लोकतंत्र में लोग हैं वास्तविक शक्ति

आप जितने बड़े राजनीतिज्ञ हों, जितने भी शक्तिशाली हों, जितने भी भाषण रैलियां कर लें, मीडिया को भी जितना सम्भव है साध लें, लोकतंत्र में लोगों की इच्छा शक्ति ऐसा सूत्र है जो अज्ञात तरीके से कितना ही बदलाव ला सकता है। यह इस बार के आम चुनाव में पूरी तरह स्पष्ट हो चुका है। देश के 64 करोड़ मतदाताओं का सबसे बड़ा जनादेश आ गया। लगातार तीसरी बार एन.डी.ए. को बहुमत मिला है। वहीं इंडिया (विपक्ष) को नई जान मिली। परिणाम स्वरूप दस साल बाद इस देश में गठबंधन सरकार बनी, क्योंकि आशा के विपरीत भाजपा को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। सबसे चकित करने वाला बदलाव उत्तर प्रदेश में देखा गया है। भाजपा को अयोध्या सहित हिन्दू बैल्ट में 67 सीटें खोनी पड़ीं परन्तु इसके साथ ही दक्षिण में नए दरवाज़े खुले हैं। उत्तर प्रदेश को साथी ठीक ही  ‘गेम चेंजर’ कहते हैं। 2014 में नरेन्द्र मोदी को राष्ट्रीय फलक पर मान-सम्मान के साथ उत्तर प्रदेश ने बेहतर जगह दी थी। वहीं उत्तर प्रदेश इस बार आश्चर्यजनक झटका दे गया। हुआ यह कि उत्तर प्रदेश के दलितों ने बड़ी संख्या में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस को अपना समर्थन देकर राजनीतिक तस्वीर ही बदल कर रख दी। दलितों-गरीबों ने भाजपा को हराकर भाजपा की रणनीति में फिर से सोचने के सवाल खड़े कर दिए हैं। जब अभी चुनाव प्रचार शुरू ही हुआ था, भाजपा के कुछ सदस्यों ने 400 से ज्यादा सीटों की बात कहना शुरू कर दिया। ‘अब की बार चार सौ पार’ के नारे को लोकप्रिय बनाने की कोशिश की। इससे एक संदेह का वातावरण भी बना जिसका लाभ विपक्ष ने पूरी तरह से उठाया। विपक्षी दल ने इसका मतलब यह निकाला कि अगर एन.डी.ए. को 400 सीटें मिल जाती हैं तो भाजपा संविधान में बदलाव कर आरक्षण की संवैधानिक गारंटी को खत्म कर सकती है। इस संदेह ने व्यापक काम किया, पूरे भारत की दलित बस्तियों में बात सुलगने लगी। विपक्ष यह विश्वास दिला ही रहा था कि भाजपा आरक्षण छीन सकती है। प्रधानमंत्री और पार्टी के बड़े नेताओं में इसका अहसास होने लगा कि यह चाहे अफवाह हो, इसके परिणाम गम्भीर हो सकते हैं। रैलियों में इसका खण्डन भी किया गया कि भाजपा एस.सी./एस.टी., ओ.बी.सी. का आरक्षण कायम रखना चाहती है, परन्तु सन्देह का असर ज्यादा बड़ा रहा। समाजवादी पार्टी ने न सिर्फ परिणामों से चौंकाया बल्कि अखिलेश यादव को सही नेता साबित कर दिया। समय रहते उन्होंने कांग्रेस से समझौता किया। अल्पसंख्यक वोटरों को साधने में कामयाब रहे।
इस चुनाव में महंगाई, बेरोज़गारी, आमदनी जैसे पीड़ादायक मुद्दों ने भी अपनी भूमिका का निर्वाह किया। मतदाताओं ने बता दिया कि ये मुद्दे उनके लिए खास अर्थ रखते हैं। आम चुनाव ने साबित कर दिया कि जनता के लिए उसकी ज़रूरत से जुड़े मुद्दे ज्यादा मायने रखते हैं। निम्न वर्ग से जुड़ी आवाम की आय कम हुई है। महंगाई बुरी तरह से आहत कर रही है। पिछले सालों में बेरोज़गारी का सामना करना भी आसान नहीं रहा। मध्य वर्ग की परेशानियां बढ़ती गई हैं। इस सबका गुस्सा लोगों ने वोट देते हुए दिखाया। स्पष्ट है कि लोकतंत्र में लोगों की नब्ज़ पर हाथ रखना महत्त्वपूर्ण है। वह आपको बना सकती है, गिरा भी सकती है। बेरोज़गारी, महंगाई जैसे मुद्दों की उपेक्षा नहीं की जा सकती।