और अधिक सार्थक हो सकती थी वंदे मातरम् पर चर्चा

‘हाय लोगों की कर्म फरमाइयां,
तोहमतें, बदनामियां, रुसवाइयां।

उर्दू के प्रसिद्ध शायर क़ैफ भोपाली की ये पंक्तियां संसद के दोनों सदनों में राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम् की 150वीं वर्षगांठ पर हुई चर्चा के बाद ज़ेहन में घूम रही हैं। 
संसद के शीत ऋतु सत्र में सत्तापक्ष तथा विपक्ष के बीच बने शुरुआती अवरोध के बाद दोनों पक्षों की समहति से दोनों सदनों में दो मुद्दों पर रज़ामंदी बनी थी, जिसमें सरकार द्वारा वंदे मातरम् की 150वीं वर्षगांठ पर चर्चा का प्रस्ताव था और विपक्ष द्वारा विशेष व्यापक पुनरीक्षण (एसआईआर) तथा चुनाव सुधारों पर चर्चा शामिल थी।
लोकसभा में सोमवार 8 दिसम्बर को दोपहर 12 बजे वंदे मातरम् पर शुरू हुई चर्चा रात के 11.42 मिनट तक चली, क्योंकि चर्चा के लिए एक दिन ही निर्धारित हुआ था। इस चर्चा की विशेषता यह थी कि इसमें किसी ने जवाब नहीं देना था। सब ने राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम् पर अपने विचार रखने थे। लोकसभा में चर्चा की शुरुआत प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तथा राज्यसभा में गृह मंत्री अमित शाह ने की, जिसके बाद विपक्ष के अन्य नेताओं तथा सत्तारूढ़ पक्ष के अन्य वक्ताओं ने अपनी-अपनी बात रखी। चर्चा का ‘कहा गया’ उद्देश्य वंदे मातरम् गीत के 150 वर्ष पूरे होने पर एक बार फिर इसके शानदार अतीत पर दृष्टिपात करना तथा युवा पीढ़ी को इसके इतिहास के साथ जोड़ना था, परन्तु निराशा की बात यह रही कि दोनों सदनों में सभी राजनीतिक पार्टियां चर्चा के दौरान अपना ‘राजनीतिक उद्देश्य’ पूरा करती दिखाई दीं। 
प्रधानमंत्री मोदी जो भाजपा के नहीं, अपितु इस देश के प्रमुख हैं, ने अपने भाषण की शुरुआत गीत पर केंद्रित रखते हुए इसकी महानता बयान करने से की थी। हालांकि शुरुआत में ही उन्होंने आपातकाल का ज़िक्र अवश्य किया, जिसे सरसरी हवाले के रूप में देख कर दृष्टिविगत भी किया जा सकता था। 
फिर उन्होंने गीत की रचना से लेकर इसके आज़ादी के सबसे लोकप्रिय नारे के रूप में उभरने का ज़िक्र किया। गीत की मान्यता, गीत का विरोध तथा गीत के जज़्बे को भी उन्होंने पूरी भावुकता से बयान किया, और गीत की भावना को सलाम करते हुए महात्मा गांधी के लिखे शब्दों को भी सदन में पढ़ा। परन्तु भाषण का दो तिहाई हिस्सा पूरा होने के बाद उन्होंने गीत में से अंतिम चार पैरों को काटने का ठीकरा देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू पर फोड़ा। उन्होंने कहा कि नेहरू ने तुष्टिकरण की राजनीति करते हुए ये पैरे हटवा दिए, जिसका परिणाम बाद में देश के विभाजन के तौर पर निकला। कहते हैं कि घर का मुखी जो रेखा खींच देता है, बाकी  भी उसके पद चिन्हों पर चलना शुरू कर देते हैं। भाषण के अंतिम 15 मिनट में प्रधानमंत्री द्वारा खींची रेखा पर सत्तापक्ष के पास उसका अनुसरण करने की मजबूरी थी, वहीं इसके बाद विपक्ष के पास बचाव के साथ-साथ जवाबी हमला करने की रणनीति ही शेष रह गई थी।  विपक्षी पर्टियों ने भी इसी इतिहास को खंगालते हुए भाजपा के राजनीतिक पूर्वजों, उनके स्वतंत्रता संग्राम में योगदान न होने के आरोप लगाते हुए सरकार की वर्तमान कमियों को लेकर भी ज़ोरदार ढंग से निशाने लगाए। 
सरकार की ओर से बोलतो हुए अन्य वक्ताओं ने भी प्रधानमंत्री के भाषण की दिशा में ही अपने-अपने भाषण दिए, जिनमें आलोचना के बाण और भी तीव्र थे। दूसरी ओर प्रियंका गांधी के भाषण में विपक्ष द्वारा खींची रेखा की झलक थी, जिसमें सरकार द्वारा न सिर्फ देश के वर्तमान ज्वलंत मुद्दों की बजाय राष्ट्रीय गीत पर बहस करवाने के लिए दिलचस्पी दिखाने पर सवाल उठाते हुए पूछा गया कि वंदे मातरम् पर तो किसी की ओर से कोई सवाल उठाया ही नहीं जा रहा। सभी भारतवासी ही इस पर गर्व करते हैं। फिर सरकार ने इस पर चर्चा करवाना क्यों ज़रूरी समझा। सरकार द्वारा उठाए गए सवालों के जबाव में ज़ाहिरा तौर पर अपना पक्ष रखने की ज़िम्मेदारी भी उन्होंने निभाई। इसके साथ ही उन्होंने एक प्रस्ताव भी रखा कि एक बार श्री नेहरू, इंदिरा गांधी तथा राजीव गांधी द्वारा अपने समय में की गई सभी गलतियों पर इकट्ठी संसद में चर्चा करवा ली जाए और उसके बाद फिर देश के वर्तमान मुद्दों को ही संसदीय बहस का हिस्सा बनाया जाए। चर्चा के अंतिम भाग में सत्तापक्ष तथा विपक्ष की भांति राष्ट्रीय गीत तथा राष्ट्रीय गान भी आमने-सामने खड़ दिखाई दिए। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि राष्ट्रीय गान ‘जन गन मन’ की भांति राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम् को कभी उसका समुचित स्थान नहीं मिला। उन्होंने कहा कि आज़ादी के बाद यह फैसला लिया गया था कि राष्ट्रीय गीत तथा राष्ट्रीय गान को समान दर्जा दिया जाएगा, परन्तु सिर्फ राष्ट्रीय गान ही देश के चेतन मन का हिस्सा बन सका, जबकि राष्ट्रीय गीत को फालतू का दर्ज दिया गया। 
लोकसभा की भांति मंगलवार को राज्यसभा में भी भाषणों का सिलसिला ऐसे ही रहा जहां नेतृत्व मोदी सरकार के दूसरे सबसे ताकतवर मंत्री गृह मंत्री अमित शाह ने किया, परन्तु दो दिनों में दो सदनों में 20 घंटे से अधिक चली इस बहस से हासिल क्या हुआ? यह सवाल राजनीतिक पार्टियों के अतिरिक्त सबके मन में अभी भी मौजूद है। आर.जे.डी. के सांसद मनोज झा ने अपने भाषण में भाषा की मर्यादा पर चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा कि वंदे मातरम् की वर्षगांठ अवश्य मनाएं परन्तु गांठों/मतभेदों को राह में न आने दें। उन्होंने कहा कि हमें ध्यान रखना होगा कि महापुरुषों की रचानाओं को राजनीति का औज़ार न बनाया जाए।
ऐसे ही विचारों का प्रकटावा कांग्रेस के मनीष तिवारी ने भी किया। उन्होंने संसद के मौजूदा स्रोत्रों (पुरानी बहसों) का हवाला देते हुए कहा कि आज़ादी के बाद तथा 1985 के संसद में दिए भाषणों तथा 1985 से अब तक के भाषणों की जांच करवाई जाए तो स्वयं ही पता चल जाएगा कि भाषणों का स्तर कहां से कहां तक पहुंच गया है। भारत की आज़ादी से पहले से ही कुछ मुद्दों पर देश में सहमति तथा असहमति चलती रही है। असहमति के इन स्वरों की सबसे खूबसूरत गवाह संविधान निर्मात्री सभा की बहसें रही हैं। बिल्कुल संक्षिप्त में कहें तो संविधान निर्मात्री सभा के सदस्यों में भी अलग-अलग विचारधाराओं के लोग थे। दो दर्जन से अधिक प्रांतों के प्रतिनिधि तथा 70 देसी रियासतों के प्रतिनिधि इसमें शामिल थे। 1946 तथा 1949 के बीच भारत के संविधान का मसौदा तैयार करने तथा इसे अपनाने के लिए व्यापक चर्चाओं का दौर चला, जिसकी 165 दिन बैठकें हुईं। परन्तु कई अवरोधों के बावजूद संविधान सभा के सदस्यों ने संविधान तैयार करने में साहस, सावधानी तथा समझदारी का प्रकटावा किया, जिससे स्पष्ट हुआ कि हम कौन होंगे तथा हम क्या बनेंगे। संविधान सभा द्वारा की गई वे बहसें आज भी भारत के संसदीय इतिहास की शानदार पूंजी है। 
ऐसा कुछ भारती संसद के बाद के अहम चरणों के दौरान हुईं बहसों में भी दिखाई दिया। फिर चाहे वह विचार प्रकट करने की आज़ादी संबंधी किया गया पहला संवैधानिक संशोधन हो, कुछ संस्थानों के राष्ट्रीयकरण का मुद्दा हो या आर्थिक उदारीकरण। भारतीय संसद ऐसे असंख्य दौरों की गवाह रही है। भारतीय संसदीय इतिहास में हुईं कई अहम बहसों की तरह वंदे मातरम् पर भी एक सार्थक बहस हो सकती थी, जिसे भावी पीढ़ियां विरसे के रूप में संभाल कर रख सकती थीं परन्तु नेताओं की तोहमतबाज़ी तथा मर्यादा-रहित भाषा ने भविष्य से यह अवसर छीन लिया है। 

-मो. 099101-88350
ईमेल : upma.dagga@gmail.com

#और अधिक सार्थक हो सकती थी वंदे मातरम् पर चर्चा