कोलकाता दुष्कर्म व हत्याकांड : बंगाल का पूरा सरकारी तंत्र कटघरे में

वैसे तो पिछले एक महीने में बच्चियों के साथ हुई बर्बर दुष्कर्मों ने पूरे देश को हिलाया है किंतु कोलकाता के आर. जी. कर मेडिकल कॉलेज अस्पताल की घटना ने समाज के हर वर्ग को उद्वेलित किया है। यह बिलकुल स्वाभाविक है। मेडिकल कॉलेज के अंदर एक डॉक्टर के साथ जघन्य अपराध, फिर स्वयं अस्पताल प्रशासन की भूमिका, पुलिस प्रशासन से लेकर पूरी सरकार के व्यवहार ने डर पैदा किया है। शायद पहली बार सुनने में किसी को अतिशयोक्ति लगे इस घटना के आलोक में पश्चिम बंगाल की पूरी सरकार अपराधियों और माफियाओं के वर्चस्व वाली दिखी है। 
सत्ता से जुड़ा कोई भी पक्ष मृतका के न्याय के लिए खड़ा होता नहीं दिखा। इसके विपरीत अस्पताल से लेकर सत्ता की संपूर्ण कोशिश मामले में न्याय की गुंजाइश खत्म करने तथा न्याय की मांग करने वालों को धौंस-धमकी व हिंसा से रोकने की रही है। राजधानी दिल्ली के 2012 के निर्भया कांड से तुलना करने वाले कई पहलू की अनदेखी करते हैं। उसमें पीड़िता बस में अकेलेपन की शिकार हुई, निर्जन स्थान पर उसका अर्ध मृत शरीर फेंका गया था तथा प्रशासन का व्यवहार ऐसा नहीं रहा जिस तरह हमने पश्चिम बंगाल को देखा है। उस समय भी सरकार और पुलिस प्रशासन की भूमिका किसी तरह मामले को आगे न बढने देने या बड़ा बवंडर से बचने की थी। बावजूद यह नहीं कह सकते कि घटना को दूसरा रूप देने या सप्ताह की निर्लज ताकत से न्याय की मांग को समाप्त करने की रही। ऐसे जघन्य और वीभत्स कांड पर कोई सरकार इस तरह का व्यवहार करें यह कल्पना से परे है।
अस्पताल में करीब 36 घंटे ड्यूटी करने के बाद महिला डॉक्टर वहां सो रही हो और दुष्कर्म कर उसकी हत्या कर दी जाए तो अस्पताल प्रशासन की पहली भूमिका क्या होनी चाहिए?  पुलिस को तुरंत सूचित करना, मामला दर्ज करवाना तथा परिवार को सच्ची जानकारी देकर उन्हें अस्पताल बुलवाना और साथ खड़ा रहना। कॉलेज के प्रिंसिपल संदीप घोष ने इसके उलट कुछ लोगों के साथ मिलकर इसे आत्महत्या साबित करने, परिवार को काफी समय बाद झूठी जानकारी देने और डॉक्टरों की टीमों को अलग-अलग ज़िम्मदारी देकर पूरे मामले को खत्म करने का षड्यंत्र किया। लड़की के माता-पिता को आज तक नहीं पता कि बेटी की आत्महत्या करने का फोन किसने किया। अस्पताल में आने के बाद शव देखने के लिए उन्हें 3 घंटे से ज्यादा प्रतीक्षा करनी पड़ी। बिना प्राथमिकी के और टीम बनाएं पोस्टमार्टम करना और फिर अपने नियंत्रण में ही शव दहन कर देना। इन सबको मिला दीजिए तो दुष्कर्म करने वाले से बड़ा अपराधी अस्पताल प्रशासन दिखेगा। पुलिस अस्पताल प्रशासन के निर्देशानुसार भूमिका निभाती रही। पुलिस का पहला प्रश्न यही होना चाहिए कि आरंभ में हमें सूचना क्यों नहीं दी गई और पोस्टमार्टम के बाद प्राथमिकी क्यों लिखवा रहे हैं? इसके उलट कोलकाता पुलिस आयुक्त से लेकर पूरा पुलिस विभाग घटना को रफा-दफा करने में लगा रहा। 
स्वयं मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने विरोध करने वालों के विरुद्ध मोर्चाबंदी की और उन्होंने मार्च कर विरोध भी जताया। तृणमूल कांग्रेस या सरकार के किसी प्रवक्ता ने इसका उत्तर नहीं दिया कि आखिर मुख्यमंत्री किसके विरुद्ध प्रदर्शन कर रहीं थी? उन्होंने सारी समस्या की जड़ भाजपा और वामपंथी दलों को घोषित कर दिया। उनके राज्यसभा सांसदों ने घटना की आलोचना करते हुए कुछ प्रश्न उठाएं तो उन्हें सज़ा भुगतनी पड़ी। इस तरह चारों तरफ डर और आतंक का वातावरण बनाया गया ताकि कोई विरोध करने का साहस न करे। ममता बनर्जी का सड़क पर उतरना उनके कार्यकर्ताओं, समर्थकों और प्रशासन के लिए सीधा संदेश था कि विरोध करने वाले बंगाल में उथल-पुथल मचाना चाहते हैं। इसलिए उन्हें हर हाल में रोका जाए। 
फिर कोलकाता उच्च न्यायालय ने संज्ञान लेकर सरकार को कटघरे में खड़ा करना शुरू किया तथा मामला सीबीआई को सौंपने का आदेश दिया तब भी मुख्यमंत्री की तीखी प्रतिक्रिया देखने लायक थी। उन्होंने कहा कि पुलिस ने 90 प्रतिशत जांच पूरी कर ली है इसलिए सीबीआई को दो दिनों में मामला पूरा करना चाहिए। उन्होंने चार दिन के अंदर दोषी को फांसी देने तक की भी मांग कर दी। उच्चतम न्यायालय में संज्ञान लेने के बाद वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल के साथ 21 बड़े अधिवक्ता सरकार की ओर से खड़े हैं। उनकी एक दिन की फीस कितनी होगी इसकी कल्पना करिए,आखिर वकीलों की वह टीम क्यों खड़ी हो रही है? क्या मृतका और पीड़ित परिवार को न्याय दिलाने या फिर सरकार के हर व्यवहार की रक्षा करने? उक्त अस्पताल में भारी पैमाने पर हर स्तर पर भ्रष्टाचार और अपराध के काले कारनामे सामने आ रहे हैं और लगता है जैसे ऊपर से नीचे तक पूरा गैंग इसमें सक्रिय हो जिन्हें कानून का कोई भय नहीं लगता। जिस संजय राय पर कांड का आरोप है वह सिविल वालंटियर है जिसे ममता बनर्जी ने 2011 में शासन में आने के बाद स्थापित किया।

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