नेपाल के घटनाक्रम से चिंतित है सरकार
आज का सबसे बड़ा सोचने लायक सवाल यह है कि क्या नेपाल की घटनाओं ने भारत के सत्ता प्रतिष्ठान को डरा दिया है? इस समय हालत यह है कि सत्ताधारियों को नेपाल की घटनाओं में एक तरह की संक्रामकता दिखाई दे रही है। संक्रामकता यानी नेपाल की घटनाओं की छूत भारत के राजनीतिक घटनाक्रम को भी लग सकती या प्रभावित कर सकती है। अगर ऐसा हुआ तो नौजवानों-छात्रों ने जो प्रलय नेपाल में मचाया है, उसका दोहराव भारत में भी हो सकता है। ऐसी भावना, इस तरह की आशंका भाजपा नेताओं में भी दिखने लगी है।
इसका पहला सबूत तब मिला जब मोदी सरकार के लाडले सांसद निशिकांत दुबे ने सरकार को अपना सुझाव भेजा। हाल ही में निशिकांत दुबे को कांस्टीच्यूशनल क्लब दिल्ली के चुनाव हराने वाले भाजपा के ही राजीव प्रताप रूडी ने एक इंटरव्यू में कहा है कि निशिकांत दुबे की हैसियत इतनी बढ़ चुकी है कि उन्हें आलाकमान ने संसद को कंट्रोल करने का मौका दे दिया है। वैसे यह मोदी सरकार की बदकिस्मती होगी अगर उसने निशिकांत के इस सुझाव पर अमल करने के बारे में सोचा भी। अगर निशिकांत दुबे के सुझाव पर अमल कर दिया जाए तो सरकार का वह कदम काफी कुछ वैसा ही होगा जैसा नेपाल के प्रधानमंत्री खड्ग प्रसाद शर्मा ओली ने 8 तारीख से पहले उठाया था। यानी, सोशल मीडिया पर नियंत्रण करने के नाम पर उस पर पाबंदियां लगाना। आज ओली सत्ताम्युत हो चुके हैं। मुझे तो लगता है कि अगर निशिकांत के सुझाव को सरकार ने मान लिया, तो भारत में भी कमोबेश वैसी ही स्थितियां पैदा हो सकती हैं जैसी नेपाल में पैदा हो चुकी हैं।
समझने की बात यह है कि निशिकांत दुबे का यह सुझाव निजी हैसियत से न होकर अधिकारिक हैसियत से दिया गया है। यानी, सरकार को इस पर किसी न किसी रूप में प्रतिक्रिया करनी पड़ सकती है। चाहे वह हां में प्रतिक्रिया करे, या न में। निशिकांत दुबे संसदीय समिति (संचार व सूचना टैक्लोलॉजी संबंधी स्थाई कमेटी) के चेयरमैन हैं, और उनकी हाल ही में पेश की गई रिपोर्ट में फेक न्यूज, एआई का दुरुपयोग और गलत जानकारी को रोकने के लिए कड़े कानून, अनिवार्य फैक्ट-चेकिंग, जुर्माने और बैन जैसे प्रावधानों की सिफारिश की गई है। दुबे ने इसे क्षेत्रीय अस्थिरता यानी नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका आदि के परिप्रेक्ष्य से जोड़ते हुए कहा है कि ऐसे उपाय भारत को इन देशों में फैली अराजक स्थिति से बचाने के लिए ज़रूरी हैं। यह रिपोर्ट 10 सितम्बर को पेश की गई है, यानी इस समय यानी सरकार इस समय निशिकांत दुबे के नेतृत्व में चल रही इस समिति की रिपोर्ट पर गौर कर रही होगी। जिस रिपोर्ट में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर फेक न्यूज़ को ‘पब्लिक ऑर्डर और डेमोक्रेसी के लिए खतरा’ बताते हुए दंडात्मक प्रावधानों में बदलाव, एडिटर्स/पब्लिशर्स की जवाबदेही, आंतरिक लोकपाल नियुक्त करने और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के टूल्स के साथ कड़ी मानवीय निगरानी की सिफारिश की गई है। दुबे का यह सुझाव किस कदर राजनीति से प्रेरित है, इसका पता उस समय लग जाता है जब वे राहुल गांधी पर आरोप लगाते हैं कि विपक्ष के नेता ‘टूलकिट’ का इस्तेमाल कर नेपाल जैसी स्थिति भारत में लाना चाहते हैं। निशिकांत के सुझाव मोदी सरकार की व्यापक नीति से मेल खाते हैं। यह सरकार सोशल मीडिया रेगुलेशन को राष्ट्रीय सुरक्षा और स्थिरता से जोड़ती है।
यह कहने की ज़रूर नहीं कि सरकार का सोच विपक्ष की गतिविधियों से काफी प्रभावित होता है। भारत में कांग्रेस समेत सभी विपक्षी पार्टियां नेपाल की घटनाओं और भारत की परिस्थितियों के बीच एक तरह की समानताओं को रेखांकित कर रही हैं। नेपाल की तरह भारत भी युवाओं की लगातार बढ़ती हुई बेरोज़गारी, व्यापक भ्रष्टाचार और आर्थिक असमानता का शिकार है। विपक्ष लगातार इस प्रकार के मुद्दों पर मोदी सरकार को चेतावनी दे रहा है कि अगर प्रणालीगत समस्याओं को नहीं सुलझाया गया, तो भारत में भी ऐसे बगावती उभार हो सकते हैं। कुछ रिपोर्टों में कहा गया है कि ये प्रदर्शन भारत के सत्ता हलकों में ‘चेतावनी की घंटी’ के रूप में देखे जा रहे हैं। अब तो हर कोई जानता है कि जब नेपाल में सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगा तो वह विद्रोह का ट्रिगर पाइंट बन गया। नौजवानों ने नारा लगाया कि कनेक्शन नहीं क्रप्शन खत्म करो। भारत में अगर ऐसा हुआ तो इसी तरह का नारा लग सकता है कि सोशल मीडिया नहीं कुशासन खत्म करो। इस तरह के नारे की कई किस्में भी हो सकती हैं, जैसे सोशल मीडिया नहीं वोट चोरी खत्म करो। सोशल मीडिया नहीं भ्रष्टाचार खत्म करो।
यह नतीजा आसानी से निकाला जा सकता है कि सरकार इस तरह की सिफारिशों की तैयारी पहले से किये बैठी थी। वरना, ऐसा कैसे हो सकता है कि इधर 8-9-10 सितंबर को नेपाल में नौजवानों की बगावत हुई और उधर फुर्ती से संसदीय समिति ने बैठक करके अपनी रिपोर्ट भी सरकार को दे दी। इतनी फुर्ती से तो मोदी सरकार कोई काम नहीं करती। दरअसल भारत में मोदी सरकार रोज़गार, कानून-व्यवस्था, शिक्षा और विकास पर कम ध्यान देती है और ज्यादा समय अपना प्रभुत्व बचाने में खर्च करती रहती है। सरकार जिन उपायों को थोपना चाहती है उसमें से धमकी निकलती है कि सरकार के खिलाफ लिखा तो देशविरोधी कार्य बताकर उम्रकैद की सज़ा मिलेगी। सरकार की नीतियों के समर्थन में लिखा तो यूटूबर को 8 लाख तक का विज्ञापन मिलेगा। एक्स, फेसबुक, इंस्टाग्राम आदि पर सरकार के समर्थन में लिखने पर सरकार प्रोत्साहन देगी। दरअसल ये प्रोत्साहन नहीं, रिश्वत है। विपक्ष व एनजीओ इसे ‘पत्रकारिता पर कंट्रोल’ बताते हैं, क्योंकि इससे सरकार को डिजिटल न्यूज पोर्टल्स और ओटीटी प्लेटफॉर्म्स पर भी नज़र रखने का अधिकार मिलता है। उदाहरण के लिए व्हाट्सएप ने ट्रेसेबिलिटी नियम के खिलाफ कोर्ट में चुनौती दी है, क्योंकि इससे यूजर्स की प्राइवेसी प्रभावित होती है। जिस देश में जनकल्याणकारी योजनाओं से ज्यादा ऊर्जा जनता को नियंत्रित करने में खर्च की जाती है क्या वह देश और राज्य कभी तरक्की कर सकता है? कभी नहीं।
2021 में मोदी सरकार के पेगासस जासूसी कांड का पर्दाफाश हुआ था। भारत ने पेगासस नाम का यह स्पाईवेयर 2017 में इज़राइल से खरीदा था। यह 15 हज़ार करोड़ के रक्षा सौदे का हिस्सा था। दरअसल, पेगासस विवाद एक वैश्विक जासूसी कांड है, जो इज़रायली कंपनी एनएसओ ग्रुप द्वारा विकसित इस स्पायवेयर के दुरुपयोग से जुड़ा है। यह सॉफ्टवेयर स्मार्टफोन्स में घुसपैठ कर कॉल, मैसेज, लोकेशन, कैमरा और माइक्रोफोन तक पहुंच सकता है, बिना यूजर की जानकारी के। भारत में यह विवाद 2021 में तब उभरा जब द वायर, एमनेस्टी इंटरनेशनल और अन्य अंतर्राष्ट्रीय मीडिया संगठनों ने खुलासा किया कि पेगासस का इस्तेमाल पत्रकारों, विपक्षी नेताओं, कार्यकर्ताओं और सरकारी आलोचकों की जासूसी के लिए किया गया।
नेपाल की 2025 की अस्थिरता और भारत में सोशल मीडिया नियंत्रण की चर्चा के संदर्भ में पेगासस विवाद को विपक्ष और कुछ विश्लेषक सरकारी निगरानी और नियंत्रण की व्यापक रणनीति का हिस्सा मानते हैं। निशिकांत दुबे जैसे सांसदों की हालिया सिफारिशें इस आशंका को बल देती हैं कि सरकार डिजिटल निगरानी और नियंत्रण को और मज़बूत करना चाहती है, खासकर क्षेत्रीय अस्थिरता के डर से। कुल मिलाकर, पेगासस विवाद भारत में निगरानी, प्राइवेसी और लोकतांत्रिक जवाबदेही पर बहस के संदर्भ में फिर से ताज़ा हो गया है। 2021 में लीक हुई सूची में 300 से अधिक भारतीय नंबर थे, जिनमें राहुल गांधी, प्रशांत किशोर, 40 पत्रकार, दो केंद्रीय मंत्री (प्रह्लाद पटेल, अश्विनी वैष्णव), और सुप्रीम कोर्ट के जज शामिल थे। पैगासस मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, वकीलों और पत्रकारों को अपना निशाना बना रहा था। मोदी सरकार ने पेगासस के इस्तेमाल की बात को स्पष्ट रूप से नकारा और कहा कि उसकी तरफ से कोई अनधिकृत निगरानी नहीं हुई। सरकार ने इसे ‘राष्ट्रीय सुरक्षा को बदनाम करने की साजिश’ भी बताया। सुप्रीम कोर्ट ने 2021 में एक स्वतंत्र जांच कमेटी बनाई, जिसकी अगुवाई जस्टिस रवींद्रन ने की। कमेटी ने 2022 में पाया कि कुछ डिवाइस में पेगासस के निशान थे लेकिन सरकार ने कमेटी के कामकाज में पूर्ण सहयोग नहीं किया। नेपाल की घटनाओं ने एक ऐसा पिटारा खोल दिया है जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतंत्र को बुरी तरह से सीमित करने वाले सांप-बिच्छू भरे हुए हैं। हम सब लोगों को सतर्क रहना है, आंखें खुली रखनी है, संघर्ष के लिए तैयार रखना है, इसकी घड़ी कभी भी आ सकती है।
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।