दिल्ली विधानसभा चुनाव-2025 : क्या ‘इंडिया’ गठबंधन का बिखरना तय है?
आगामी 23 फरवरी, 2025 तक दिल्ली विधानसभा का कार्यकाल है, इसके पहले ही चुनाव आयोग को दिल्ली में विधानसभा चुनाव कराने होंगे। इस तरह अब बमुश्किल दो महीने और कुछ दिन बचे हुए हैं। इसका मतलब है कि इस सप्ताह या अगले सप्ताह के किसी भी दिन दिल्ली विधानसभा चुनावों की घोषणा हो सकती है। लेकिन लगता है राजधानी में विधानसभा चुनावों की औपचारिक घोषणा के पहले ही अनौपचारिक रूप से ‘इंडिया गठबंधन’ बिखर चुका है। क्योंकि दिल्ली में विपक्ष की सबसे बड़ी ताकत ‘आप’ ने 21 नवंबर से 15 दिसंबर 2024 तक चार किस्तों में अपने सभी 70 विधानसभा प्रत्याशियों के नाम घोषित कर दिये हैं। अपनी चौथी और आखिरी सूची में ‘आप’ ने 38 उम्मीदवारों के नामों की घोषणा की, जिसमें पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल नई दिल्ली से, वर्तमान मुख्यमंत्री आतिशी कालकाजी से, सौरव भारद्वाज ग्रेटर कैलाश से और सतेंद्र जैन का शकूरबस्ती से चुनाव लड़ना तय हुआ है। ‘आप’ ने इस बार अपने 26 मौजूदा विधायकों के टिकट काटे हैं और 4 विधायकों की सीट बदली है, जिसमें पूर्व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया भी शामिल हैं। मनीष इस बार अपनी पुरानी पड़पड़गंज सीट की बजाय जंगपुरा से चुनाव लड़ेंगे। जबकि पड़पड़गंज से इस बार मशहूर यूपीएससी टीचर अवध ओझा चुनाव लड़ेंगे, जिन्होंने 2 दिसंबर 2024 को ही ‘आप’ ज्वाइन की है।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि राजधानी दिल्ली में पिछले तीन बार के चुनावों के साथ कांग्रेस लगभग खत्म हो चुकी है। पहली बार साल 2013 में जब 15 सालों से दिल्ली के मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित को अरविंद केजरीवाल ने नई दिल्ली सीट से पराजित किया था, तब से लगातार दिल्ली में कांग्रेस का पतन हुआ है। साल 2013 में कांग्रेस ने 8 सीटें जीती थी, तब उसे 35 सीटों का नुकसान हुआ था और उसका वोट बैंक भी घटकर महज 11.43 प्रतिशत रह गया था, जबकि पहली बार में ही 28 सीटें जीतने वाली ‘आप’ का वोट बैंक 40 प्रतिशत था। हालांकि ‘आप’ ने अपनी सारी चुनावी मुहिम बल्कि कहना चाहिए राजनीतिक सफर की शुरुआत ही कांग्रेस के विरूद्ध की थी, फिर भी रणनीतिक दोस्ताने के तहत कांग्रेस ने ‘आप’ को बाहर से समर्थन दिया। मगर न तो मन से कांग्रेस समर्थन देना चाहती थी और न ही मन से सरकार चलाने के लिए ‘आप’ कांग्रेस का समर्थन लेना चाहती थी। ऐसे में हुआ यह कि दोनों ही पार्टियों ने अपनी-अपनी रणनीति के चलते महज 50 दिनों में यह गठबंधन तोड़ दिया। लोगों को हैरानी थी कि इतने कम समय का गठबंधन तो इसके पहले कभी दो पार्टियों के बीच नहीं हुआ।
यह दिखावे का गठबंधन था इसलिए जितना सियासी फायदा उठाया जा सकता था, दोनों ने उठाने की कोशिश की। ‘आप’ अपनी कम सीटों के कारण पहले ही मन बना लिया था कि इस पोजीशन का इस्तेमाल वह अधिकत राजनीतिक फायदा उठाने के लिए करेगी और उसने यही किया। 50 दिन के सत्ता में उसने भाजपा से ज्यादा कांग्रेस पर हमले किए और आम मतदाताओं को यह संकेत दिया कि वह भले कांग्रेस के बाहरी समर्थन से सरकार बनाया हो, लेकिन वह जिन मुद्दों और वायदों के चलते जीतकर आयी है, उसे पूरा करना उनका पहला लक्ष्य है। इसलिए ‘आप’ ने अपनी सरकार की परवाह न करते हुए कांग्रेस को हर जगह घेरने के साथ साथ यह भी संकेत दिया कि वह कुछ बड़े कांग्रेसी नेताओं पर भ्रष्टाचार के विरूद्ध मुकदमा चलायेगी। जाहिर है उस समय कांग्रेस के लिए दिल्ली में सबसे बड़ी नेत्री उनकी पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ही थीं। ऐसे में इन दोनों पार्टियों के बीच हर हाल में गठबंधन टूटना ही था। बहाना बना लोकपाल विधेयक। ‘आप’ ने सफाई दी कि कांग्रेस नहीं चाहती कि लोकपाल विधेयक मंजूर हो और दिल्ली में भ्रष्टाचार के विरूद्ध जंग लड़ी जाए।
जबकि कांग्रेस ने कहा, ‘आम आदमी पार्टी सरकार चलाने की बजाय अपनी राजनीति मजबूत करने के लिए उनके समर्थन का उपयोग कर रही है।’ बहरहाल ‘आप’ अपनी रणनीति में सफल हुई और जब 7 फरवरी 2015 को दिल्ली विधानसभा चुनाव का नतीजा सामने आया तो न सिर्फ ‘आप’ ने कांग्रेस को शून्य कर दिया बल्कि भाजपा को भी पहाड़ से उतारकर जमीन पर ले आयी। विधानसभा की कुल 70 सीटों में से 67 सीटें अकेले ‘आप’ ने जीत ली, इस तरह उसने अपनी 28 सीटों में 39 सीटों का और इजाफा किया। जबकि कांग्रेस 8 सीटों से शून्य पर पहुंच गई और भाजपा किरण बेदी के बहुप्रचारित नेतृत्व के बावजूद 32 सीटों से 3 सीटों पर सिमट गई। सिर्फ सीटों के स्तर पर ही नहीं, 2015 के चुनाव में भाजपा के 32.3 प्रतिशत मत रह गये, जबकि 2013 में उसका मत प्रतिशत 44.28 प्रतिशत था। कांग्रेस का तो वोट प्रतिशत सिर्फ 9.7 प्रतिशत ही रह गया। जबकि ‘आप’ ने 24.8 प्रतिशत और वोट हासिल करते हुए इस बार अपने मत प्रतिशत को 54.3 प्रतिशत तक पहुंचा दिया। लगभग यही कुछ स्थिति थोड़े फेरबदल के साथ 2020 में भी रही। कांग्रेस दूसरी बार शून्य पर पहुंच गई। उसके और उसके सहयोगी राष्ट्रीय जनता दल के उम्मीदवारों में से कोई भी नहीं जीत सका। कांग्रेस ने 66 सीटों और राष्ट्रीय जनता दल ने 4 सीटों पर चुनाव लड़ा था। हालांकि इस बार ‘आप’ की सीटें 67 से 5 घट गईं और 62 ही रहीं। लेकिन उसके मत प्रतिशत में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं हुआ, 54.3 की जगह इस बार उसका मत प्रतिशत सिर्फ 53.57 प्रतिशत तक गया, जो कि 0.73 प्रतिशत कम था लेकिन राजनीतिक पंडितों के बार बार आगाह किये जाने के बावजूद और प्रत्यक्ष में यह दिखने के बाद भी कि शायद राहुल गांधी समझौता चाहते हैं। फिर भी हरियाणा विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और ‘आप’ के बीच समझौता नहीं हुआ।
नतीजा यह रहा कि अंतिम क्षणों तक हर किसी की उम्मीद के बावजूद कांग्रेस हरियाणा में विधानसभा चुनाव हार गई। उसके और भाजपा के बीच मतों के प्रतिशत में सिर्फ 0.85 प्रतिशत की कमी थी, लेकिन भाजपा कांग्रेस से 10 सीटें ज्यादा जीत लिया और पिछली बार के मुकाबले उल्टे इस बार उसने 48 सीटें जीतकर विधानसभा में स्पष्ट बहुमत हासिल किया। लोग न भी कहें तो आंकड़े साफ तौर पर बताते हैं कि कांग्रेस और भाजपा के बीच इस मामूली अंतर का कारण ‘आप’ ही थी। आम आदमी पार्टी को हरियाणा विधानसभा चुनाव में हालांकि एक भी सीट नहीं मिली, लेकिन 1.46 प्रतिशत वोट हासिल करके उसने कांग्रेस का पूरा खेल बिगाड़ दिया। राजनीतिक पंडित यह भी मानते हैं कि इसके पहले ‘आप’ ने इसी तरह गुजरात और गोवा में भी जीतती हुई कांग्रेस को हार की तरफ धकेल दिया था। लब्बोलुआब यह है कि ‘आप’ की राजनीति का दिल्ली मॉडल वास्तव में कांग्रेस के विरोध पर ही निर्मित हुआ है। इसलिए ‘आप’ की सैद्धांतिक मजबूरी है कि वह बातें चाहें कुछ भी करें, लेकिन अगर मौजूदा तरह की राजनीति ही करनी है तो उसे अपने कोर दुश्मन कांग्रेस के विरूद्ध जरा भी नरम नहीं होगा। ऐसे में भला दोनों के बीच कितनी ही भावुक बातें कर ली जाएं, मगर समझौते का स्पेस कहां बनता है?
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर