मिज़ाज़-पुर्सी की तलाश

हमें आजकल नये धंधों के विकास की खबरें आने लगी हैं। कौन कहता है कि देश में बेकारी एक भीषण समस्या बन गई है। बेकारी उनके लिए है जिन्हें इस बदले माहौल में कारोबार जुटाना नहीं आता। जो वही सुबह से शाम की नियमित नौकरी ढूंढते हैं। कच्ची आसामियों से पक्का हो जाने की लड़ाई लड़ते हैं, और इस लड़ाई में अपनी कच्ची नौकरी भी लुटा बैठते हैं।
किसी ज़माने में एक फिल्म देखी थी ‘रुदाली’ जिसमें किसी दुर्घटना या अयाचित देहावसान पर रोने वालियां किराये पर ले लेने की कहानी थी। जितनी बड़ी मौत उतनी ही अधिक रोने वालियां चाहिएं। जो अधिक छाती पीट कर चीख चिल्ला सके, उसे अधिक वेतन दे दो। हमारे विचार में ऐसी रोने वालियों की कमी अपने देश में पड़ जाये, तो पड़ोसी देश पाकिस्तान से ले आओ। जो आजकल अपनी शर्मनाक हार को छाती पीट-पीट कर विजय घोषित करने में कोई संकोच नहीं कर रहा। उसके मानवता से गिरे हुए इस दुस्साहस से उसकी जिन सुहागिनों की मांग उजड़ गई, जिनके घर द्वार का नामो-निशान नहीं रहा, वो तो दहाड़ें मार-मार कर रो ही रहे हैं, लेकिन वहां कुछ ऐसे लोग भी हैं जो अपनी हार को अपनी जीत बता रहे हैं। अपने नष्ट हो गए टैंकों पर हार चढ़ा विजयोत्सव मना रहे हैं। हमारे बमों से कोई नुकसान न होने का दावा करते हैं, लेकिन फिर भी अपने हवाई अड्डों की हालत उनसे देखी नहीं जाती।
यह अलग बात है कि वे इन अड्डों की नई धरती पर ब़ागबानी का नया शिगूफा छोड़ सकते हैं, क्योंकि उसके पहले धंधे आतंकवाद के ढांचे के चरमरा जाने के बाद वह अपने देश का आतंकवाद से कोई संबंध कहते थकते नहीं, और अब एक-एक मरे हुए आतंकी को कौम का शहीद बता कर उनमें एक-एक करोड़ रुपया बांट रहे हैं, लेकिन जब तक वह ढांचा पुन: नहीं खड़ा हो जाता, तब तक वह यही अतिरिक्त ब़ागबानी का धंधा अपना सकते हैं।
एक नहीं अनेक, घर नहीं देश, और देश नहीं विश्व भर में ऐसे छाती पीटने वाले धाकड़ मिल जाएंगे, जो यह कहते फिरेंगे, ‘वह तो मर रहा था, हमने उसे जिला दिया। या फेसबुक पर लाइक’ बटोरने वाले कह देंगे ‘अरे उसकी मौत पर तो कुत्ता भी न भौंकता’ ‘हम दल बांध कर चले आए तो उसकी मय्यत पर रौनक हो गई।’
अब इस मय्यत पर रौनक लगाने वालों को क्या कहिये? जंग आखिर जंग होती है, इन्सान सरहद के इस पार से मरे या उस पार से, दर्द की विरासत आंसुओं की अर्थी पर बराबर बंटती है। लेकिन इसकी परवाह किसे। अपनी मंडियां सजा कर हथियार बेचने वाले सौदागर कहते हैं, ‘हमारी एक घुड़की ने जंग रुकवा दी। नहीं तो यह मूर्ख परमाणु शक्तियां एक दूसरे का सफाया कर देतीं।’
केवल सिक्कों की भाषा समझने वाले हानि-लाभ की नाम से जीने वाले व्यापार की ताकत को जंग रुकवाने का साधन मानते हैं, और अपनी अकड़ से दुहरे हो जाते हैं।
लेकिन शान्ति की पुकार अधिक हथियार बेचने की दौड़ में लगे लोग नहीं सुन सकते। वह तो पैदा होती है बेबस नौजवानों की निर्जीव आंखों में बढ़ती स्वप्नहीनता से। खण्डहरों में बढ़ते चीत्कार में से जिन्दा रह जाने की ललक से। झोंपड़ी में पैदा एक नव-प्रसूत बच्चे को डरावने भविष्य की रुदालियां तो किलकारियों की जगह भेंट न करो। अब अगर मरते फूल फिर पैदा होना चाहते हैं, मरी हुई तितलियों के पंख फड़फड़ा रहे हैं, तो उन्हें फड़फड़ाने दो। उनके गिर्द मृत्यु राग की उन सदालियों को खड़ा रहने का पैगाम न दो, जो आपके बीमार अहं को तुष्ट करती हैं। मौत की कब्र पर कुर्सी जमा कर बैठे लोग, अपनी कुर्सियों के जिंदा रहने की दुआ मांगते हैं, क्यों उन्हें उजाड़ मरुस्थलों में ज़िन्दगी की झन्कार बन जाने का सन्देश दें, यही मरे हुओं को ज़िन्दगी बख्शने वाली मिज़ाज़पुर्सी होगी। हमें मातमपुर्सी नहीं मिज़ाज़पुर्सी चाहिए, क्योंकि उनकी बहुत-सी ज़मीनें बर्बाद हो गईं। वे उन्हें हरा भरा कह कर ब़ागबानी का नया धंधा अपने पिटे हुए कथित शूरवीरों को भेंट कर सकते हैं, लेकिन पिटे हुए लोगों को विजयी ब़ागवान बनाने के लिए उसके पास पानी कहां है? अब भारत ने तो अपना पानी देने का दया धर्म जारी रखने से इन्कार कर दिया।
इन लोगों को रुख बदलने की आदत हो गई। आप भारतीय सेना की ताब न सह कर उससे शांति कर लेने की गुहार लगाते  हो, फिर उससे मुकर जाते हो। भारत के पानी पर अपना जन्म सिद्ध अधिकार जताते हैं, पंगु अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर पानी के भारत द्वारा बन्द करने के विरुद्ध शोर-शराबा करते हो। उन मंचों पर जिनकी प्रार्थनाओं को आज कोई आदेश नहीं मानता। अरे भेजना है तो अपनी इन बिना आंसू बहा कर दहाड़-दहाड़ रोने वाली रुदालियों को इन मंचों के परिसर में भेज दो। शायद उनके कारुणिक चीत्कार उन्हें रहम की भीख दे दें।
यहां रहम कोई किसी पर नहीं करता। आजकल मानवीयता इतनी स्पन्दनहीन और संवेदना इतनी शून्य हो गई है, कि किसी दर्द भरी मौत पर भी आंसू कैमरा का फ्लैश चमकने के बाद टपकते हैं। मौत कितनी दर्द भरी है, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जाता है कि उसकी मौत के बाद कितने लोग उसके दाहकर्म पर इकट्ठे हुए। ‘चौथे पर उठाले’ की खबर कितनी अखबारों ने कितनी जगह देकर छापी? मिज़ाज़पुर्र्सी इतनी तकनीकी और रिवायती बन गई है कि उसके बंधे बंधाएं शब्द यह टटोलते हैं कि आदमी का हाल कितना बुरा हुआ, और वह दुबारा जीवन के रण क्षेत्र में कूद सकेगा कि नहीं?
आपको धीरज रखने का परामर्श देने वाले टोह लगाते हैं कि आपका धीरज न खोना कितने दिन चलेगा। वे इस जीवन की हार को स्वीकार लेने की सलाह देकर देखते हैं, कि अच्छा है, साला अखाड़े से बाहर हो जाए, तो हम भी अपनी पटरी जमाएं।

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