पहलगाम के घटनाक्रम संबंधी कुछ सवाल !

आज मैं चर्चा करना चाहता हूं कि पहलगाम के आतंकवादी खूनखराबे के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मधुबनी बिहार में चुनावी रैली करने को प्राथमिकता क्यों दी? वे सर्वदलीय सभा की अध्यक्षता करते क्यों नज़र नहीं आये? उन्होंने बिहार में क्या कहा, क्यों कहा और जो नहीं कहा, उस सबका क्या कारण था? विचित्र बात यह है कि पाकिस्तान ने भी इस रैली की याद दिलाई। पाकिस्तान के उपप्रधानमंत्री इशाक डार अपने एटार्नी जनरल और दूसरे वरिष्ठ सहयोगियों के साथ एक प्रैस कांफ्रैंस करते नज़र आए। इसमें वे उन फैसलों की पत्रकारों की जानकारी दे रहे थे जो उनकी सिक्योरिटी कौंसिल ने लिए थे। इशाक डार ने मोदी के भाषण का जिक्र करते हुए कहा कि उन्होंने (मोदी) पहलगाम की खूनी वारदात का बदला लेने की बात तो कही है, लेकिन पाकिस्तान का नाम ले कर कहीं जिक्र नहीं किया। खास बात यह है कि यह मानने के बावजूद कि भारत पाकिस्तान का नाम अधिकारिक रूप से नहीं ले रहा है, डार और उनके साथियों ने जम कर भारत के खिलाफ बयानबाज़ी की, डींगें मारीं और यह दावा तक किया कि वे भारत के साथ चल रहे नैरेटिव युद्ध में जीत गए हैं। पाकिस्तान जिसे नैरेटिव युद्ध कह रहा है, उसमें बहुत सी फालतू और घटिया बातें हैं। इन्हें नज़रअंदाज़ करना ही ठीक होगा, लेकिन उसकी कुछ बातों का तो जवाब देना होगा। जैसे, वह कहता है कि ‘सिंधु जल संधि’ को सस्पेंड किया ही नहीं जा सकता। इसके अलावा उसने यह भी दावा किया है कि भारत ने जो एयर स्पेस बंद किया है, उससे भारत को ही आर्थिक नुकसान होगा।  
उधर विपक्षी नेता राहुल गांधी कश्मीर पहुंच गये। वहां उन्होंने फिर कहा कि वे इस मामले में पूरी तरह से सरकार के साथ हैं। वे आतंकवादी हिंसा के पीड़ितों से भी मिले, उनकी हौसला अफज़ाई की, और मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला व उपराज्यपाल मनोज सिन्हा से भी मुलाकात की। लोकसभा में विपक्ष के नेता की ये गतिविधियां प्रधानमंत्री की गतिविधियों के एकदम उलट हैं। प्रधानमंत्री बिहार में चुनावी रैली तो कर आये, रेवड़िया भी उन्होंने बांट दीं, लेकिन अभी तक वे श्रीनगर जाने का कार्यक्रम नहीं बना पाये हैं। 
मोदीजी का रिकॉर्ड यह बताता है कि वे हिंसा-पीड़ित घटनास्थलों पर जाने से परहेज़ करते हैं। मणिपुर इसकी सबसे बड़ी मिसाल है। पिछले दो साल से वहां जातीय हिंसा की आग भड़क रही है, इस विषय में मोदी सरकार के खिलाफ संसद में अविश्वास प्रस्ताव भी आ चुका है, प्रदेश में भाजपा की सरकार भी गिर चुकी है, अब वहां राष्ट्रपति शासन लगा है, पर खूनखराबे और अराजकता के शिकार मणिपुर को आज तक नरेन्द्र मोदी का इंतज़ार है। 
मोदीजी का रिकॉर्ड यह भी बताता है कि वे राष्ट्रीय संकट की घड़ियों में आम तौर पर चुप्पी साध लेते हैं। वैसे उनसे बड़ा भाषण-प्रेमी, कैमरा-प्रेमी और प्रचार-प्रेमी प्रधानमंत्री दूसरा नहीं हुआ, पर चीन द्वारा लद्दाख में हमारी ज़मीन दबा लेने और वहां काउंटियां बसा लेने की खबर हमारे विदेश मंत्रालय द्वारा दिये जाने के बावजूद आज तक मोदीजी इस पर कुछ नहीं बोले। चाहे पाकिस्तान पर अनधिकृत रूप से सरकार समर्थक मीडिया और भाजपा के प्रवक्ता बड़ी-बड़ी बातें बोल रहे हैं, पर प्रधानमंत्री चुप हैं। इसी तरह अमरीका द्वारा भारत को ‘टैरिफ किंग’ कहे जाने पर मोदीजी कुछ नहीं बोले। गुरुपतवंत सिंह पन्नू द्वारा भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल को अमरीकी अदालत में खींच ले जाने पर भी उन्होंने कुछ नहीं कहा। यह कोई छोटी-मोटी बात नहीं है। पन्नू ने तो यह भी कहा है कि जिस दिन मोदीजी प्रधानमंत्री नहीं होंगे, वह उनको भी अपने मुकद्दमे में ‘गुट’ बनाएगा।
हम सभी को मिल कर जानना चाहिए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस मुद्दे पर क्या सोचते हैं? हमें पाकिस्तान के नैरेटिव चैलेंज की फिक्र नहीं है। मोदीजी दु:ख और गुस्से की इस घड़ी में देश का नेतृत्व क्यों नहीं करते? राहुल गांधी तो कश्मीर पहुंच गये, मोदी कब पहुँचेंगे? पर जनता के सामने सरकार का नैरेटिव फिसल रहा है। भाजपा के वोटरों ने मोदीजी को वोट दिया है, अमित शाह, राजनाथ सिंह और मनोज सिन्हा को नहीं। न ही वोटरों ने भाजपा के प्रवक्ताओं और मीडिया के एंकरों को वोट दिया है। यही कारण है कि पहलगाम में जान गंवाने वाले पर्यटकों के परिजनों का गुस्सा फूट रहा है। आतंकवादी हिंसा के खून में सने पर्यटकों को एक का बात सबसे ज्यादा मलाल है कि वे पुलिस, फौज़ और सुरक्षा बलों के जिस बंदोबस्त के सहारे कश्मीर घूमने गये थे, वह वक्त पर गायब निकला। ध्यान रहे कि कश्मीर दुनिया में सबसे ज्यादा सुरक्षा तैनाती वाली इलाका है। 
एक सवाल यह भी है कि मोदीजी के दायें हाथ अमित शाह क्या कर रहे हैं? कश्मीर की सुरक्षा के इंचार्ज तो वे ही हैं। एक-एक पल कीमती है। सारा देश टकटकी लगाये मोदी-शाह की तरफ देख रहा है। आप को ध्यान है कि जीएसटी पर मोदीजी ने संसद का एक विशेष अधिवेशन बुलाया था। क्या पहलगाम का आतंकवादी खूनखराबा इस बात की मांग नहीं करता कि संसद का विशेष अधिवेशन बुलाया जाए जहां प्रधानमंत्री विपक्ष के नेता राहुल गांधी के साथ खड़े हों, और पूरे देश को भरोसा दें? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि प्रधानमंत्री प्रैस कांफ्रैंस करें और बगल में राहुल गांधी को बैठा कर राष्ट्रीय एकता का नज़ारा पेश करें? हम भला कैसे भूल सकते हैं कि जब मुंबई पर आतंकवादियों का हमला हुआ था जो तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भारी बारिश में वहां पहुंचे थे और प्रैस कांफ्रैंस की थी। क्या मोदीजी डा. मनमोहन सिंह से कोई सबक नहीं सीख सकते?
इसी महीने 6-7-8 अप्रैल को अमित शाह कश्मीर गये थे। उन्होंने मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला से बातचीत करके उन्हें विदा कर दिया, लेकिन सुरक्षा अधिकारियों को रोक लिया और उनकी बैठक की। क्या इस बैठक में कोई नया ‘स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर’ बनाया गया था, क्या कोई नया सुरक्षा प्रोटोकोल तैयार किया गय था? किसी को नहीं पता कि इस बैठक में क्या हुआ। सर्वदलीय बैठक से निकल कर आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह ने जानकारी दी है कि पहलगाम जो अमरनाथ यात्रा का बेस कैम्प था, उसे 22 अप्रैल की घटना से ठीक दो दिन पहले पर्यटकों के लिए खोल दिया गया था। क्या यह फैसला अमित शाह के साथ उसी बैठक में लिया गया था। यह सवाल है जो हर तरफ पूछा जा रहा है। हमें किसी सवाल का जवाब नहीं मिल रहा है। सरकार बिल्कुल चुप है। पाकिस्तान प्रधानमंत्री को निजी तौर पर खुल कर गाली दे रहा है, नैरेटिव चैलैंज फेंक रहा है, पर हमारे नेता कुछ नहीं बोल रहे। सब चुप हैं। केवल मीडिया आधारहीन प्रचार कर रहा है, लफ्फाजी चल रही है। हमें तथ्यों की जानकारी कैसे मिलेगी। मोदीजी देश को विश्वास में क्यों नहीं ले रहे हैं?
श्रीनगर में लम्बे समय तक चिनार क्रोप के कमांडर रह चुके सैयद अता हुसैन काउंटर इंटैलीजेंसी और काउंटर टेररिज़म के एक्सपर्ट हैं। उनका कहना है कि 1990 में जब दक्षिण कश्मीर में रोज़ आतंकवादियों के साथ 10-12 एनकाउंटर होते थे, उस हालात में वे एरिया डोमिनेशन पैट्रोल के ज़रिये हालात पर काबू पाया करते थे। जनरल अता हुसैन बताते हैं कि एरिया कोई भी हो, वहां वारदातें होती हों या न होती हों, वहां बीच-बीच में सुरक्षा बल दिखने चाहिए। अगर वे अपनी मौजूदगी दर्ज कराते रहेंगे तो आतंकवादी वहां कार्रवाई करने से पहले हमेशा सोचेंगे कि सुरक्षा सैनिक अचानक कहीं से भी आ सकते हैं। इलाका उनके रडार पर है। अता हुसैन साहब की थीसिस यह है जो उन्होंने इस दौरान सीखी कि अशांत क्षेत्र में जहां लाखों सिपाही तैनात हैं, वहां आतंकवादी ऐसे इलाके को तलाशते हैं जहां वे कम फौजी दबाव में अपनी गतिविधियां कर सकें। जैसे ही उन्हें ऐसा इलाका मिला, वे वहीं हमला करते हैं। इसलिए बहुत लम्बे अरसे तक ऐसा कोई क्षेत्र नहीं छूटना चाहिए जहां सुरक्षा बल लापता हों। पहलगाम एक ऐसा ही इलाका था, जहां से सुरक्षा तैनातगी न जाने कब से लापता थी। यही कारण है कि खूनखराबे के बाद दो घंटे तक बैसरन में लाशें पड़ी रहीं, पर पुलिस और सुरक्षा बल गायब रहे। यानी, वे न केवल नामौजूद थे, पर मौके से बहुत दूर थे।
अब राजनीति का जिक्र हुआ है तो इसकी बात कर लें। विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा सरकार ने कश्मीर का परिसीमन किया था। इसमें हथकंडा यह अपनाया गया कि हिंदू वोटरों वाले इलाकों के निर्वाचन क्षेत्र ज्यादा से ज्यादा बनाये जाएं ताकि भाजपा अधिक सीटें जीत सके। इसीलिए बकरवाल गूजरों यानी भेड़ें चराने वाले मुसलमान आदिवासियों के खिलाफ भाजपा ने ऊंची जातियों के पहाड़ियों को शेड्यूल्ड ट्राइब्ज़ का दर्जा दे कर खड़ा किया। इस प्रक्रिया में बकरवाल गूजर नाराज़ हो गये। ये गूजर लम्बे अरसे से भारतीय फौज और उसके खुफिया विभाग के लिए सूचनाओं का ज़रिया बने हुए थे। इन्हीं ने सबसे पहले करगिल के समय फौज को बताया था कि वहां बंकर में पाकिस्तानी सैनिक हथियारों के साथ छिपे हुए हैं, लेकिन वोट की राजनीति के चक्कर में भाजपा ने सीमा पर महत्त्वपूर्ण जानकारी का यह ज़रिया खो दिया। यही कारण है कि चुनाव के बाद से आतंकवादियों की घुसपैठ के बारे में जानकारियों का प्रवाह कमज़ोर पड़ा हुआ है। 
अक्षम सरकार, अक्षम खुफिया विभाग, नाकारा बंदोबस्त। इस सब की कीमत पर्यटकों ने अपने खून से चुकाई है, पूरा देश की सरकार की खोखली दावेदारियों पर जवाब मांग रहा है।   

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।

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