे वेतन का जॉब नहीं किया बल्कि मध्य प्रदेश के एक गांव में जाकर शिक्षा व आर्गेनिक फार्मिंग को प्रोत्साहित किया। 
उनके पति प्रवीण सिंह तो अभी तक इसी समाज सेवा में लगे हुए हैं और इतना लो-प्रोफाइल रहते हैं कि सोशल मीडिया तक पर भी उनकी तस्वीर मुश्किल से ही देखने को मिलती है। आतिशी की इसी राजनीतिक ईमानदारी के चलते गुरु को शिष्या पर भरोसा है कि समय आने पर सत्ता हस्तांतरण में कोई रुकावट नहीं आयेगी यानी झारखंड जैसी स्थिति उत्पन्न नहीं होगी। इसलिए गोपाल राय, सौरभ भरद्वाज आदि की दावेदारी को एक किनारे करते हुए आतिशी का चयन बतौर मुख्यमंत्री किया गया। बहरहाल, सवाल यह है कि आतिशी का ‘चयन’ (चुनाव नहीं) भारतीय राजनीति के बारे में क्या कहता है? ‘आप’ विधायक दल की बैठक में केजरीवाल ने आतिशी के नाम का प्रस्ताव रखा और ‘सर्वसम्मति’ से उसका समर्थन कर दिया गया। सभी राजनीतिक पार्टियों में सभी मुख्यमंत्रियों का ‘चयन’ इसी पैटर्न पर किया जाता है। सभी पार्टियों के भीतर लोकतंत्र का अभाव है, जिस पर ‘सर्वसम्मति’ का महीन पर्दा डाला जाता है। 
चूंकि आतिशी अपनी पार्टी प्रमुख की ‘विश्वासपात्र’ हैं इसलिए टॉप जॉब पाने का उनका यही मुख्य राजनीतिक गुण है। उन्हें अपनी पार्टी के विधायकों से कितना समर्थन मिलता है, यह तो वक्त ही बतायेगा; क्योंकि विभिन्न सियासी दलों में ऐसी मिसालें मौजूद हैं कि ‘सर्वसम्मति’ से किये गये फैसले बाद में महत्वाकांक्षी नेताओं की असहमति व नाराज़गी की भेंट चढ़ गये। भारत की मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों में परंपरा यह है कि एक या दो शीर्ष नेता ही मुख्यमंत्रियों का चयन करते हैं। आतिशी के संदर्भ में भी इसी पटकथा का पालन किया गया है। लोकतंत्र का तकाज़ा तो यह है कि विधायक मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में बहुमत से किसी एक का चुनाव करें। लेकिन होता यह है कि एक या दो शीर्ष नेता जिसका चयन करते हैं, उसी के नाम पर मोहर लगा दी जाती है। 
इस प्रकार के चयन से लोकतांत्रिक प्रक्रिया की हत्या हो जाती है। साथ ही इसकी वजह से प्रशासनिक गुणवत्ता व लोकतांत्रिक स्वास्थ्य प्रभावित होते हैं। इसका संबंध व्यवस्था कि अन्य खामियों से भी है जैसे पारिवारिक शासन व अपराधीकरण। इस पैटर्न की जड़ें इंदिरा गांधी युग में हैं। जब किसी पार्टी पर एक या दो नेताओं का कब्ज़ा हो जाता है, तो दीर्घकाल में उस पार्टी का स्ट्रक्चर तहस-नहस हो जाता है। देश की किसी भी पार्टी को देख लीजिये, सभी का यही हाल है। जब पार्टियों में टॉप जॉब के लिए ईमानदारी से अवसर नहीं मिलते हैं, तो प्रतिभाओं की परवरिश के लिए भी अनुकूल वातावरण नहीं रहता है। हमारे सियासी दलों को चाहिए कि वह पश्चिमी लोकतंत्रों से प्रेरणा लें। अमरीका में राजनीतिक प्रतिनिधित्व के सभी पायदानों पर प्राइमरी होती हैं, जिनमें सभी को आगे बढ़ने का समान अवसर मिलता है और यह भी सुनिश्चित हो जाता है कि आखिरकार जो आगे जाता है उसमें पार्टी के सदस्यों की भी भूमिका होती है। थोड़े से परिवर्तन के साथ यही हाल इंग्लैंड में भी है। जर्मनी में राजनीतिक पार्टियां संविधान में दर्ज कानून के अनुसार ही अपना कामकाज कर सकती हैं। 
भारत में केवल प्रक्रियात्मक लोकतंत्र है। बेहतर हो कि एक ऐसा कानून बनाया जाए कि पार्टियों के भीतर भी लोकतंत्र अनिवार्य हो। बहरहाल, पिछली बार जब केजरीवाल ने अपने पद से इस्तीफा दिया था, तो उन्होंने भारी जीत दर्ज करके मुख्यमंत्री पद पर वापसी की थी। तब से अब तक यमुना में काफी पानी व गंदगी बह चुकी है। फिर इसके ऊपर लटकी हुई है दस साल से अधिक की सरकार विरोधी लहर भी। इस सबको केवल इस्तीफा कार्ड खेलकर अनदेखा नहीं किया जा सकता। लेकिन इस्तीफे को नाटकीय अंदाज़ में लहराते हुए केजरीवाल ने प्रदर्शित किया कि जेल की रोटी ने उनके हौसले को पस्त नहीं किया है। पिछले कुछ माह ‘आप’ कार्यकर्ताओं पर भले ही भारी पड़े हों, लेकिन केजरीवाल उन्हें चुनावी जंग के लिए तैयार कर रहे हैं, उनमें ऊर्जा डाल रहे हैं और वह भी इस स्पष्ट संकेत के साथ कि ‘हाई कमांड’ के हाथों में ही चार्ज रहेगा, भले ही आतिशी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठी हों। 
हालांकि नितीश कुमार व हेमंत सोरेन का अपने तथाकथित विश्वासपात्रों से मुख्यमंत्री पद वापस पाने का अनुभव तल्ख रहा है, लेकिन केजरीवाल की स्थिति उनसे काफी भिन्न है। आतिशी से किसी भी प्रकार के विद्रोह की उम्मीद ही फिज़ूल है। वह राजनीति में अपवाद हैं; बिना किसी लालच के जनसेवा के लिए समर्पित हैं। केजरीवाल ने राजनीतिक प्रभाव भ्रष्टाचार-रोधी प्लेटफार्म की बदौलत हासिल किया है और ‘आप’ की पहचान व आकर्षण का मुख्य कारण आज भी यही है। इसलिए केजरीवाल की यह घोषणा अच्छी राजनीतिक रणनीति है कि मतदाताओं से ‘ईमानदारी का सर्टिफिकेट’ मिलने पर ही वह मुख्यमंत्री ऑफिस में लौटेंगे। उनकी यह रणनीति ठोस साबित होती है या ‘पीआर स्टंट’ (जैसा कि भाजपा का आरोप है), इस बात पर निर्भर करता है कि ब्रांड केजरीवाल कितना मज़बूत व प्रासंगिक रहता है। दिल्ली के चुनाव कब होते हैं- अपने निर्धारित समय फरवरी में या महाराष्ट्र के साथ नवंबर में इस पर भी ब्रांड केजरीवाल की परीक्षा निर्भर है। लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि बतौर मुख्यमंत्री आतिशी का प्रदर्शन कैसा रहता है। अगर वह दिल्ली के स्कूलों जैसा ही सुधार दिल्ली की प्रशासनिक व्यवस्था में ले आती हैं, जिसके लिए उनके पास समय कम अवश्य है, लेकिन इच्छाशक्ति ज़रूर है। इससे दिल्लीवासी शराब केस की अनदेखा करके आप पर एक बार फिर से भरोसा कर सकते हैं।

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