‘जी राम जी’
संसद का शीतकालीन सत्र तो संक्षिप्त ही रहा। पहले कुछ दिन तो शोर-शराबे में गुज़र गए और आखिरी दिनों में सरकार ने एक तरह की अफरा-तफरी से कुछ अहम बिल पारित करवा लिए। इनमें बड़ी चर्चा ‘वी.बी.-जी राम जी’ बिल को पारित करवाने की हो रही है। दोनों सदनों में इसके पारित होने पर विपक्षी दलों द्वारा इस पर बेहद एतराज़ प्रकट किया गया, जो आज भी जारी है। यह कानून 20 वर्ष पहले बना था। इसका नाम पहले नरेगा और फिर मनरेगा किया गया था। उस समय संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार थी। इसका पूरा नाम ‘महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी एक्ट’ रखा गया था। इसकी शुरुआत वर्ष 2005 में हुई थी। वर्ष 2014 में केन्द्र में भाजपा के नेतृत्व वाली मोदी सरकार बनने पर प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी द्वारा पहले-पहल इस संबंध में बहुत किन्तु-परन्तु किए गए थे और बाद में इसे लगातार जारी रखा गया।
सरकार ने समय-समय पर इसकी कमियों को उजागर किया और इन्हें ठीक करने के लिए बड़े प्रशासकीय प्रबन्ध भी किए जाते रहे। इस कानून ने क्रियात्मक रूप में देश के ग्रामीण क्षेत्रों के ज़रूरतमंद लोगों को एक बड़ा सहारा दिया। यहां तक कोविड महामारी के समय में यह ग्रामीण गरीबों की एक तरह से ढाल बना रहा। इसमें जो बात अधिक उभर कर आती रही है वह यह कि इसके तहत काम करने वाले लोगों में महिलाओं की बड़ी संख्या थी और लगभग 12 करोड़ ग्रामीण ज़रूरतमंद लोग इस योजना के साथ जुड़े रहे थे। एक अनुमान के अनुसार इस कानून से देश में ज़रूरतमंदों की 14 प्रतिशत आय बढ़ी और लगभग 26 प्रतिशत गरीबी में कमी आई। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि व्यवसाय के अलावा अन्य क्षेत्रों में भी रोज़गार के स्रोत पैदा हुए। अलग-अलग स्थानों पर इसके तहत कम से कम वेतन के नियम निर्धारित करने से ग्रामीण महिलाओं और मज़दूरों के अन्य क्षेत्रों में काम करने पर भी उन्हें अदायगी करने के लिए इन वेतन की दरों को ही पैमाना बनाया जाता रहा। इस कानून में रह गई कमियों को दूर करने की ज़रूरत ज़रूर बनी रही। यह योजना ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए मूलभूत रूप में बहुत लाभदायक बन गई थी।
इसके स्थान पर अब ‘जी राम जी’ के नाम पर बना कानून कितना कारगर हो सकेगा, इस संबंध में विश्वास के साथ अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। राज्यों को नई योजना को क्रियात्मक रूप में लागू करने के लिए 40 प्रतिशत का हिस्सा डालना पड़ेगा और 60 प्रतिशत राशि का हिस्सा केन्द्र द्वारा डाला जाएगा। पहले राज्य सिर्फ 10 प्रतिशत का हिस्सा ही डालते हैं। इसने क्रियात्मक रूप में नई योजना को राज्यों द्वारा लागू करने पर प्रश्न-चिन्ह लगा दिए हैं। जहां राज्य आवश्यक फंड देने में असमर्थ होंगे, वहीं यह कानून स्वयं सहकने लगेगा, जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव निचले स्तर पर जीवन व्यतीत कर रहे ग्रामीण परिवारों पर पड़ना स्वाभाविक है। दो दशकों से बना उनका यह आर्थिक सहारा भी दम तोड़ जाएगा और संबंधित वर्गों के लिए काम की गारंटी भी नहीं रहेगी। नि:संदेह मनरेगा को समाप्त करने की केन्द्र सरकार की वर्षों से चली आ रही नीति सफल हो जाएगी। पिछले कानून को इस पक्ष से भी जन भागीदारी वाला कहा गया था, क्योंकि इसमें गांवों और पंचायतों तक की भागीदारी ज़रूरी बनाई गई थी। इसका ठोस उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में निचले स्तर पर लोगों को भुखमरी की हालत से निकालना था, जिस कारण बड़ी बड़ी अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने भी समय-समय पर इसकी प्रशंसा की थी। यह कानून ग्रामीण ज़रूरतमंदों के लिए फसलों के सीज़न के बिना भी उनका सहारा बनता रहा है।
पिछले 11 वर्षों में केन्द्र सरकार ने अनेक जन-कल्याण योजनाएं शुरू की हैं और उन्हें लागू भी किया है, परन्तु इन्हें मनरेगा योजना की भांति कानूनी दर्जा हासिल नहीं है, जिसके लिए इनकी निरन्तरता संबंधी कुछ भी नहीं कहा जा सकता। इसके लिए पुराने मनरेगा कानून के स्थान पर नया कानून बनाने में केन्द्र सरकार की नीति और नीयत पर प्रश्न-चिन्ह लगना स्वाभाविक है, परन्तु जिस तरह संदेह प्रकट किया जा रहा है, यदि वास्तव में यह रोज़गारोन्मुखी कानून खत्म हो जाता है, तो ज़रूरतमंदों और बेसहारा लोगों की आर्थिक मुश्किलों में ज़रूर वृद्धि हो सकती है।
—बरजिन्दर सिंह हमदर्द

