बजट में फंड नहीं होने से जनगणना फिर अधर में लटकी

भारत के चुनाव आयोग के पास उपलब्ध नवीनतम डाटा के अनुसार अपने देश में जो पांच सबसे बड़े लोकसभा क्षेत्र हैं, उनमें कुल मतदाताओं की संख्या 1,16,51,249 है, जबकि जो पांच सबसे छोटे लोकसभा क्षेत्र हैं, उनमें कुल 7,56,820 मतदाता हैं। अत: लोकसभा की पांच सबसे बड़ी सीटों में पांच सबसे छोटी सीटों से 15,4 गुना अधिक मतदाता हैं। आंध्रप्रदेश की मलकाजगिरी सीट पर सबसे ज्यादा (29,53,915) मतदाता हैं और लक्षद्वीप में सबसे कम (47,972) मतदाता हैं। कहीं बहुत ज्यादा तो कहीं बहुत कम मतदाताओं की स्थिति विधानसभाओं व स्थानीय निकायों की सीटों पर भी है। लोकतंत्र के लिए यह अंतर अच्छी बात नहीं है। प्रत्येक लोकसभा सांसद को लगभग समान जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करना चाहिए और यही बात विधायकों व पार्षदों पर भी लागू हो। इसके लिए हर स्तर पर न सिर्फ सीटों का परिसीमन होना चाहिए बल्कि परिसीमन नियमित एक्सरसाइज होनी चाहिए। अब तो संसद व राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीट भी (2029 से) आरक्षित कर दी गई हैं और यह प्रावधान भी परिसीमन पर ही निर्भर है। लेकिन बिना जनगणना के परिसीमन एक्सरसाइज कैसे हो पायेगी? लोकतांत्रिक सिद्धांत की बुनियाद है कि प्रत्येक व्यक्ति की वोट का वज़न बराबर हो, जोकि परिसीमन से ही सुनिश्चित किया जा सकता है और परिसीमन के लिए जनगणना आवश्यक है, जिसे अब अधिक देर तक टालना ठीक नहीं होगा क्योंकि जनगणना पर परिसीमन के अतिरिक्त भी बहुत कुछ निर्भर है। मसलन, जनगणना के अभाव में वैल्फेयर स्कीम अनुमानों पर ही कवर की जा रही हैं। 
कार ड्राइव करते हुए मेरी पत्नी को सीट बेल्ट लगाने का ख्याल उन्हीं चौराहों पर आता जहां सीसीटीवी लगे हुए हैं या ट्रैफिक पुलिस से चालान कटने का खतरा होता है वर्ना वह बिना सीट बेल्ट लगाये ही ड्राइव करने को प्राथमिकता देती है। मैं उसे अनेक बार समझा चुका हूं कि सीट बेल्ट कानून का पालन करने के लिए नहीं बल्कि अपनी सुरक्षा के लिए लगानी होती है, लेकिन वह समझने के लिए तैयार ही नहीं (वैसे भी वो पत्नी ही क्या जो पति की बात मान ले)। बहरहाल, ऐसा प्रतीत होता है कि मेरी पत्नी जैसी मानसिकता कुछ वरिष्ठ नौकरशाहों की भी हो गई है जो (प्रकाशित रिपोर्ट्स के अनुसार) कहते हैं कि हर दस साल बाद जनगणना कराने की कानूनी बाध्यता नहीं है या दूसरे शब्दों में जनगणना कराना तो (अभी हाल तक) मात्र परम्परा थी।
कानूनन लकीर के फकीर होने की दृष्टि से यह अनाम ‘वरिष्ठ नौकरशाह’ एकदम सही हैं। जनगणना कानून, 1948 कहता है कि भारत सरकार ‘जब भी आवश्यक हो या करना वांछित हो’ जनगणना नोटिफाई कर सकती है। लेकिन क्या 2021 की जनगणना इसलिए नहीं हो रही है कि भारत सरकार इसे आवश्यक या वांछित नहीं समझ रही है? सरकार ने तो जनगणना कराने का अपना इरादा मार्च 2019 में ही स्पष्ट कर दिया था, संभवत: जनगणना को आवश्यक या वांछित या दोनों समझकर। इसलिए कानून क्या कहता है वह इस समय वास्तव में एक ऐसी तार्किक भ्रांति है, जिसमें अप्रासंगिक जानकारी को प्रासंगिक जानकारी के साथ पेश किया जा रहा है ताकि प्रासंगिक जानकारी से ध्यान भटक जाये। ऐसा जानबूझकर किया जा रहा है या अनजाने में, कहना कठिन है। दरअसल, असल सवाल यह है कि 2021 की जनगणना अभी तक क्यों नहीं हुई है जबकि 2024 भी आधे से अधिक गुज़र गया है? गौरतलब है कि हाल में पेश किये गये बजट में भी जनगणना कराने के लिए धन आवंटित नहीं किया गया है, जिससे यह संकेत मिलता है कि जनगणना निकट भविष्य में तो होने नहीं जा रही है। यहां यह बताना भी आवश्यक है कि जुलाई 2020 में सरकार ने संसद को बताया था कि कोविड के कारण जनगणना संबंधी मैदानी गतिविधियों को स्थगित कर दिया गया है। इस साल फरवरी में सरकार ने फिर कहा कि कोविड के कारण जनगणना 2021 व संबंधित मैदानी गतिविधियों को स्थगित कर दिया गया है। यह बात समझ में आती है कि कोविड महामारी के दौरान जुलाई 2020 में जनगणना संबंधी गतिविधियों को स्थगित कर दिया गया था। लेकिन फरवरी 2024 में कोविड के कारण जनगणना स्थगित करने की बात समझ से बाहर है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या फण्ड के ग्लोबल सेंसस ट्रैकर से मालूम होता है कि कोविड के कारण दुनियाभर में जनगणना एक्सरसाइज प्रभावित हुई थी, लेकिन केवल तीन देशों- भारत, थाईलैंड व बोस्निया-हेज़र्ेगोविना- ने ही बिना नई तिथियां घोषित किये जनगणना स्थगित की है। 
फरवरी 2020 में तत्कालीन रजिस्ट्रार जनरल ऑ़फ इंडिया व जनगणना आयुक्त विवेक जोशी द्वारा जारी सर्कुलर में कहा गया था, ‘मकानों की स्थिति, घरों को उपलब्ध सुविधाओं और ग्रामीण क्षेत्रों में गांवों व कस्बों से लेकर शहरी क्षेत्रों में वार्डों तक मानव संसाधनों की स्थिति का बुनियादी बेंचमार्क डाटा उपलब्ध कराने का एकमात्र स्रोत जनगणना है। योजना बनाने, नीतियां गठित करने और प्रभावी जन प्रशासन के लिए केंद्र/राज्य/केंद्र शासित प्रदेशों की सरकारें जनगणना डाटा का विस्तृत प्रयोग करती हैं। इसके अतिरिक्त संसदीय, विधानसभाओं, पंचायतों व अन्य स्थानीय निकायों की सीटों के परिसीमन व आरक्षण में जनगणना का डाटा प्रयोग किया जाता है।’ गौर कीजिये कि सर्कुलर में जनगणना को इस किस्म के डाटा का ‘कोई एक स्रोत’ नहीं बल्कि ‘एकमात्र स्रोत’ बताया गया है।
यह अतिश्योक्ति नहीं है। हर महत्वपूर्ण सर्वे जैसे नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे या जिन्हें नेशनल सैंपल सर्वे आर्गेनाइजेशन आयोजित करता है, उनमें सैंपल की संरचना का आधार जनगणना डाटा ही होता है। नेशनल फूड सिक्यूरिटी एक्ट में 75 प्रतिशत ग्रामीण जनसंख्या को और 50 प्रतिशत शहरी जनसंख्या को कवर करने का प्रावधान है, लेकिन आवंटन की शर्त यह है कि लाभार्थियों को गिनने का आधार जनगणना हो, जिसका प्रासंगिक डाटा प्रकाशित हो चुका हो। जनगणना 2011 के हिसाब से यह एक्ट 81.5 करोड़ लोगों को कवर कर रहा है। अगर इसी आधार पर हिसाब लगाया जाये तो मार्च 2024 में ज़रूरतमंदों की संख्या लगभग 93 करोड़ होगी, जिसका अर्थ है कि 11 करोड़ लोगों को मुफ्त या सब्सिडी के राशन से वंचित रखा जा रहा है। 
जनगणना न कराने का एक गंभीर परिणाम यह भी हो सकता है कि जो ग्रामीण क्षेत्र शहरी हो गये हैं उन पर शासन अब भी गांवों के तौर पर ही हो रहा होगा यानी उनके पास वह इन्फ्रास्ट्रक्चर अपर्याप्त होगा, जिसकी शहरों को तो ज़रूरत होती है, लेकिन गांवों को नहीं। हर जनगणना में आबादी के नये क्षेत्र सामने आते हैं, जिनकी वजह से चुनावी क्षेत्रों का नियमित परिसीमन आवश्यक हो जाता है, जोकि नई जनगणना पर ही निर्भर है।  
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर