ऑपरेशन सिंदूर संबंधी भिन्न-भिन्न विवरण बढ़ा रहे हैं असमंजस

सरकार को स्थिति स्पष्ट करने की ज़रूरत

सोशल मीडिया पर भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर के दो वीडियो वायरल हो रहे हैं। जिनको देख कर सारा देश हैरान है। भारत का विदेश मंत्री भला ऐसी बातें कैसे कर सकता है। एक में वे कहते हुए दिख रहे हैं : एट द स्टार्ट ऑ़फ ऑपरेशन वी हैड सेंट ए मैसेज टु पाकिस्तान (हमने आपरेशन करने के शुरू में ही पाकिस्तान को बता दिया था)। कोई भी इसका हिंदी या पंजाबी मतलब समझ सकता है। इसके बाद जयशंकर कह रहे हैं कि पाकिस्तान समझ ले कि हम आंतवाद के अड्डों पर हमला कर रहे हैं न कि उसके सैन्य प्रतिष्ठानों पर। दूसरे वीडियो में एक विदेशी पत्रकार उनसे पूछता है कि व्हेयर वाज़ यूएस इन दिस प्रोसेस? (इस प्रक्रिया में अमरीका कहां था?) तो जयशंकर ताज्जुब में डाल देने वाला जवाब देते हैं कि वेल, यूएस वाज़ इन यूनाइटेड स्टेट (अमरीका अमरीका में ही था)। इसके बाद वे बिखरे हुए शब्दों और बिखरी हुई वाक्यरचना में कहते हैं कि अमरीकी विदेश मंत्री रूबियो ने मुझसे और उप-राष्ट्रपति वांस ने प्रधानमंत्री से बात की। उन्होंने पाकिस्तान से भी बात की और अन्य त़ाकतों से भी। अब विदेश मंत्री के इन वक्तव्यों का क्या मतलब निकाला जाए? ऑपरेशन सिंदूर केवल 22 मिनट चला था। अगर इस ऑपरेशन के ़खत्म होने के बाद उन्होंने पाकिस्तान को बताया था तो उनका वाक्य एट द स्टार्ट ऑ़फ के बजाय एट द ऐंड ऑ़फ से शुरू होना चाहिए था। दूसरे वीडियो से तो स्पष्ट हो जाता है कि संघर्ष-विराम में अमरीका की विशेष भूमिका थी। यानी, कश्मीर के मसले का प्रभावी तौर पर अंतर्राष्ट्रीयकरण हो चुका है। 
जो कहानियां बनी-बनाई होती हैं, उन्हें सुनाया जाता है। लेकिन कुछ कहानियां ऐसी होती हैं जिन्हें हम अपनी आंखों से न केवल बनता देखते हैं, बल्कि ़खुद भी उन्हें बनाने में भागीदारी करते हैं। इन्हें अंग्रेज़ी में नैरेटिव की संज्ञा दी जाती है। इसे ह़क़ीकत के कुछ असली और कुछ ़फज़र्ी टुकड़ों को चतुराई से इस्तेमाल करके गढ़ा जाता है। इस समय देश के भीतर और बाहर की दुनिया में भारत-पाकिस्तान के बीच हुए ़फौजी संघर्ष के बारे में एक-दूसरे के समांतर कई नैरिटव बना कर हमें थमाये जा रहे हैं। रोज़ उनमें कोई न कोई टुकड़ा जोड़ दिया जाता है जिससे वे ताज़े बने रहते हैं। इसमें दो बातें ़खास हैं। पहली, ये सभी नैरेटिव एक-दूसरे से प्रभावित हुए बिना चलाये जा रहे हैं। दूसरी, हम-सब यानी आम लोग भी कई तरह के टुकड़ों को चुन कर और जोड़ कर अपने-अपने मतलब निकाल रहे हैं। इस चक्कर में अ़फसोसनाक परिणाम यह है कि मुद्दतों बार सरकार जो नैरेटिव बनाना और अधिकृत रूप से चलाना चाह रही है, वह कौन सा है— यह समझना त़करीबन नामुमकिन हो गया है। होना तो यह चाहिए था कि कोई केंद्रीय नैरेटिव होता जिस पर लोग कमोबेश य़कीन करते। 
एक लगातार चलता हुआ नैरेटिव वह है जो हमें टीवी के व्यावसायिक ़खबरिया चैनल थमा रहे हैं। यह बेहद हास्यास्पद और अविश्वसनीय है। इन चैनलों ने संघर्ष के दौरान लाहौर पर भारत का कब्ज़ा करवा दिया था, कराची का बंदरगाह तबाह होने की ़खबर दी थी, भारतीय सेना इस्लामाबाद की तरफ बढ़ती हुई बताई गईं थीं और जनरल आसिम मुनीर को गिरफ्तार तक करवा दिया था। इस समय ये चैनल अपनी स्क्रीनों पर एक जासूसी कहानी चला रहे हैं। उन्हें इस बात की कोई ़िफक्र नहीं है कि हिसार पुलिस ने अधिकारिक रूप से इनकी कई बातों का खंडन कर दिया है। लेकिन, मीडिया के इस हिस्से को किसी बात की कोई परवाह नहीं है। इसी के समांतर एक दूसरा नैरेटिव सरकारी हस्तियों के बयानों से बन रहा है जिसे आम लोग स्वयं अपने मन में तैयार कर रहे हैं। इसमें विदेश मंत्री के कुछ वक्तव्य शामिल हैं। उनकी हड़बड़ाहट हैरत में डाल देने वाली है। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने इन वक्तव्यों का वह अर्थ निकाल कर बताया है जिस पर हिंदी-अंग्रेज़ी जानने वाले नागरिक मुस्कराने पर मज़बूर हैं। यहां सेना के प्रवक्ताओं के दावे भी हैं जिनमें से एक को तो वापिस भी लिया गया है। 
इन दोनों के समांतर एक तीसरा नैरेटिव भाजपा के ज़िम्मेदार प्रतिनिधियों के वक्तव्यों से बन रहा है। मसलन, कई बार विधायक रह चुके एक नेता ने कर्नल सोफिया कुरैशी को आतंकवादियों की बहन बता दिया। एक उपमुख्यमंत्री ने रक्षा-सेनाओं को प्रधानमंत्री के चरणों में नतमस्तक करार दे दिया। एक राजसभा सांसद ने बैसरन घाटी में मारे गए पर्यटकों की पत्नियों वीरांगना जैसे गुणों की कमी देख डाली। इन वक्तव्यों पर राजनीति से लेकर बड़ी अदालतों तक जद्दोजहद हो रही है, लेकिन बात कहीं रुक नहीं पा रही है। 
इन तीन समांतर चल रहे नैरेटिवों में भारत सरकार का अधिकृत नैरेटिव कौन सा है, यह किसी को पता नहीं है। नैरेटिवों की इस गड़बड़झाला में कांग्रेस के नेतृत्व वाला विपक्ष सरकार पर अपने सवालों की गोलाबारी कर रहा है, संसद का विशेष सत्र बुलाने की मांग कर रहा है, विपक्ष के नेता प्रभावित घटनास्थलों का दौरा कर रहे हैं। एक तरह से देखा जाए कि नैरेटिवों की इस जंग में विपक्ष का नैरेटिव भी अपनी उपस्थिति बना चुका है। सत्तापक्ष की लिये ़खतरे की घंटी बनते जा रहे इस नैरेटिव का सरकार की तरफ से औपचारिक बिंदुवार खंडन या समर्थन कब होगा, यह किसी को पता नहीं है। 
शायद इसका एक बड़ा कारण यह है कि अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारत एक ऐेसी जद्दोजहद में फंस गया है जिसके अंतिम परिणाम की फिलहाल कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। इस अनिश्चितता का पहला कारण तो डोनाल्ड ट्रम्प का रवैया है जो पहली नज़र में भले ही हास्यास्पद या अतिरेकपूर्ण लगे, लेकिन उसने भारतीय विदेश नीति को सांसत में डाल रखा है। दरअसल, ट्रम्प का अपना एक नैरेटिव है जिसमें वे दिखाना चाहते हैं कि वे केवल यूएसए को ही नहीं चलाते, बल्कि दुनिया भर उन्हीं के इशारे पर चलती है। उन्होंने स्वयं को भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर मसले की पंच की भूमिका में नियुक्त कर रखा है। दोनों के बीच परमाणु युद्ध रुकवाने के ़फज़र्ी दावे के आधार पर वे नोबेल शांति पुरस्कार का दावा भी कर सकते हैं। 
ट्रम्प के चक्कर में भारत के लिए एक मुश्किल यह हो गई है कि वह पाकिस्तान द्वारा कश्मीर के मसले का अंतर्राष्ट्रीयकरण करने के नैरेटिव को पूरी तरह से निष्फल नहीं कर पा रहा है। चीन वैसे तो अमरीका की तरह कोई नैरेटिव अलग से नहीं चला रहा है, पर वह पाकिस्तान के भारत-विरोधी नैरेटिव को मज़बूत करने में लगा हुआ दिखता है। 
यहां एक और विचित्र नैरेटिव की मौजूदगी देखी जा सकती है। इसे अंतर्राष्ट्रीय हथियार उद्योग की विभिन्न लाबियों की आपसी प्रतियोगिता ने पैदा किया है। सैन्य संघर्ष में कौन सा विमान गिरा, किसने गिराया, अब कौन सा सौदा रद्द होगा, कौन सा और किसका विमान ़खरीदा जाएगा— जैसी बातें भारतीय और गलोबल मंच पर चल रही हैं। इसके पीछे खरबों डालर के युरोपीय, चीनी, तुर्की और अमरीकी हथियार उद्योग की हथकंडेबाज़ी है। कुल मिला कर नैरेटिवों का रायता फैला हुआ है। सरकार के बहुमुखी हस्तक्षेप के बिना भ्रम की यह स्थिति दूर नहीं की जा सकती। 

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।

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